हरिद्वार

सर्दियों के मौसम की एक शाम। सूर्य का अस्त हुए का़फ़ी समय बीत चुका है। नदी की ते़ज धारा और नदी के दोनों किनारों पर भीड़ इकट्ठा हो चुकी है। अन्धेरा भी का़फ़ी हो चुका है, मग़र फिर भी उस अन्धेरे में भी नदी की धारा ते़जी से बह रही है और इतने में….मानो जैसे रोशनी की बारिश हो रही हो, ऐसी प्रतीति दिलानेवाले दीपकों के प्रकाश में और घंटाओं के लयबद्ध नाद में शुरू हो जाती है आरती। ऐसा यह दीपकों का प्रकाश, घंटाओं का नाद और आरती के सुर गंगाजी प्रतिदिन अनुभूत करती हैं और उनके घाट भी। यह है गंगाजी की आरती, प्रतिदिन की आरती और उस आरती के प्रतिदिन के गवाह हैं, ये हरिद्वार के घाट।

haridwar-new-copy- हरिद्वार

दरअसल गंगाजी की आरती ऋषिकेश में भी देखी थी और हरिद्वार में भी। लेकिन हरिद्वार की गंगाजी की आरती ने मन को मोह लिया।

हरिद्वार। हरि के समीप जाने का द्वार। भगवान के पास जाने का दरवा़जा यह ‘हरिद्वार’ शब्द का सरलार्थ है। गंगोत्री ग्लेशियर में उद्गमित गंगाजी कईं पहाड़ों-पर्वतों पर से बहते हुए आती हैं और हरिद्वार में सर्वप्रथम मैदानी इला़के में उतरती हैं। अर्थात् पहाड़ों की शृंखला का प्रवास पूरा कर अब गंगाजी का मैदानी इला़के का सीधा सीधा प्रवास शुरू हो जाता है, हरिद्वार से ही और इसीलिए हरिद्वार को ‘गंगाद्वार’ भी कहा जाता है।

गंगाजी हरिद्वार में मैदानी इला़के में प्रवेश करती हैं, वहीं इसी हरिद्वार से तीर्थयात्री बद्रिनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और जमनोत्री इन हिमालय के चार प्रमुख तीर्थस्थलों के लिए प्रस्थान करते हैं, इसीलिए हरिद्वार को विष्णुजी और शिवजी इन दोनों देवताओं के समीप ले जानेवाले मार्ग का द्वार माना जाता है।

वैसे तो हरिद्वार नगरी का़फ़ी प्राचीन है। हरिद्वार का उल्लेख कईं प्राचीन ग्रन्थों में तथा दन्तकथाओं में भी मिलता है।

प्राचीन समय में इस नगर में कपिल ऋषि का आश्रम होने का उल्लेख किया गया है और इसीलिए हरिद्वार को ‘कपिलस्थान’ भी कहा जाता था।

भगीरथजी ने उनके पुरखों को मुक्ति दिलाने के लिए तपश्चर्या की और गंगाजी को वे पृथ्वी पर ले आये, ऐसी कथा कही जाती है। इसीलिए गंगाजी पहाड़ी इला़के में से जहाँ मैदानी इला़के में प्रवेश करती हैं, उस हरिद्वार का और मुक्ति इस संकल्पना का परस्पर घना रिश्ता जुड़ा हुआ है।

महाभारत के वनपर्व में धौम्य ऋषि युधिष्ठिर को गंगाद्वार नामक तीर्थ के बारे में बताते हैं, ऐसा कहा जाता है। महाभारत के साथ साथ पुराणों में भी हरिद्वार का उल्लेख प्राप्त होता है।

इसवीसन की गिनती शुरू होने से पहले हरिद्वार पर मौर्यों का शासन था और पहली सदी से लेकर तीसरी सदी तक यहाँ पर कुशाण राजवंश का शासन था, ऐसा इतिहास कहता है। इतिहास के इन सन्दर्भों की पुष्टि करते हैं हरिद्वार में प्राप्त हुए कुछ शिलालेख।

हरिद्वार का प्रथम लिखित उल्लेख ह्यु-एन-त्संग इस चिनी यात्री के सफ़रनामे में प्राप्त होता है। ७वीं सदी में भारत आये इस चिनी यात्री ने भारत के कईं स्थानों की यात्रा की और उनके नाम अपने सफ़रनामे में द़र्ज किये, ऐसा कहा जाता है। ह्यु-एन-त्संग के सफ़रनामे के अनुसार उस समय के इस नगर का वर्णन ‘मो-यु-लो’ इस नाम से प्राप्त होता है। इस नाम का सन्दर्भ हरिद्वार के एक और नाम के साथ जुड़ा हुआ है। हरिद्वार यह स्थान ‘मायापुरी’ इस नाम से भी जाना जाता था।

अकबर के जमाने में हरिद्वार का उल्लेख ‘मायापुर’ अथवा ‘माया’ इस नाम से किया जाता था। लेकिन जहाँगीर के जमाने में इस नगर की यात्रा करनेवाले ‘थॉमस कोर्याट’ नामक अंग्रे़ज यात्री ने इस नगर का उल्लेख ‘हरिद्वार’ किया है।

तो ऐसा यह विभिन्न नामों से सुपरिचित होनेवाला हरिद्वार प्राचीन समय से बसा हुआ है। भारत की परतन्त्रता के दौरान यहाँ की हु़कूमत अंग्रे़जों के हाथ में थी, मग़र तब भी हरिद्वार का धार्मिक तथा आध्यात्मिक महत्त्व रत्तीभर भी नहीं घटा।

अंग्रे़जों ने हरिद्वार का समावेश युनायटेड प्रोव्हिन्स में किया था। अंग्रे़जों के जाने के बाद, भारत की आ़जादी के बाद हरिद्वार का समावेश उत्तर प्रदेश में किया गया। उत्तराखण्ड राज्य की निर्मिति के बाद ९ नवम्बर २००० को हरिद्वार का समावेश इस नवनिर्मित राज्य में किया गया।

भारतीय समाजमानस की दृष्टि से हरिद्वार का धार्मिक महत्त्व अपरम्पार है। गंगाजी के साथ जुड़ी हुई मुक्ति की संकल्पना हरिद्वार के साथ भी दृढ़ रूप में जुड़ी हुई है। हरिद्वार के सन्दर्भ में एक और बात कही जाती है कि गरुडजी जिस अमृतकुम्भ को ले जा रहे थे, उस अमृतकुम्भ में से अमृत की एक बूँद हरिद्वार में भी गिरी। अमृत की बूँदें जिन चार स्थानों पर गिरीं ऐसा माना जाता है, उन चार स्थानों में से एक स्थान हरिद्वार है। इसीलिए जिन चार स्थानों पर कुम्भमेले का आयोजन किया जाता है, उनमें से एक हरिद्वार है।

पवित्र पुण्यक्षेत्र होने के कारण हरिद्वार में कईं मन्दिर तथा आश्रम हैं। लेकिन हरिद्वार का मुख्य आकर्षण है, गंगाजी। क्योंकि गंगाजी से सही मायने में हमारी भेंट होती है, हरिद्वार में। दरअसल उद्भवस्थान से लेकर गंगाजी जिस जिस स्थान से बहती हैं, उस हर स्थान पर, उस हर मोड़ पर गंगाजी के दर्शन होते ही हैं। लेकिन हरिद्वार में गंगाजी हमारे सामने इस प्रकार से बहती रहती हैं, मानो जैसे हमारे गाँव या शहर की कोई परिचित सड़क हो, ‘विदीन अवर रीच’। अभी अभी मैदानी इला़के में प्रवेश कर चुकीं गंगाजी की उस ते़ज धारा को का़फ़ी क़रीब से देखना, उनके शीतल जल को स्पर्श कर उसे अनुभूत करना, यह भी यहाँ पर आसानी से सम्भव होता है।

गंगाजी और उनके घाट इनके बीच का नाता हरिद्वार में भी कायम है। गंगाजी के दर्शन करने आनेवाले भक्तों की सुविधा के लिए यहाँ पर भी घाटों का निर्माण किया गया है, लेकिन ये घाट गंगाजी के वाराणसीस्थित घाटों जितने मशहूर नहीं हैं।

इन घाटों में से सबसे महत्त्वपूर्ण और मशहूर घाट है, ‘हरि-की-पौड़ी’। हरि-की-पौड़ी का अर्थ है ईश्वर के समीप ले जानेवाला पायदान। इसके बारे में ऐसा कहा जाता है कि इस घाट का निर्माण राजा विक्रमादित्य ने किया। राजा विक्रमादित्य उज्जैन के मशहूर राजा थे, जिनका समय पहली सदी यह माना जाता है। विक्रमादित्य राजा के भाई भर्तृहरि ने यहाँ पर तपश्चर्या की, ऐसा माना जाता है और उन्हीं की याद में विक्रमादित्य ने इस घाट का निर्माण किया। इसी हरि-की-पौड़ी घाट पर हररो़ज शाम गंगामैया की आरती की जाती है।

हरिद्वार को जिस तरह गंगाजी का सामीप्य प्राप्त हो चुका है, उसी तरह पर्वतों का सान्निध्य भी प्राप्त हो चुका है। यहाँ के बिल्व पर्वत पर ‘मनसा देवी’ का मन्दिर है और ‘नील पर्वत’ पर ‘चंडी देवी’ का मन्दिर है। मनिषाओं यानि कि मनोकामनाओं को पूरा करनेवाली देवी इस अर्थ में इनका नाम ‘मनसा देवी’ है। वहीं चण्ड-मुण्ड इन असुरों का विनाश करनेवाली देवी इस अर्थ में चण्डी देवी यह नाम दिया गया है। चण्डी देवी के नील पर्वत पर स्थित इस मन्दिर का निर्माण २०वी सदी के आरम्भ में कश्मीर के राजा ने किया। दोनों पर्वतों पर स्थित इन मन्दिरों तक पहुँचने के लिए रोप-वे का प्रबन्ध किया गया है।

‘गुरुकुल कांगडी’ यह नाम शायद आपने सुना होगा। इसवी १९०२ में ‘गुरुकुल कांगडी’ इस शिक्षासंस्थान की स्थापना की गयी। प्राचीन काल में भारत में गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती थी। शिक्षा की इस ‘गुरुकुल पद्धति’ का स्वीकार इस संस्थान ने किया है। यहाँ पर वेद, भारतीय तत्त्वज्ञान, संस्कृति इनके साथ साथ आधुनिक युग के अनुसार आवश्यक होनेवाली शिक्षा भी प्रदान की जाती है।

सालभर उपलब्ध रहनेवाला गंगाजी का विपुल जल और मैदानी इलाक़ा इनके कारण हरिद्वार और उसके आसपास का प्रदेश कईं घने पेड़ों से सम्पन्न है। इसी प्रदेश में लगभग ८२० स्क्वेअर किलोमीटर के इला़के में वन्य जीवों और पेड़ों का संरक्षित आश्रयस्थान होनेवाला ‘राजाजी नॅशनल पार्क’ स्थित है। यह नॅशनल पार्क उत्तराखण्ड राज्य के तीन जिलो में फ़ैला हुआ है, इसीलिए इस नॅशनल पार्क में हरिद्वार के अलावा देहरादून तथा कोटद्वार से भी आप प्रवेश कर सकते हैं।

पेड़ों की विभिन्न प्रजातियाँ, वन्य पशुओं की २३ प्रजातियाँ और पक्षियों की ३१५ प्रजातियाँ इनसे यह नॅशनल पार्क समृद्ध है।

इसके अलावा ‘नील धारा पक्षीविहार’ नामक पक्षी अभयारण्य भी हरिद्वार में है। यहाँ पर स्थानीय पक्षियों के अलावा सर्दियों में आनेवाले स्थलांतरित पक्षियों की प्रजातियाँ भी पायी जाती हैं।

देखिए! बातचीत करते करते हम हरिद्वार की सैर भी कर चुके हैं और आरती भी अब ख़त्म हो चुकी है। लेकिन रुकिए! अब भी हमें एक और सुन्दर घटना का अनुभव करना है। अब गंगाजी के प्रवाह में फ़ुलो से सजाये गये दीपक भक्तगणों द्वारा छोड़ दिये जायेंगे। प्रवाह के साथ साथ वे टिमटिमाते दीपक आगे बढ़ते रहेंगे और हमारी ऩजर भी उनका पीछा करती रहेगी। क्योंकि अन्धेरे को छेदनेवाले वे अनगिनत दीपक जिस तरह हमारे लिए आश्‍वासक होते हैं, उसी तरह वे जहाँ जहाँ जाते होंगे, वहाँ वहाँ दूर दूर तक उन्हें देखनेवालों के लिए भी वे आश्‍वासक ही साबित होते होंगे।

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