म्हैसूर भाग – ५

म्हैसूर का नाम लेते ही एक खुशबू का एहसास होने लगता है, इतना घना रिश्ता है म्हैसूर और चन्दन के बीच। हमारी संस्कृति में धार्मिक दृष्टिकोन से चन्दन को काफ़ी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। चन्दन के कईं औषधि उपयोग भी हैं। म्हैसूर के आसपास के इलाक़ों में बहुत बड़े पैमाने पर चन्दन की बोआई की जाती है और इसी चन्दन से तेल, साबुन, दवाइयाँ, मूर्तियाँ और इत्र बनाये जाते हैं। साथ ही चन्दन की लकड़ी पर नक़्क़ाशी करके उससे कईं प्रकार की वस्तुओं का निर्माण किया जाता है।

vrindawan-garden- म्हैसूरचन्दन के साथ साथ म्हैसूर का नाम एक और ची़ज के साथ जुड़ा हुआ है और वह है, महिलाओं की पसन्दीदा सिल्क की साड़ी। सिल्क के लिए भी म्हैसूर काफ़ी मशहूर है। इसवी १९१२ से म्हैसूर में सिल्की वस्त्रों का निर्माणकार्य शुरू हुआ और बहुत बड़े पैमाने पर तथा एकत्रित रूप में सिल्की वस्त्रों का निर्माण इसवी १९३२ से किया जाने लगा। सिल्की वस्त्रों का निर्माण करनेवाली फॅक्टरी के मशीनों को स्वित्झर्लंड से आयात किया गया था।

म्हैसूर और खुशबू के बीच का रिश्ता तो काफ़ी घना है, ऐसा प्रतीत होता है। दो प्रकार की खुशबूओं के लिए म्हैसूर काफ़ी मशहूर है। एक तो ‘अगरबत्ती’ की, ‘धूप’ की खुशबू के लिए और दूसरी ‘मल्लिका’ यानि कि म्हैसूर की ख़ास चमेलीके फूलों की खुशबू के लिए।

‘रोझवुड’ नाम की लकड़ी पर किया गया नक़्क़ाशीकाम यह म्हैसूर की एक और ख़ासियत है। गतलेख में हमनें म्हैसूर चित्रशैली के बारे में जानकारी प्राप्त की। साथ ही ‘गंजिफा’ नामक यहाँ की एक और चित्रशैली विख्यात है। गंजिफा यह ताश का एक खेल भी है और यहाँ ताश के पत्तों पर (कागज़ पर) विभिन्न प्रकार के अत्यन्त सुन्दर चित्र बनाये जाते हैं।

उद्योग क्षेत्र में भी म्हैसूर अग्रसर है और साथ ही माता सरस्वती की उपासना भी यहाँ पर प्राचीन समय से की जा रही है।
अग्रहारों के समय से यहाँ पर वैदिक शिक्षा पद्धति अस्तित्व में थी, ऐसा कहा जाता है। इसवी १८३३ में अंग्रे़जी मिडियम के स्कूल की स्थापना करके यहाँ पर आधुनिक शिक्षा की नींव रखी गयी। स्कूली शिक्षा की शुरुआत तो हो गयी, मग़र उच्च शिक्षा के लिए इसवी १८६४ में पहला कॉलेज स्थापित किया गया, उसका नाम था ‘महाराजाज् कॉलेज’। इसवी १८६८ में म्हैसूर रियासत के राजा ने अपनी प्रजा को शिक्षित बनाने के उद्देश्य से शहर के छोटे छोटे विभागों में एक-एक स्कूल की स्थापना कर बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध किया और प्रमुख बात यह थी कि यह शिक्षा पूरी तरह निःशुल्क (फ्री) प्रदान की जाती थी।

इसवी १८८१ में केवल छात्राओं के लिए माध्यमिक शिक्षा प्रदान करनेवाले स्कूल की शुरुआत हुई और यही स्कूल आगे चलकर ‘महाराणीज् विमेन कॉलेज’ बन गया।
यह हुई स्कूली शिक्षा और कॉलेज की शिक्षा की बात, लेकिन समय की माँग को ध्यान में रखकर तकनीकी शिक्षा प्रदान करनेवाली पहली संस्था की इसवी १८९२ में शुरुआत की गयी। लेकिन आधुनिक शिक्षा प्रदान करनेवाली इन संस्थाओं के साथ साथ इसवी १८७६ में स्थापित किये गये ‘म्हैसूर संस्कृत कॉलेज’ ने प्राचीन समय की वैदिक शिक्षा पद्धति को भी जीवित रखा था।

वहीं इसी म्हैसूर में विश्‍वविद्यालय (युनिव्हर्सिटी) की स्थापना होने के लिए इसवी १९१६ तक प्रतीक्षा करनी पड़ी और इसके बाद ही यहाँ पर वैद्यकीय पाठ्यक्रम की शुरुआत हुई। इसवी १९३० में म्हैसूर में वैद्यकीय शिक्षा प्रदान करना शुरू हुआ।

शिक्षासंस्थाओं के साथ साथ ही म्हैसूर में कुछ अनुसन्धानसंस्थाएँ भी हैं। मनुष्य की मूलभूत जरूरतों में से एक है – अन्न। इस अन्न अर्थात् खानपान की ची़जों पर अनुसन्धान करनेवाली एक प्रयोगशाला इसवी १९५० में म्हैसूर में स्थापित की गयी। ‘सेंट्रल फूड टेकनॉलॉजिकल रिसर्च इन्स्टिट्यूट’ यह है वह संस्था। अन्न से सम्बन्धित अनुसन्धान और विभिन्न प्रयोग इनके द्वारा हमारे खेतीप्रधान देश के किसानों और जनता को इस अन्न का अधिक से अधिक फ़ायदा हो, इस दृष्टि से यह संस्था कार्य करती है।

मनुष्य को जब लेखनकला अवगत हो गयी, तब उसने पेड़ की छाल, पत्तों – जिन्हें ‘भूर्जपत्र’ और ‘तालपत्र’ कहा जाता है, उनपर कईं बातों को शब्दबद्ध करना शुरू किया। इस प्रकार के भूर्जपत्र और तालपत्र मानो पुराने जमाने का आईना ही है। प्राचीन काल के इस लेखनसंग्रह को जतन करने का काम म्हैसूर की ‘ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट’ करती है। यह पहले ‘ओरियन्टल लायब्ररी’ के नाम से जानी जाती थी। इसकी स्थापना इसवी १८९१  में म्हैसूर के महाराजा के आदेश से की गयी। इसवी १९४३ में ओरियन्टल लायब्ररी का रूपान्तरण ‘ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टिट्यूट’ में हुआ।

यहाँ संस्कृत एवं कन्नड भाषा के हस्तलिखितों का संग्रह है। यहाँ तालपत्र पर लिखे गये ३३०००  हस्तलिखित हैं, साथ ही कईं दुर्लभ, अप्राप्य साहित्य का संग्रह भी है।
इन हस्तलिखितों पर अनुसंधान करना और भविष्य के लिए उनका जतन करना, ये इस इन्स्टिट्यूट के प्रमुख कार्य हैं।

हस्तलिखितों के स्वरूप में प्रचलित लेखनकला ने कुछ समय बाद मुद्रणकला का रूप धारण किया और काग़ज पर स्याही से शब्द लिखे जाने लगे। मुद्रणकला के इस आविष्कार के बाद समाचारपत्र छापे जाने लगे और इनके कारण मनुष्य की ज्ञानसीमाओं का विस्तार हुआ।

म्हैसूर में इसवी १८५९ में पहला कन्नड समाचारपत्र शुरू हुआ। इसका नाम था‘म्हैसूर वृत्तान्त बोधिनी’। इसके सम्पादक थे,‘भाष्यम् भाष्याचार्य’। यह अख़बार हफ़्ते में एक बार प्रकाशित होता था। इसवी १८६५ में ‘कर्नाटक प्रकाशिका’ नामक एक और अख़बार प्रकाशित होने लगा। यह भी हफ़्ते में एक बार ही प्रकाशित होता था। उसके पश्चात् इसवी १८६६ में ‘मैसोर गॅझेट’ प्रकाशित होने लगा और इसवी १८८७ में ‘वृतांत पत्रिके’ नामक अख़बार प्रकाशित होने लगा।

उस समय के इन अख़बारों ने लोगों तक ख़बरें पहुचाने का काम तो किया ही, लेकिन साथ ही उस समय में समाज में प्रचलित ग़लत प्रथाएँ, रूढ़ी, अन्धश्रद्धा इनपर वार कर समाज को उचित मार्ग दिखलाने का काम किया।

म्हैसूर की एक और विशेषता है कि यहाँ से हररो़ज संस्कृत में एक अख़बार प्रकाशित होता है। १४ जुलाई १९७०  को ‘सुधर्मा’ नामक इस संस्कृत अख़बार का पहला संस्करण प्रसिद्ध हुआ।

आज के आधुनिक युग के साथ संस्कृत जैसी मधुर भाषा की नाल को जोड़ने का काम यह अख़बार कर रहा है।
अख़बारों के पीछे-पीछे जब ‘आकाशवाणी’ ने बोलना शुरू किया, तब विश्‍व अब और भी क़रीब आ गया। म्हैसूर में पहला रेडियो स्टेशन इसवी १९३५  में शुरू हुआ। आगे चलकर इसीका नाम ‘आकाशवाणी’ रखा गया। इस प्रकार ‘आकाशवाणी’ की शुरुआत म्हैसूर शहर में हुई।

म्हैसूर शहर के इन विभिन्न विशेषताओं के साथ ही इस शहर को साहित्य, संगीत, नृत्य, नाटक आदि कलाओं की विरासत भी मिली है।
म्हैसूर रियासत के वोडेयार राजा कलाप्रेमी, कला के और कलाकारों के आश्रयदाता थे और उनमें से कुछ राजा स्वयं कलाकार भी  थे।

इन राजाओं के कालखण्ड में कर्नाटकी शास्त्रीय संगीत का विकास कुछ इस प्रकार हुआ कि उस कालखण्ड को कर्नाटकी संगीत का सुवर्णकाल माना जाता है। संगीत के साथ साथ शास्त्रीय नृत्य तथा यक्षगान जैसे लोकनृत्य भी यहाँ उत्तम रूप से विकसित हो गये।

इन राजाओं के पश्चात् भी संगीत और नृत्य का विकास उत्तम रूप से जारी ही है और इस मामले में साहित्य तथा रंगभूमी ये प्रान्त भी पीछे नहीं हैं।

एक बात का जिक्र किये बिना म्हैसूर का वर्णन तो अधूरा ही होगा। गत कुछ दशकों में म्हैसूर के एक उद्यान ने बच्चों से लेकर वृद्धों तक सभी को मोहित किया था और वह है, म्हैसूर का ‘वृन्दावन गार्डन’।

कावेरी नदी पर निर्माण किये गये ‘कृष्णराज सागर’ नामक बाँध के आसपास यह गार्डन बसा हुआ है। म्हैसूर के दीवान ने इसे बनवाया था। इस गार्डन की विशेषता है, वहाँ के अनगिनत फव्वारें, जो सूर्यास्त के बाद दियों की रोशनी में और संगीत के ताल पर मानो झूम उठते हैं।

आधुनिक म्हैसूर की पहचान कुछ ऐसी है कि यह आज कर्नाटक राज्य के दूसरे नंबर के ‘सॉफ्टवेअर एक्स्पोर्ट’ करनेवाले शहर के रूप में जाना जाता है।
कर्नाटक की सांस्कृतिक राजधानी कहलानेवाला यह शहर आज के विज्ञानयुग में अपनी सांस्कृतिक धरोहर को क़ायम रखते हुए आधुनिक तन्त्रज्ञान से हाथ में हाथ मिलाकर प्रगतिपथ पर बढ़ रहा है।

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