त्रिचूर भाग ३

आदिम काल में अन्न की खोज में भटकनेवाला मनुष्य जब से एक जगह बसने लगा, तब से हक़ीकत में मनुष्य का जीवन अनुशासनबद्ध होने लगा। इसीसे फ़िर विभिन्न लोकसमूहों की संस्कृतियाँ विकसित होने लगीं। आगे चलकर ये संस्कृतियाँ विभिन्न प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करने लगीं। इन संस्कृतियों में ही फ़िर नृत्य, नाट्य, साहित्य आदि का विकास हुआ। हमारे भारत में भी हर एक प्रान्त के नृत्य, नाट्य, साहित्य आदि में विशेषता दिखायी देती है। इस त्रिचूर को केरल की ‘सांस्कृतिक राजधानी’ के तौर पर जाना जाता है। इसकी वजह क्या है? इसीका अध्ययन हम आज के इस भाग में करेंगे।

त्रिचूर के ओणम की ख़ासियत

हमारे भारत के हर एक प्रान्त की एक विशेष भाषा है और उस उस राज्य में, उस उस भाषा में साहित्य-नाट्य आदि का निर्माण प्राचीन समय से होता आ रहा है। फ़िर ऐसी बातों का जतन एवं संवर्धन करना, यह सांस्कृतिक विकास का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा होता है। त्रिचूर में भी इसी तरह साहित्य, नृत्य, नाट्य आदि का जतन एवं संवर्धन करने के लिए विभिन्न संस्थाओं की स्थापना की गयी है।

‘मलयाळम्’ यह केरल में बोली जानेवाली भाषा है। प्राचीन समय से इस भाषा में निर्माण हो चुके साहित्य को उचित रूप से जतन करना, साथ ही वर्तमान समय में उस भाषा में साहित्यनिर्मिति को बढ़ावा देना इन उद्देश्यों के साथ ‘केरल साहित्य अकादमी’ की स्थापना की गयी। इसवी १९५६ में इस अकादमी की स्थापना की गयी। १९५६ में इस अकादमी का काम ‘थिरुअनन्तपुरम्’ में शुरू हुआ। इसका उद्घाटन केरल के उस समय के राजप्रमुख और भूतपूर्व त्रावणकोर संस्थान के राजा ‘चिथिरा थिरुनल बलराम वर्मा’ द्वारा किया गया। सालभर में ही इस अकादमी को त्रिचूर में स्थलांतरित किया गया और तब से ‘केरल साहित्य अकादमी’ का काम त्रिचूर से किया जा रहा है। मलयाळम् भाषा के साहित्य के साथ साथ मलयाळम् भाषा का संवर्धन करना, यह भी इस अकादमी का एक उद्देश्य है। यहाँ पाठकों के लिए एवं भाषाविषयक अनुसन्धान करनेवालों के लिए विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध करायी गयी हैं।

साहित्य के साथ साथ बात होती है, नाट्य और नृत्य की। क्योंकि नृत्य और नाट्य ये प्राचीन समय से मानवी जीवन का एक आवश्यक अंग रहे हैं। समय की धारा के साथ साथ कईं नृत्यप्रकारों, नाट्यप्रकारों का अस्त हो रहा है। इसकी प्रमुख वजह यह है कि किसी न किसी कारणवश इन कलाप्रकारों का प्रस्तुतीकरण करनेवाली अगली पीढ़ी का न होना। अत एव इन प्राचीन कलाप्रकारों को जतन करने के लिए तथा उन्हें अगली पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए इसवी १९३८ में ‘केरल संगीत नाटक अकादमी’ की स्थापना की गयी। इसके नाम में ही संगीत होने के कारण यह अकादमी नृत्य, नाटक इनके साथ साथ संगीत को भी जतन करने का काम करती है। त्रिचूर से इस अकादमी की कार्य किया जाता है।

सांस्कृतिक इस शीर्षक के अन्तर्गत केवल नृत्य, नाटक, साहित्य, संगीत इतनी ही बातों का समावेश नहीं होता; बल्कि इनके अलावा चित्रकला, शिल्पकला आदि बातों का भी समावेश होता है। चित्रकला, शिल्पकला आदि कलाओं का संवर्धन करने के लिए इसवी १९६२ में ‘केरल ललितकला अकादमी’ की स्थापना की गयी।

पिछले कुछ सालों से दुनिया के नक़्शे में त्रिचूर एक ख़ास बात के लिए मशहूर बन चुका है और वह है – पिछले कुछ सालों से त्रिचूर में आयोजित किया जानेवाला ‘इंटरनॅशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल ऑफ़ त्रिचूर’। इसी तरह के एक इंटरनॅशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल का आयोजन तिरुअनन्तपुरम् में भी किया जाता है। इस फ़िल्म फ़ेस्टिवल में लगभग ३५ देशों की १०० फ़िल्में दिखायी जाती हैं। इससे हम इस फ़िल्म फ़ेस्टिवल की व्यापकता को समझ सकते हैं।

उत्सव यह किसी भी मानवसमूह का एक ख़ास अंग होता है। दरअसल मनुष्य जिन निसर्गदेवताओं की पूजा आदिम समय में करता था, उन निसर्गदेवताओं का प्रकोप न हो और वे सदा हमारा कल्याण ही करें, इस उद्देश्य से उनकी प्रार्थना करने के लिए इन उत्सवों की शुरुआत मानवसमाज में हुई। आगे चलकर जब देवताएँ मूर्तिरूप में विकसित हो गयीं, तब इन उत्सवों को विशिष्ट देवताओं के नाम से मनाया जाने लगा। कुदरती चक्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले ऋतुओं के परिवर्तन के साथ, उदा. वसन्त ऋतु के आगमन के साथ उत्सव मनाये जाने लगे।

‘ओणम’ यह पूरे केरल में मनाया जानेवाला उत्सव है। स्वाभाविक तौर पर त्रिचूर में भी वह मनाया जाता ही है। त्रिचूर के ओणम की कुछ ख़ासियत भी है, लेकिन त्रिचूर के ओणम की उस ख़ासियत को देखने से पहले ‘ओणम’ के बारे में थोड़ीबहुत जानकारी प्राप्त करते हैं।

‘ओणम’ यह केरल का सबसे बड़ा त्योहार है। चिंगम के यानि कि अश्‍विन मास के शुक्ल पक्ष में श्रवण नक्षत्र के उदय के साथ यह मनाया जाता है। इस श्रवण को ही केरल में ‘तिरुओणम’ कहते हैं। इस श्रवण नक्षत्र के उदय के पूर्व जिस दिन हस्त नक्षत्र का उदय होता है, तभी से उस त्योहार की शुरुआत होती है।

इस कालावधि में फ़सल तैयार हो चुकी होती है। फ़सल की समृद्धता की खुशी में ओणम का यह उत्सव मनाया जाता है।

ओणम इस उत्सव के साथ एक कहानी जुड़ी हुई है। महाविष्णु के परमभक्त प्रह्लाद का पोता था राजा बलि। बलिराजा को बलिचक्रवर्ती, महाबली और मावेली इन नामों से भी जाना जाता है। इस बलि ने पृथ्वी और स्वर्ग पर अपना राज स्थापित किया था। इसके शासनकाल में प्रजा सुखचैन से रह रही थी। लेकिन स्वर्ग पर भी इसकी सत्ता होने के कारण देवतागण इससे परेशान थे। तब उन्हें परेशानी से मुक्त करने के लिए महाविष्णु ने वामन अवतार धारण कर लिया। इन बटुमूर्ति वामन ने बलि के पास जाकर उससे स्वयं (वामन) के तीन कदमों जितनी भूमि माँग ली। उसके अनुसार फ़िर वामन ने अपने एक पैर को स्वर्गलोक में, दूसरे को पृथ्वी पर और तीसरे को बलि ने ही आगे किये हुए माथे पर रख दिया और बलि को पाताललोक में भेज दिया। मग़र पाताललोक जाते हुए बलि ने वामन से एक बात के लिए अनुमति माँगी थी – साल में एक बार पृथ्वी पर आकर अपनी प्रजा को देखने की अनुमति। वामन ने उसे मंज़ुरी दे दी। इस कहानी के अनुसार ‘ओणम’ को बलिराजा पृथ्वी पर आता है और अपनी प्रजा को खुश देखकर वापस लौट जाता है।

दरअसल ‘बलि’ इस शब्द का अर्थ ‘किसान’ यह भी है और इसके अनुसार सोचा जाये तो बलि का राज यानि कि किसान का राज अर्थात् अनाज की विपुलता। अनाज की विपुलता के कारण फ़िर बलि की प्रजा यक़ीनन सुखी और सन्तुष्ट तो होगी ही।

संक्षेप में, धूप, बारिश और हवा ये तीन प्रमुख प्राकृतिक घटक, जो फ़सल को बढ़ानेवाले होते हैं और अनाज को हम तक पहुँचानेवाला किसान, इनका शुक्रिया अदा करने के उद्देश्य से शायद इस त्योहार की शुरुआत हुई होगी।

इस उत्सव की महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस उत्सव में घर के दर्शनी विभाग में फ़ूलों के द्वारा रंगोली बनायी जाती है। दस दिनों तक इस प्रकार से फ़ूलों की रंगोली बनायी जाती है। जिस दिन श्रवण नक्षत्र रहता है, उस प्रमुख पर्व पर वामन की मिट्टी से बनायी गयी मूर्ति की स्थापना आँगन में की जाती है। इस मूर्ति के सामने भी फ़ूलों की सजावट की जाती है। सर्वप्रथम घर के लोग एकसाथ मिलकर ‘आरप्पू’ इस प्रकार की मंगलध्वनि एवं हर्षध्वनि का उद्घोष करते हैं और उसके बाद वामन की मूर्ति की पूजा की जाती है। इस पर्व पर नये वस्त्र पहनना और मिष्टान्न भोजन करना, यह इस उत्सव के प्रमुख अंगों में से एक अंग है।

दस दिनों तक चलनेवाले इस ओणम के उत्सव में केरल के लोग विभिन्न प्रकार के खेल भी खेलते हैं। इस पर्व पर विभिन्न प्रकार की प्रतियोगियाओं का आयोजन किया जाता है, विभिन्न प्रकार के नृत्य भी किये जाते हैं।

ओणम में ‘कथकळी’ इस केरली नृत्य का आयोजन किया जाता है। इस उत्सव के दौरान त्रिचूर में गहनों से सजाये गये हाथियों की शोभायात्राएँ निकाली जाती हैं। ओणम की एक और विशेषता है, इस उत्सव के चौथे दिन आयोजित की जानेवाली नौका प्रतियोगिताएँ। कईं नौकाचालकों द्वारा एकसाथ मिलकर चलायी जानेवालीं बड़ी बड़ी नौकाओं की प्रतियोगिता को देखने तथा प्रतियोगियों को प्रोत्साहित करने के लिए भारी संख्या में उपस्थित लोग, यह दृश्य ओणम के दौरान अरन्मुलाई एवं कोट्टायम में यक़ीनन दिखायी देता है।

इस उत्सवकाल में त्रिचूर की सड़कों पर बाघ घूमते रहते हैं। चौंक गये न आप यह पढ़कर! लेकिन त्रिचूर में ओणम के दौरान घूमनेवाले ये बाघ जंगल के बाघ नहीं होते, बल्कि वे होते हैं बाघ की वेशभूषा किये हुए मानव।

‘पुलिकळी’ को हम बाघों की वेषभूषा किये हुए लोगों की शोभायात्रा कह सकते हैं। ‘पुलि’ यानि कि बाघ और ‘कळी’ का अर्थ है नाटक। इस पुलिकळी का प्रस्तुतीकरण ओणम के चौथे दिन किया जाता है।

इसमें शामिल होनेवाले लोग बाघों की तरह वेशभूषा करते हैं और इन बाघों के साथ साथ शिकारी भी इन शोभायात्राओं में सम्मीलित होते हैं। शिकारी पीले, काले और लाल रंग में रंगे हुए होते हैं। शोभायात्रा में बाघ और शिकारी दोनों भी वाद्यसंगीत पर नाचते हैं। इस तरह बाघ और शिकारी एकसाथ, बिना किसी झगड़े के यहीं पर दिखायी देते हैं।

त्रिचूर में इतना सबकुछ देखने के बाद भी त्रिचूर के पुनर्रचनाकार होनेवाले थंपुरन राजा के राजमहल को देखना तो अब भी बाकी है और साथ ही त्रिचूर के पास के एक प्रमुख मन्दिर के बारे में भी जानकारी प्राप्त करनी है। लेकिन वह आज नहीं, उसके अगले भाग तक हमें इन्त़जार करना होगा।

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