भरुच

हमारे भारतवर्ष में हम जब यात्रा करते हैं, तब एक अलग ही संस्कृति के साथ हमारा परिचय होता है और वह संस्कृति है, खाद्यसंस्कृति। कुछ गाँव या शहर इनकी पहचान होती है, वहाँ पर बनाये जानेवाले विशेष खाद्यपदार्थ। जैसे, कर्जत का आलूवड़ा (बटाटावडा), सुरत की घारी, आग्रा का पेठा, सातारा के कंदी पेड़ें, नासिक के भडंग….। यदि ऐसे नामों की लिस्ट बनायी जाये, तो वह का़ङ्गी बड़ी होगी। इस लिस्ट में एक नाम आता है, ‘भरुचनी प्रख्यात खारी सिंग’ यानि कि भरुच में मिलनेवाले, मूँगफ़ली के खारे दानें। तो ऐसा है यह भरुच शहर! खारे दानों के लिए मशहूर।

नर्मदा नदी के उत्तरी तट पर बसा हुआ यह शहर। इस शहर का अस्तित्व बहुत प्राचीन समय से है। प्राचीन वाङ्मय में, संहिताओं में इस नगर के बारे में वर्णन प्राप्त होता है। प्राचीन समय में यह शहर ‘भृगुकच्छ’, ‘भरुकच्छ’ इन नामों से जाना जाता था।

‘भृगु’ इस शब्द को पढ़कर यदि आप यह अनुमान कर रहे हैं कि इस शहर का भृगु ऋषि के साथ कुछ न कुछ सम्बन्ध अवश्य है, तो आप बिल्कुल सही सोच रहे हैं। यह वही जगह है, जहाँ पर भृगु ऋषि ने तपश्चर्या की थी और यहीं पर उनका आश्रम भी था। इसी कारण लोग इस स्थान को ‘भृगुतीर्थ’ कहने लगे। जिसे बटु वामन ने पाताल में भेज दिया था, उस बलि राजा ने यहीं पर अश्‍वमेध यज्ञ किया था, ऐसा माना जाता है।

भरुच में किये गये कईं उत्खननों में प्राचीन समय की कईं वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें विशेष रूप से प्राचीन समय के मन्दिरों का समावेश है।
इस आध्यात्मिक इतिहास के साथ साथ भरुच की एक और महत्त्वपूर्ण पहचान है और वह है कि प्राचीन समय में यह एक बहुत बड़ा व्यापारी केन्द्र था। इसका प्रमुख कारण है कि यह शहर नर्मदा नदी के तट पर बसा था। जब तक सड़कों के माध्यम से विदेशों के साथ व्यापार की शुरुआत नहीं हुई थी, तब तक नदियाँ और सागर ये व्यापार के दो प्रमुख उपलब्ध मार्ग थे। भरुच से जलमार्ग द्वारा युरोप, ईरान, इजिप्त आदि देशों के साथ व्यापार होता था। दरअसल युरोप के लोग इस शहर को ‘बरिगाझा’(बरुगाझा) इस नाम से पहचानते थे। पहली सदी में लिखे गये ‘पेरिप्लस ऑफ़ द इरिथ्रियन सी’ इस ग्रन्थ में भरुच का वर्णन मिलता है। भरुच से होनेवाले व्यापार के कारण ही अरबस्तान, ग्रीक, इजिप्शियन, पर्शियन, इथियोपियन, रिपब्लिक ऑफ़ व्हेनिस ये देश भरुच से परिचित थे। लेकिन पेरिप्लस में किये गये वर्णन के अनुसार, हालाँकि भरुच यह एक व्यापारी केन्द्र तो था, लेकिन नौकानयन की दृष्टि से वह उतना अच्छा बन्दरगाह नहीं था, क्योंकि उस समय तक नर्मदा के मुख के प्रदेश में रेत और मिट्टी के कारण उसके पात्र की गहराई कम हो चुकी थी।

व्यापारी केन्द्र होने के कारण उन दिनों इस शहर का विकास और तरक्की हो ही रही थी।

व्यापारी केन्द्र होनेवाला यह शहर इतिहास के किसी कालखण्ड में ‘भृगुपूर’ इस नाम से भी जाना जाता था। यहाँ पर यह बात ग़ौर करने लायक है कि प्राचीन समय के विभिन्न कालखण्डों में इस शहर का नाम भले ही बदलता रहा हो, मग़र फ़िर भी उस हर एक नाम में ‘भृगु’ यह शब्द तो अवश्य था।

विभिन्न कालखण्डों में मौर्य, सातवाहन, गुप्त राजाओं का भरुच पर शासन रहा है। मौर्य, सातवाहन और गुप्त राजाओं के शासनकाल में भरुच भारत के दूर-दूर के शहरों के साथ सड़कों के माध्यम से जुड़ा हुआ था। इससे हम अन्दाजा लगा सकते हैं कि भरुच से कितने बड़े पैमाने पर व्यापार होता रहा होगा।

नासिक की एक गुफ़ा में पहली सदी का एक शिलालेख खोजा गया है और उसमें किये गये वर्णन के अनुसार शकक्षत्रप राजा नहपान के दामाद उषवदात ने इस भृगुकच्छ शहर में यात्रियों के लिए एक धर्मशाला और वापी, कूप एवं तडाग इनका निर्माण किया था। इससे हमारी समझ में यह आ जाता है कि लोग व्यापार के साथ साथ इस शहर के आध्यात्मिक इतिहास के कारण भी यहाँ आते थे।

भरुच शहर के प्राचीन इतिहास का वर्णन पुराणों, जातककथाओं, बृहत्संहिता इनके साथ साथ पेरिप्लस तथा टॉलेमी का भूगोल इन्होंने भी किया है। पेरिप्लस में किये गये वर्णन के अनुसार इस शहर के चहूँ ओर चहारदीवारी थी और शहर में कईं इमारते थीं।

ह्युआन श्‍वांग के स़फ़रनामे में भी इस नगर का उल्लेख प्राप्त होता है। ह्युआन श्‍वांग जब इस नगर में आये थे, उस समय यह शहर समृद्धता की चरमसीमा पर था और इस शहर पर स्थानीय राजवंश की सत्ता थी; दरअसल वह उस स्थानीय राजवंश की राजधानी थी। ह्युआन श्‍वांग जब भारत आये थे, वह बौद्ध धर्म के उत्कर्ष का समय था। इसीलिए उन्हें भरुच शहर में भी बौद्ध विहारों की उपस्थिति दिखायी दी। जातककथाओं में भी इस नगर से धर्मप्रचार के लिए तथा व्यापार के लिए जानेवाले लोगों की कथाएँ आती हैं।

अणहिलवाड के राजपूतों का जब यहाँ पर शासन था, तब भी यह एक वैभवशाली नगर और व्यापारी केन्द्र था। ११वी सदी में यह नगर लाट देश की राजधानी था। इसवी १६ वी सदी तक यहाँ पर अहमदाबाद के सुलतान का शासन था।आगे चलकर अकबर ने इस शहर को जीत लिया, वह समय था इसवी १५७३ का। इस १६वी सदी में ही दो बार पुर्तगालियों ने इस शहर को लूटा और १७ वी सदी की शुरुआत में, इसवी १६१४ में फ़िर से एक बार इस शहर को लूट लिया। इसवी १६१६ में अंग्रे़ज यहाँ पर आये, लेकिन कैसे? तो उन्होंने यहाँ पर मालगोदाम स्थापित किया और अगले ही साल डचों ने उनका अनुकरण किया। किसी जमाने में शान्त होनेवाली इस वैभवसम्पन्न नगरी को लूटना शुरू हो चुका था और साथ ही इसपर अपना कब़्जा जमाने की कोशिशें भी विदेशियों द्वारा शुरू हो गयी। इसी दौरान इसवी १७३६ में निजामउल्मुक ने भरुच के अधिकारी को ‘नवाब’ का दर्जा दिया। आगे चलकर उसीका स्वतन्त्र शासन इस शहर पर स्थापित हो गया। अन्ततः इसवी १७७२ में यह शहर अंग्रे़जों के कब़्जे में चला गया। अठारहवी सदी के अन्त तक यहाँ से रुई और कपड़े का व्यापार चलता था, लेकिन आगे चलकर इस शहर का व्यापारी महत्त्व भी कम होने लगा।

दरअसल कच्छ यह नाम लेते ही पानी की कमी की समस्या हमें याद आती है, क्योंकि कच्छ में वास्तव में ही पानी की कमी है। इस भृगुकच्छ नाम में भले ही कच्छ का उल्लेख हो, मग़र फ़िर भी इस शहर के पास से बहनेवाली नर्मदामैया के कारण यहाँ पानी की कोई किल्लत महसूस नहीं होती। इसी कारण भरुच और आसपास के प्रदेशों में खेती और खेती से सम्बन्धित व्यवसाय बड़े पैमाने पर हैं। शुरुआत में जिसका जिक्र किया गया है, वह खारी सिंग, इसीका फ़ल है। भरुच के आसपास के प्रदेशों में तैयार होनेवाली मूँगफ़ली पर भरुच में प्रक्रिया की जाती है और उसीसे ‘भरुचनी प्रख्यात सिंग’ बनायी जाती है। दरअसल आजकल किसी एक स्थान की विशेषता होनेवाले खाद्यपदार्थ केवल भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया में कहीं भी आसानी से मिल सकते हैं। लेकिन फ़िर भी उस उस स्थान पर जाकर वहाँ के विशेष पदार्थ को चखना यह कुछ अलग ही बात होती है।

ख़ैर! आज भरुच यह गुजरात राज्य के एक का़फ़ी बड़े औद्योगिक क्षेत्र के रूप में मशहूर है। यहाँ पर कईं केमिकल प्लान्टस्, खाद, पेन्टस्, डाय तैयार करनेवाले प्लान्टस् हैं। साथ ही रुई, कपड़ा और दूध से बनाये जानेवाले पदार्थ इनसे सम्बन्धित प्लान्ट्स भी यहाँ हैं। ‘बांधणी’ यह भरुच का वस्त्रप्रकार भी विख्यात है।

भरुच शहर में नर्मदा के तट पर कईं मंदिर हैं। इनमें भृगुऋषि का मंदिर, साथ ही १५०-२०० साल पुराने लक्ष्मी-नारायण मंदिर, रणछोडराय मंदिर भी हैं। एक छोटेसे मन्दिर में तो १७ शिवलिंग हैं।

पर्शिया से भारत आये हुए और आज पारसी इस नाम से जाने जानेवालों का भी भरुच से पुराना रिश्ता है। भरुच में नदी के तट पर डुंगाजी की अग्यारी (पारसी प्रार्थना मंदिर) है। यहाँ की शापुरजी ब्रोचा की अग्यारी जो पहले दस्तुरकंथा नाम से जानी जाती थी, वहाँ ८०० साल पुराना अग्निमंदिर है।

इस शहर के चहूँ ओर होनेवाली जिस चहारदीवारी का वर्णन पेरिप्लस में आता है, वह आज लगभग ढह चुकी है। लेकिन कुछ स्थानों पर उसके अवशेष दिखायी देते हैं।

भरुच भले ही बहुत लम्बे समय के लिये किसी बड़े साम्राज्य की राजधानी न रहा हो, मग़र फ़िर भी कुछ समय के लिये ही सही, लेकिन यहाँ के शासक की स्वतन्त्र हुकूमत यहाँ पर रह चुकी है। इसवी १७९१ में नवाब के शासनकाल में यहाँ पर एक क़िला बनाया गया। इस क़िले का स्वरूप किसी हवेली जैसा है और इसीलिए नवाब के लल्लुभाई नामक दीवान के द्वारा निर्मित इस क़िले को ‘लल्लुभाई की हवेली’ कहा जाता है।

चालाक अंग्रे़जों ने इस शहर के व्यापारी महत्त्व को पहचानकर, व्यापार की सहूलियत के लिए भरुच और अंकलेश्वर इन दो शहरों को जोड़नेवाला एक पूल बनाया, जो ‘गोल्डन ब्रिज’ नाम से जाना जाता है। इस ब्रिज का निर्माण इसवी १८८१ में किया गया। इस ब्रिज के निर्माण में जिस प्रकार के लोहे का इस्तेमाल किया गया था, वह लोहा का़फ़ी कठिन, म़जबूत और जंग न लगनेवाला था। इसीलिए उस लोहे की क़ीमत मानो, सोने जितनी ही थी और इसीलिए इस ब्रिज को ‘गोल्डन ब्रिज’ कहा गया।

भारतीय संस्कृति में नदी को ‘मैया’ कहते हैं, जैसे कि गंगा मैया, जमुना मैया, वैसी ही यह नर्मदा मैया – इस भरुच शहर का पालन-पोषण और विकास करनेवाली, सदियों से उसका साथ देनेवाली उसकी मैया।

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