कुचबिहार

‘कुचबिहार’ इस शहर का नाम का़फी कम लोग जानते होंगे। स्कूल में शायद इतिहास या भूगोल में आपने यह नाम पढ़ा होगा। लेकिन इस शहर के बारे में का़फी दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होने लगी। ‘नाम में क्या रखा है?’  ऐसा कहा जाता है, इसके अनुसार अगर देखा जाये तो दरअसल किसी भी शहर के नाम से वह शहर कैसा होगा, इस बात का अँदाजा हम नहीं लगा सकते और ‘कुचबिहार’ इस नाम से तो बिल्कुल ही नहीं।

पश्चिम बंगाल राज्यआजकल पुराने जमाने में बनायी गयीं कई इमारतों का ‘हेरिटेज बिल्डींग्ज’ के रूप में जतन किया जा रहा है और इस कुचबिहार शहर में तो ऐसी कई ‘हेरिटेज बिल्डींग्ज’ आसानी से दिखायी देती हैं। लेकिन, जरा रुकिये, इस शहर के बारे में हम पूरी जानकारी लेते हैं।

कुचबिहार, यह पश्चिम बंगाल राज्य का एक महत्त्वपूर्ण शहर है। आजकल इस शहर को पर्यटन की दृष्टि से भी महत्त्व प्राप्त हो चुका है और यह शहर कभी एक वैभवशाली शहर था।

तोर्सा नामक नदी के पास और पूर्व हिमालय की तलहटी के पास ही यह शहर बसा हुआ है। हिमालय की तलहटी के पास होने के कारण यहाँ की आबोहवा लगभग सालभर खुशनुमा होती है, लेकिन यहाँ पर का़फी बारिश होती है। इस आबोहवा में और भौगोलिक परिस्थिति में किसी जमाने में ‘कोच राजवंश’ के लोग बसने लगे और वहीं से आगे चलकर कोच लोग जहाँ बसे हुए थे, वह प्रदेश ‘कुचबिहार’ के नाम से जाना जाने लगा।

दरअसल इस शहर को कुचबिहार इस नाम से कैसे जाना जाने लगा, इस बारे में कई मत हैं, लेकिन उनमें से सर्वाधिक ग्राह्य और तर्कसंगत ऐस मत यह है कि कोच राजवंश ने जहाँ विहार किया, वह शहर है ‘कुचबिहार’। यह शहर ‘कोचबिहार’ इस नाम से भी जाना जाता था। अंग्रे़जों के जमाने में उन्होंने कुचबिहार इस नाम की कईं स्पेलिंग्ज बनाकर उसके अनुसार उन नामों का उच्चारण किया था। लेकिन आज यह शहर ‘कुचबिहार’ इसी नाम से जाना जाता है।

४थी सदी से १२वी सदी तक यह कुचबिहार ‘कामरूप राज’ का हिस्सा था। ‘कामरूप प्रदेश’ यानि कि आज का असम राज्य। १२वी सदी में ही किसी समय कामरूप राजाओं का कुचबिहार पर होनेवाला शासन समाप्त हुआ और कुचबिहार यह ‘कामता’ राज्य का हिस्सा बन गया। इस कामता राज के राजा ‘खेन’ नाम से जाने जाते थे और उनकी राजधानी ‘कामतापुर’ यह थी। १५वी सदी के अन्त तक खेन राजाओं का अस्तित्व था लेकिन उसके बाद परकीय आक्रमणों के कारण उनका अस्तित्व नष्ट हो गया। इसी दरमियान १६वी सदी के आरम्भ में ‘कोच राजाओं’ या ‘कोच राजवंश’ का उदय हुआ। ये राजा स्वयं को ‘कामतेश्वर’ की उपाधि से सम्बोधित करते थे। क्योंकि वे ऊपर उल्लेखित ‘कामता’ राज के नये राजा थे।

इस कोच राजवंश की स्थापना ‘विश्‍वसिंह’ नामक एक पराक्रमी राजा ने की। उन्होंने लगभग इसवी १५३३ तक शासन किया। उनके पश्चात् उनके पुत्र ‘नर नारायण’ ने गद्दी सँभाली। इनके समय कामता राज की अत्यधिक प्रगति हुई। ‘शुक्लध्वज’ नामक इनके भाई ने इन्हें राज्यविस्तार करने में मदद की। ये शुक्लध्वज अत्यधिक पराक्रमी एवं साहसी थे। उनके पराक्रम एवं साहस के कारण वे ‘चीलराज’ नाम से विख्यात थे। इस चीलराज के पुत्र रघुदेव को नर नारायण राजा ने अपने राज का कुछ हिस्सा दे दिया और यहीं से आगे चलकर कामता राज के दो हिस्से हुए। इनमें से एक हिस्सा ‘कोच हाजो’ इस नाम से, तो दूसरा ‘कुचबिहार’ नाम से जाना जाने लगा।

कुचबिहार को जब कोच राजाओं की राजधानी का दर्जा प्राप्त हो गया, उसके बाद लंबे अरसे तक यह कोच राजाओं की राजधानी के रूप में रहा। क्योंकि महत्त्वपूर्ण बात यह है कि विदेशी आक्रमणों और राज का ऊपर उल्लेखित दो हिस्सों में हुआ स्थायी विभाजन इनके कारण कोच राजाओं के हाथ में अब केवल कुचबिहार का प्रदेश ही बचा था।

१६वी और १७वी सदी में कुचबिहार पर शासन करनेवाले या कोच राजवंश के राजाओं ने राजविस्तार के कई प्रयास किये, लेकिन उसी समय कुचबिहार पर कई विदेशी आक्रमण भी हुए।

१७वी सदी के मध्य में हरिजुमला नामक बंगाल के सुभेदार ने कुचबिहार को जीत लिया और उसका नाम भी बदल दिया। लेकिन प्राण नारायण नामक राजा ने अल्प काल में उसे पुनः जीत लिया। १८वी सदी के अन्त में भूतान ने कुचबिहार पर हमला किया, लेकिन इस बार कुचबिहार को पुनः जीतने के लिए यहाँ के राजाओं ने अंग्रे़जों की मदद ली और यहीं से कुचबिहार में अपना डेरा जमाना अंग्रे़जों के लिए का़फी आसान हो गया। कुचबिहार के राजा अंग्रे़जों के मांडलिक बन गये और अंग्रे़जों ने कुचबिहार पर अपना कब़्जा जमा लिया।

यह पश्चिम बंगाल का एकमात्र सुनियोजित शहर है। इस शहर को आधुनिक रूप देने का श्रेय ‘नृपेंद्र नारायण’ नामक महाराजा का है। ये नृपेंद्र नारायण अंग्रे़जों की हु़कूमत के समय कुचबिहार के राजा थे।

भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त होने के पश्चात् कईं रियासतें स्वतन्त्र भारत में शामिल की जाने लगीं। इसी प्रक्रिया के दरमियान इसवी १९४९ में ‘कुचबिहार’ को स्वतन्त्र भारत में समाविष्ट किया गया और अगले वर्ष यानि कि इसवी १९५० में कुचबिहार को पश्चिम बंगाल राज्य में समाविष्ट किया गया।

लेख के आरंभ में ही कहा था कि कुचबिहार वहाँ की हेरिटेज बिल्डींग्ज के लिए विशेष रूप से जाना जाता है, लेकिन अब तक तो हम कुचबिहार का इतिहास ही देख रहे हैं। तो चलिए अब एक ऩजर डालते हैं, कुचबिहार शहर पर।

इस शहर में होनेवालीं हेरिटेज बिल्डींग्ज का कारण इसके इतिहास में ही छिपा हुआ है। अंग्रे़जों का राज और उनकी रियासत होनेवाला यह शहर। यहाँ अंग्रे़जों के जमाने में कई वास्तुओं का निर्माण हुआ। ये वास्तुएँ हैं, ब्रिटीश शैली में बनायी गयीं, सुन्दर, आलिशान और प्रशस्त। इसीलिए आज उनका अन्तर्भाव ‘हेरिटेज’ में किया जाता है। हेरिटेज बिल्डींग भला होती कैसी है, अगर यह सवाल आपके मन में उठा है, तो छत्रपति शिवाजी टर्मिनस यानि कि जिसे पहले व्हि.टी. स्टेशन कहा जाता था, उसे याद कीजिए। कुचबिहार में अंग्रे़जों के जमाने की कईं वास्तुएँ हैं, जो आज भी सुस्थिति में हैं। इनका इस्तेमाल ऑफिस, घर या किसी सरकारी कामकाज के लिए किया जाता है।

इस वास्तु को चाहे इस शहर का वैभव कहें या भूषण कहें, एक बहुत ही विशाल हेरिटेज वास्तु, जो किसी के भी ऩजर से छिप नहीं सकती, वह है ‘कुचबिहार का राजमहल।’

बहुत ही विस्तृत भूभाग पर फैले हुए इस राजमहल को देखने के लिए हमें १८० अंश के कोन में अपना सिर घुमाना पड़ता है।

यह राजमहल ‘व्हिक्टर ज्युबिली पॅलेस’ इस नाम से भा जाना जाता है। इसकी रचना लंदन के बंकिंगहॅम पॅलेस के आधार पर की गयी है। इसका निर्माण इसवी १८८७ में महाराजा नृपेंद्र नारायण के कार्यकाल में हुआ। १२० मीटर्स की लंबाई और ९० मीटर्स की चौड़ाई इतना इसका विस्तार है। यह दो-मंजिला राजमहल ५००० स्क्वेअर मीटर्स के भूभाग पर फैला हुआ है। इस राजमहल में मौजूद हॉल्स को यदि गिनें, तो उनकी संख्या ही ५० तक पहुँच जाती है। उससे आप राजमहल की भव्यता का अँदाजा लगा सकते हैं। ब्रिटीश शैली की सुन्दर रचना, ऊँचे छतवालीं रूम्स, बरामदें और विस्तीर्ण दालान, संगेमरमर की जमीन होनेवाला दरबार हॉल और उस जमाने की कईं पेंटिंग्ज; ऐसी इस राजमहल की रचना है।

कुचबिहार की सुन्दरता बढ़ानेवाली यह वास्तु आज भी सुस्थिति में है और लोग इसे देख सकते हैं। इस राजमहल को स्थानिक भाषा में ‘राजबारी’ इस नाम से जाना जाता है।

यह रियासत जब वैभव के शिखर पर थी, तब यहाँ के शासक, जिनका उपनाम (सरनेम) नारायण था, उन्होंने स्वयं के चालान (करन्सी) का निर्माण किया था। धातु अर्थात् चांदी के ये सिक्कें उस जमाने में चालान के रूप में उपयोग में लाये जाते थे और इन सिक्कों को इन राजाओं के ‘नारायण’ इस उपनाम के कारण ‘नारायणी’ यह संज्ञा प्राप्त थी। आज भी इनमें से कुछ सिक्कों को हम यहाँ के संग्रहालय में देख सकते हैं। इससे कुचबिहार के वैभव और संपन्नता का अँदा़जा आ जाता है। यह नारायणी चलन लगभग 18वी सदी के उत्तरार्ध तक उपयोग में लाया जा रहा था। लेकिन बाद में अंग्रे़जों ने उसका इस्तेमाल करने पर रोक लगायी।

‘सागरदिघी’ नाम का विस्तीर्ण जलाशय इस शहर के बीचोंबीच स्थित है। इस सागरदिघी में स्थलान्तर करके भारत में आनेवाले कईं पक्षियों को देखा जा सकता है। शायद इस शहर का बेहतरीन मौसम ही इसकी वजह है।

महाराजा नृपेन्द्र नारायण ने इसवी १८८९ में राजवंश के आराध्यदेवता श्रीकृष्ण का एक बहुत ही सुन्दर मन्दिर यहाँ पर बनाया। यह शुभ्रधवल मन्दिर ‘मदनमोहन बारी’ इस नाम से जाना जाता है। यहाँ के मन्दिरों में विभिन्न प्रकार के मेलों का आयोजन किया जाता है। उनमें से रास मेले को विशेषतापूर्ण माना जाता है।

कुचबिहार शहर में जिस तरह मनुष्यनिर्मित भव्य वास्तुएँ हैं, उसी तरह कुचबिहार के आसपास के इला़के को कुदरत का वरदान प्राप्त है। लेकिन आधुनिक युग का शाप आज वहाँ की प्राकृतिक सम्पदा को भी भुगतना पड़ रहा है। लगभग सभी शहरों को इसी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति का सामना करना पड़ रहा है। इस समस्या का समाधान मानव के पास अवश्य है, मानवनिर्मित तथा निसर्गनिर्मित दोनों प्रकार की सुन्दरता को बरक़रार रखने का।

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