त्रिचूर भाग- १

नीले रंग की मखमली चादर पर जैसे हरे पन्ने की अँगूठी रख दी हो, ऐसी प्रतीत होती है दक्षिणी भारत की केरल की भूमि। नीले रंग के जल के साथ दूर दूर तक फ़ैले हुए हरे भरे पेड़पौधों की भूमि । त्रिचूर ! इस केरल का ही एक शहर !

आज इस शहर को हम ‘त्रिचूर’ इस नाम से जानते हैं । यह ‘त्रिचूर’ नाम अंग्रेजो ने उनके उच्चारण की सहूलियत के लिए दिया। दर असल यह शहर ‘त्रिस्सुर’ इस नाम से जाना जाता है, लेकिन इस का मूल नाम तो कुछ और ही है।

‘त्रिस्सुर’

‘त्रि-शिव पेरुर’ यह दर असल इस शहर का मूल नाम है, ऐसा कहा जाता है। ‘शिव’ इस शब्द से आपके मन में यह विचार आ ही चुका होगा कि शायद इस शहर का भगवान शिवजी के साथ कुछ संबंध अवश्य होगा। इस त्रिचूर अर्थात् त्रिस्सुर अर्थात् त्रि-शिव-पेरुर नामक इस शहर के बीचोंबीच स्थित एक छोटी पहाड़ी पर ‘वदक्कुंनाथन’ नाम का एक प्राचीन विख्यात शिवमंदिर है।

‘त्रि-शिव-पेरुर’ का अर्थ है, शिवजी का स्थान। इसका दूसरा अर्थ ऐसा भी बताया जाता है कि जहाँ भगवान शिवजी के तीन स्थान हैं। वदक्कुंनाथन नाम के मंदिर के अलावा ‘पुंकुन्नम’ और ‘कोट्टपुरम्’ ये दो शिवमंदिर भी यहाँ पर है। इसी कारण इस जगह का नाम ‘त्रि-शिव-पेरुर हो गया। संक्षेप में, भगवान शिवजी का वास्तव्य प्राचीन समय से यहाँ पर है।

पुराने समय में त्रिचूर शहर ‘वृषभद्रीपुरम्’ और ‘तेन कैलासम्’ (दक्षिणी कैलास) इन दो नामों से भी जाना जाता था।

केरल की ‘सांस्कृतिक राजधानी’ कहलाया जानेवाला यह शहर प्राचीन समय में विद्यानगरी के रूप में मशहूर था, ऐसे कहा जाता है। विशेष तौर पर प्राचीन समय में व्यवहार में भी उपयोग में लायी जानेवाली ‘संस्कृत’ भाषा को सीखने का यह एक प्रमुख स्थान था, ऐसा कहा जाता है।

इस प्राचीन वदक्कुंथान मंदिर में आद्य शंकराचार्यजी के माता-पिता ने संतान प्राप्ति के लिए उपासना की थी, ऐसा कहा जाता है। शिवगुरु यह आद्य शंकराचार्यजी के पिता का नाम था और विशिष्टा अथवा सती यह उनकी माता का नाम था। यह दंपती शिवभक्त थे। शादी के बाद का़फ़ी समय बीत जाने के बाद भी संतानप्राप्ति न होने के कारण इस दंपती ने इस मंदिर में शिवजी की उपासना की। परिणामस्वरूप भगवान शिव प्रसन्न हो गये और उन्होंने इस दंपती से उनकी इच्छा के बारे में पूछा। उनकी संतानप्राप्ति की इच्छा को सुनकर भगवान शिव ने उनके सामने दो विकल्प रखे। एक था-साधारण बुद्धिमत्ता की दीर्घायुषी संतान और दूसरा था- सर्वज्ञ संतान, लेकिन अल्प आयुवाली। उसपर आद्य शंकराचार्यजी के माता-पिता ने सर्वज्ञ संतान की प्राप्ति हो, ऐसी मनीषा ज़ाहिर की। उसके अनुसार फ़िर अद्वैत मत के पुरस्कर्ता आद्य शंकराचार्यजी का जन्म हुआ। तो ऐसा है यह त्रिचूर, वदक्कुंनाथन मंदिर और आद्य शंकराचार्यजी का परस्पर संबंध।

त्रिचूर की आबादी बसती गयी, वह इस वदक्कुंनाथन मंदिर को केंद्र में रखकर ही। इस मंदिर के बारे में ऐसी किंवदन्ति है कि इस मंदिर का निर्माण स्वयं परशुरामजी ने किया था और यहीं पर अन्तिम बार लोगों को उनके दर्शन हुए थे। इससे हम यह भी कह सकते हैं कि परशुरामजी के समय से यह स्थान अस्तित्व में है।

संपूर्ण त्रिचूर ज़िले का राजकीय इतिहास शुरू होता है, संगम काल के चेर राजवंश के अधिपत्य में। इन चेर राजाओं की राजधानी ‘वंची’ में थी। आज के त्रिचूर ज़िले का संपूर्ण प्रदेश उनके अधिपत्य में था। संगम काल के इन चेर राजाओं के शासनकाल में केरल का भारत के बाहरी देशों के साथ व्यापार होता रहता था और इस व्यापार में त्रिचूर और उसके आसपास के प्रदेशों की भूमिका अहम थी। इसलिए प्राचीन और मध्ययुगीन कालावधि में त्रिचूर की इस भूमि का विकास में का़फ़ी योगदान रहा है। व्यापार के साथ साथ बाहरी देशों के साथ होनेवाले सांस्कृतिक आदान-प्रदान में भी त्रिचूर की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही हैं।

यानि कि प्राचीन एवं मध्ययुगीन कालखंड में त्रिचूर ने तीन महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ निभायी हैं, ऐसा हम कह सकते हैं। एक तो शिक्षा के केन्द्र के रूप में, दूसरी व्यापार के सहायक स्थान के रूप में और साथ ही सांस्कृतिक आदान-प्रदान के स्थान के रूप में।

९ वीं सदी से लेकर १२ वीं सदी तक का त्रिचूर का इतिहास यानि कि कुलशेखर राजवंश का इतिहास। महोदयपुरम् के इन कुलशेखरों का ९ वीं सदी से लेकर १२ वीं सदी तक त्रिचूर पर शासन था।

१२ वीं सदी के बाद के त्रिचूर का इतिहास ‘कोचीन रियासत’ के साथ जुड़ा हुआ है।

कोचीन की रियासत को कई अलग अलग नामों से जाना जाता था। इनमें से एक मुख्य नाम था-‘पेरुंपदपु स्वरूपम्’। १२ वीं सदी के बाद का त्रिचूर का इतिहास इस ‘पेरुंपदपु स्वरूपम्’ के साथ साथ आगे बढ़ता रहता है।

कोचीन रियासत की राजधानी को अलग अलग कालावधियों में शासन करनेवाले राजाओं द्वारा एक जगह से दूसरी जगह ले जाया गया। इस प्रक्रिया में एक बार कोचीन रियासत की राजधानी बनने का सम्मान त्रिचूर को भी प्राप्त हो चुका था।

१४ वीं सदी में कालिकत (कॅलिकत) के झामोरिन ने त्रिचूर के बहुत बड़े प्रदेश पर अपनी हुकूमत स्थापित कर दी और यहीं से फ़िर त्रिचूर पर विदेशी आक्रमणों की शुरुआत हो गयी।

भारत को कब्जे में करने के लिए जिस तरह अंग्रेज यहाँ आये थे, उसी तरह डच एवं पुर्तगाली भी सत्ता की लाल़सा से यहाँ आये थे। समुद्री मार्ग से आ चुके इन तीनों शत्रुओं ने केरल की भूमि पर विभिन्न कालावधियों में एक के बाद एक करके कदम रखे और उसके बाद वे त्रिचूर के इतिहास में भी दाखिल हो गये।

१५ वीं सदी के अन्त में केरल में दाखिल हो चुके पुर्तगालियों ने कोचीन के राजा से सहायता लेकर झामोरिन के राज्यविस्तार को रोकने में सफ़लता हासिल की। फ़िर १६ वीं सदी में डच आये और उन्होंने पुर्तगालियों के वर्चस्व को नष्ट करने के लिए कोचीन राजवंश के एक पक्ष से सहायता ली।

१८ वीं सदी में फ़िर एक बार देशान्तर्गत प्रतिपक्ष ने त्रिचूर पर हमला किया। हैदर और टिपू सुलतान ने केरल पर आक्रमण किया। उस समय के कोचीन के राजा रामवर्मा ने उस हमले का मुँहतोड जवाब दिया और उसकी हुकूमतवाले प्रदेश की स्वतन्त्रता को अबाधित रखने में कामयाबी हासिल की।

इस राजा रामवर्मा का त्रिचूर के साथ घना रिश्ता है। यह राजा रामवर्मा ‘सक्थन थंपुरन’ इस नाम से भी परिचित थे। उनके पराक्रम के कारण उन्हें यह उपाधि प्राप्त हुई थी। सक्थन थंपुरन ने यानि कि राजा रामवर्मा ने त्रिचूर की पुनर्रचना की, ऐसा कहा जाता है।

प्राचीन समय से अस्तित्व में होनेवाले त्रिचूर की, समय की धारा में उपेक्षा की गई, इतनी कि वदक्कुंनाथन मंदिर के इर्दगिर्द का़फ़ी घने जंगल का निर्माण हो गया। सक्थन थंपुरन राजा ने इस जंगल को काटकर त्रिचूर की पुनर्रचना की और उसे उसका पूर्व वैभव पुन: प्रदान किया। उन्होंने पुन: एक बार त्रिचूर को ‘व्यापार का शहर’ यह उसकी पहचान दिला दी। इन्हीं सक्थन थंपुरन ने त्रिचूर में एक राजमहल का भी निर्माण किया और वे स्वयं वहाँ पर निवास करने लगे।

कोचीन के राजवंश का त्रिचूर पर जब शासन था, उसी दौरान केरल में अंग्रेज़ो ने कदम रखे और उसके बाद अंग्रेज़ो ने पूरे देश पर ही अपनी हुकूमत स्थापित कर दी। मग़र कोचीन रियासत को उन्होंने स्वायत्तता का दर्जा दिया था।
अंग्रज़ों के खिलाफ़ पूरे भारतवर्ष मे असंतोष की भावना भड़कने लगी और यह असंतोष विभिन्न मार्गों द्वारा प्रकट होने लगा। आजादी के इस आंदोलन में त्रिचूर ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

सविनय आज्ञाभंग के आंदोलन में तथा १९४२ के ‘भारत छोडो’ आंदोलन में त्रिचूरवासियों ने अपना पूरा योगदान दिया।

फ़िर कईं स्थित्यन्तरणों तथा सत्तान्तरणों के बाद अन्त में आज़ाद भारत में त्रिचूर का समावेश केरल राज्य में किया गया।

समय बदला, लेकिन इस बदलते समय में भी त्रिचूर की एक बात बिल्कुल भी नहीं बदली और वह है- ‘वदक्कुंनाथन मंदिर’। इस शहर का केन्द्रबिंदु आज भी ‘वदक्कुंनाथन मंदिर’ ही है। दर असल आज ‘वदक्कुंनाथन मंदिर’ पूरे भारत देश में वहाँ पर होनेवाले ‘पूरम’ नामक वार्षिकोत्सव के कारण सुविख्यात है।

समय की धारा में आज भी त्रिचूर ने अपनी व्यापारी शहर होने की परंपरा को क़ायम रखा है।

चेर राजाओं के समय में व्यापार के केन्द्र के रूप में उदयित हो चुका त्रिचूर, पुन: एक बार सक्थन थंपुरन राजा के कार्यकाल में व्यापार-उद्योग के क्षेत्र में विकसित होने लगा और आज तो त्रिचूर यह ‘भारत की स्वर्ण राजधानी’ के रूप में जाना जाता है। प्रतिवर्ष यहाँ पर लगभग ७०० करोड़ रुपयों के स्वर्ण का व्यापार होता है और केरल के लगभग ७०% गहने यहीं पर बनाये जाते हैं।

प्राचीन समय में एक पहाड़ी पर स्थित ‘वदक्कुंनाथन मंदिर’ के इर्दगिर्द जिस शहर का उदय हुआ था, उसके अन्तरंग में हम झाँकेंगे, अगले भाग में।

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