जुनागढ़ भाग-८

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सोमनाथ के दर्शन करके फिर जुनागढ़ लौटते हुए रास्ते में दो महत्त्वपूर्ण स्थानों के दर्शन करना ज़रूरी है। ये दोनों स्थान जुड़े हुए हैं, भगवान श्रीकृष्ण के साथ।

दर असल ये दोनों स्थान भगवान श्रीकृष्ण की अवतार समाप्त करने की लीला के साथ जुड़े हुए हैं। महाभारत के युद्ध की समाप्ति के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने लोककल्याण हेतु धारण की हुई मानवी देह का त्याग करने के लिए इस प्रभासक्षेत्र को ही चुना। यहाँ पर ‘भालुकातीर्थ’ और ‘देहोत्सर्गस्थान’ नामक दो स्थान हैं। भगवान श्रीकृष्ण के पैर के तलवे में एक सामान्य व्याध ने छोड़ा हुआ बाण घुसने की घटना ‘भालुकातीर्थ’ इस स्थान में ही हुई है, ऐसा कहा जाता है। संक्षेप में वह कथा इस तरह है- यहाँ पर बैठे भगवान श्रीकृष्ण के दाहिने पैर के तलवे को हिरन का मुख मानकर एक व्याध दूर से बाण चलाता है। वह बाण श्रीकृष्ण के पैर के तलवे में घुस जाता है और यही उनके अवतार की समाप्ति करने का निमित्त कारण बन जाता है। भालुकातीर्थ में आज इस घटना की स्मृति को मूर्तिरूप में जतन किया गया है।

इसी भालुकातीर्थ के पास है, ‘देहोत्सर्गस्थान’। कहा जाता है कि यहीं पर श्रीकृष्ण ने मानवी काया का त्याग किया था।
श्रीकृष्ण के दाऊ के रूप में स्वयं शेष ही बलराम इस नाम से अवतरित हुए थे। उन्होंने भी इसी स्थान के पास में ही अपना अवतार समाप्त कर दिया और अपने मूल स्वरूप में प्रवेश कर लिया।

सारांश, इस प्रभासक्षेत्र की महिमा अपरंपार है और प्रभासक्षेत्र की यानि कि प्रभासपाटण की भूमि साक्षात् भगवान के चरणस्पर्श से पावन हुई है।

सोमनाथ के संघर्षमय इतिहास के साथ साथ प्रभासक्षेत्र की उपरोक्त महिमा को जानने के बाद अब हम पुन: जुनागढ़ की ओर प्रस्थान करते हैं।

गिरनार की तलहटी में बसे इस जुनागढ़ की ओर प्रस्थान करते हुए याद आयी, गिरनार की। गीर और सोमनाथ का सफ़र करते करते कहीं हम गिरनार को भूल तो नहीं गये, ऐसा भी शायद आपको लग सकता है। लेकिन इस विशाल गगनस्पर्शी गिरनार के दर्शन करने के लिए हमारे पास पर्याप्त समय का और गिरनार चढ़ने के लिए पर्याप्त ताकत का होना भी तो ज़रूरी था और इसीलिए जुनागढ़ से थोड़ी सी ही दूरी पर रहनेवाले स्थानों की सैर हमने पहले कर ली। थोड़ा सा आराम करने के बाद आइए, अब चलते हैं गिरनार।

धार्मिक दृष्टि से विभिन्न धर्मियों के लिए बहुत ही पवित्र ऐसा तीर्थस्थान। गिरनार पर्वत यह कोई एक पर्वत नहीं है, बल्कि यह कई पर्वतशृंखलाओं का एक समूह है। इस पर्वतशृंखला में कुछ पर्वतों की चोटी पर पवित्र स्थान भी हैं।

चलिए, मुर्गे की बाँग के साथ साथ गिरनार चढ़ने की शुरुआत करनी चाहिए। चढ़ते समय हाथ में सहारे के लिए लाठी का रहना बहुत ही आवश्यक है। जो सीढ़ियाँ चढ़ नहीं सकते, उनके लिए डोली की व्यवस्था की गयी है। यहाँ पर चढ़ने के लिए सुव्यवस्थित रूप से सीढ़ियाँ बनायी गयी हैं, जिससे कि चढ़ते समय परेशानी न हों।

यहाँ पर एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए एक पर्वत को उतरकर दूसरे पर्वत पर चढ़ना पड़ता है। इसलिए गिरनार यात्रा करने से पहले आपको इन सभी बातों की जानकारी रहना आवश्यक है।

प्राचीन समय से गिरनार को पवित्र तीर्थ माना जाता है। गिरनार की यात्रा करनेवाले को मरने के बाद स्वर्ग में जगह मिलती है, ऐसा भी पुराने समय से माना जाता है। गिरनार पर्वत प्राचीन समय से विभिन्न नामों से जाना जाता था। समय के साथ साथ बाक़ी के नाम पीछे पड़ गये और ‘गिरनार’ यह नाम क़ायम रहा। प्रभास पर्वत, उर्ज्जयन्त पर्वत, वस्त्राप्रथ क्षेत्र, रैवतक पर्वत इन नामों से गिरनार जाना जाता था।

स्कंदपुराण के प्रभासखंड में गिरनार का वर्णन किया गया है। महाभारत में भी गिरनार का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि अर्जुन द्वारा सुभद्रा का हरण किये जाने की घटना गिरनार यात्रा के मेले में हुई थी।

स्कंदपुराण में गिरनार का उल्लेख शिव-पार्वती से संबंधित एक कथा में आता है। इस कथा के अनुसार देवी पार्वती का गिरनारपर्वत के एक शिखर पर वास था और यहाँ वे ‘अंबा’ इस नाम से जानी जाने लगी। पुराण के उल्लेख के अनुसार गिरनार को पार्वती का भाई माना जाता है।

गिरनार इस पर्वतसमूह में कई पर्वतशिखर हैं। उनमें से अंबाजी का मंदिर, गोरक्षनाथजी का मंदिर, श्रीगुरु दत्तात्रेयजी का स्थान इन पर्वतशिखरों की तथा जैनमंदिर समूह की यात्रा की जाती है।

गिरनार चढ़ने की शुरुआत करने के बाद लगभग चार हज़ार सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद सबसे पहले जैन मंदिर समूह का पड़ाव आता है। यहाँ पर जैन तीर्थंकरों के मंदिर हैं।

ये जैन मंदिर नेमिनाथजी, मल्लिनाथजी, ॠषभदेवजी और पार्श्‍वनाथजी इन तीर्थंकरों के हैं। इन मंदिरों में उनकी विशिष्ट रंग की मूर्तियाँ हैं। इन मंदिरों का निर्माण विभिन्न कालखण्डों में किया गया। मंदिरों के दर्शनी तथा भीतरी विभाग में भी विभिन्न प्रकार से अलंकरण किया गया है।

जैनमंदिर समूह के दर्शन करने के बाद अगले पड़ाव पर दर्शन होते हैं, माता अंबाजी के। सिंदूरचर्चित और चाँदी के नेत्र रहनेवाली उनकी मूर्ति यहाँ पर है। देवी पार्वती का स्थान होने के कारण यह स्थान शक्तिपीठों में से एक पीठ माना जाता है।

अंबाजी मंदिर के बाद अगले पड़ाव पर हमें दर्शन होते हैं, गोरक्षनाथजीके। गिरनार की इस यात्रा में शरीर भले ही थक जाता हो, लेकिन पर्वत की ऊँचाई पर छूती हुई तेज़ ठण्डी पवन और आसपास की प्राकृतिक सुन्दरता इनसे मन हमेशा तर्रोताज़ा रहता है। उस ऊँचाई से तलहटी में रहनेवालीं वस्तुएँ चींटी जितनी दिखायी देती हैं।

गिरनार के पर्वतशिखरों को ‘टूक’ भी कहा जाता है।

इन्हीं में से एक चोटी पर है, गोरक्षनाथजी का स्थान। इसे ही ‘गोरक्ष शिखर’ भी कहा जाता है। सभी पर्वतशिखरों में से यह सबसे ऊँचा शिखर माना जाता है। यहाँ पर नवनाथों में से एक नाथ रहनेवाले गोरक्षनाथजी ने तपस्या की थी, ऐसा भी कहा जाता है। गोरक्षनाथजी का स्थान रहनेवाली इस चोटी की ऊँचाई लगभग साढ़े तीन हज़ार फीट से भी अधिक है। यहाँ पर जगह भी काफी कम है और हवा भी काफी तेज़ बहती है।

इसके बाद का पड़ाव है, श्रीगुरु दत्तात्रेयजी का स्थान। इस शिखर को ‘गुरुशिखर’ भी कहा जाता है। यहाँ जाने के लिए सीढ़ियाँ उतरकर फिर चढ़नी और उतरनी पड़ती हैं और उसके बाद हम गुरुशिखर तक पहुँच जाते हैं। जगद्वंद्य सद्गुरु श्रीदत्तात्रेयजी की तपसाधना का यह स्थान माना जाता है। यहाँ पर दत्तात्रेयजी की पादुका हैं।

गिरनार के इन प्रमुख स्थानों के दर्शन करने से गिरनार की यात्रा सफल एवं संपूर्ण होती है। दर असल गिरनार पर अन्यत्र भी कुछ अन्य स्थान हैं; लेकिन गिरनार की यात्रा करनेवाले प्रमुखत: इन स्थानों के दर्शन करते हैं। लेकिन इस संपूर्ण यात्रा में मानव की शारीरिक क्षमता की कसौटी रहती है।

गिरनार पर चढ़ने के मार्ग में जगह जगह खानपान की तथा विश्राम की व्यवस्था की गयी है।

गिरनार की इस यात्रा में कुल ९९९९ सीढ़ियों को पार करना पड़ता है, ऐेसा कहा जाता है। तलहटी से शुरुआत करके उपरोक्त स्थानों का दर्शन करने के लिए कुल ९९९९ सीढ़ियाँ उतरनी एवं चढ़नी पड़ती हैं। लेकिन कुछ लोगों की राय में यहाँ पर लगभग आठ हज़ार सीढ़ियाँ ही हैं।

अधिकांश भाविक भोर के समय ही गिरनार चढ़ना शुरू करते हैं और शाम को तलहटी तक लौट आते हैं। कुछ भाविक इसकी परिक्रमा भी करते हैं। कार्तिक शुद्ध एकादशी को भवनाथ मंदिर से इस परिक्रमा की शुरुआत होती है और पूर्णिमा तक वह पूरी हो जाती है।

महाभारत काल में यहाँ पर ‘रैवतकमह’ नाम की यात्रा होती थी। आज कल गिरनार के सबसे ऊँचें शिखर तक जाकर वापस तलहटी तक आने की प्रतियोगिता आयोजित की जाती है। ऐसा भी सुनने में आया है कि स्थानीय लोगों की राय में इस प्रतियोगिता में दर्ज किया गया रेकॉर्ड सिर्फ़ ४३ मिनटों का है।

गिरनार के इस प्रदेश में महत्त्वपूर्ण मंदिरों के साथ साथ तीन कुंड भी हैं। उनके नाम हैं – कमंडलु, गोमुखी और हनुमानधारा। यहाँ के एक शिखर पर पुराने समय में बनाये गये राजमहल भी हैं। लेकिन उनका अस्तित्व आज भग्न स्थिति में रह गया है।

चलिए, तेज़ हवाओं तथा हरी भरी प्राकृतिक सुन्दरता इनके साथ हमारी गिरनार की यात्रा तो बहुत ही आनन्दमय रही। अब इन्हीं के साथ तलहटी की ओर प्रस्थान करते हैं और गिरनार से अलविदा कहते हुए उसीकी तलहटी में बसे जुनागढ़ से भी विदा लेते हैं।

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