मथुरा भाग-५

मथुरा, इतिहास, अतुलनिय भारत, कुसुम सरोवर, उत्तर प्रदेश, भारत, भाग-५

धुआँधार बारिश हो रही थी। मानों जैसे उसने न रुकने का प्रण ही कर लिया हो! एक-दो नहीं, बल्कि कुल सात दिन तक वहाँ लगातार बारिश हो रही थी। मग़र फिर भी गोकुलवासी, उनकी गौएँ तथा अन्य सभी मवेशी आदि सुरक्षित थे। क्योंकि वे श्रीकृष्ण की छत्रछाया में थे और उनके सिर पर छत्र था गोवर्धन पर्वत का, जिसे श्रीकृष्ण ने अपनी उँगली पर उठा लिया था।

उससे पहले गोकुलवासी प्रतिवर्ष इंद्र की पूजा करते थे और उसके लिए वे ‘इंद्रमह’ नाम का उत्सव भी मनाते थे। लेकिन श्रीकृष्ण ने उनसे गोवर्धन की पूजा करने के लिए कहा, जिससे क्रोधित हुए इंद्र ने गोकुल पर मूसलाधार बरसात की। तब श्रीकृष्ण ने उस गोवर्धन को ही अपने हाथ की उँगली पर उठाकर गोकुल की रक्षा की।

गत लेख में आपको हम जहाँ जा रहे हैं, उसके बारे में एक हिंट दी थी। आपने सही पहचाना होगा। चलिए, तो फिर चलते हैं, गोवर्धन के दर्शन करने।

‘गोवर्धन’ यह ब्रजमंडल का एक महत्त्वपूर्ण पर्वत है। मथुरा से लगभग २५-३० कि.मी. की दूरी पर यह स्थान है। गोवर्धन को ‘गिरिराज’ और ‘अन्नकूट‘ इन नामों से भी संबोधित किया जाता है।

‘अपनी हरी घास से गौओं का भरण-पोषण तथा संवर्धन करनेवाला’ इस तरह ‘गो-वर्धन’ इस शब्द की व्याख्या की जाती है।

गोवर्धन की उत्पत्ति के बारे में कई कथाएँ प्रचलित हैं। उनमें से एक कथा इस तरह है- सत्ययुग में पुलस्त्य ऋषि द्रोणाचल के पास गये और द्रोणाचल के पुत्र रहनेवाले गोवर्धन को उससे माँगकर वहाँ से निकले। अपने पुत्र के वियोग से द्रोणाचल व्यथित तो हुआ, लेकिन उसने एक शर्त पर पुलस्त्य को गोवर्धन को ले जाने की अनुमति दे दी। गोवर्धन को जिस जगह वे सर्वप्रथम रख देंगे, वहीं पर वह स्थिर रहेगा। बीच रास्ते में इस ब्रजभूमि से गुज़रते हुए पुलस्त्य को मूत्रविसर्जन का वेग आ गया और उन्होंने वहीं पर गोवर्धन को रख दिया। वेगविसर्जन कर लौटने के बाद उनके कोशिश करने के बावजूद भी गोवर्धन वहाँ से हिल नहीं रहा था। इस तरह गोवर्धन हमेशा के लिए वहीं पर स्थिर हो गया।

इस संदर्भ में एक अन्य कथा भी कही जाती है – वानरसेना जब लंका जाने के लिए सेतु का निर्माण कर रही थी, तब उस काम के लिए विभिन्न प्रकार के पत्थर लाये जा रहे थे। हमारे महावीर हनुमानजी तो ठेंठ हिमालय तक गये और वहाँ से इस गोवर्धन को उठाकर दक्षिण दिशा में निकल पड़े। लेकिन रास्ते में ही उन्हें यह ज्ञात हुआ कि सेतु बनाने का कार्य तो पूरा हो चुका है और इसीलिए वे जहाँ थे, वहीं पर उन्होंने गोवर्धन को रख दिया। इस तरह गोवर्धन ब्रजमंडल में स्थिर हो गया।

आज अस्तित्व में रहनेवाले गोवर्धन की ऊँ चाई ८० फीट और लंबाई ४-५ मील है, ऐसा कहा जाता है। यह भी माना जाता है कि पुलस्त्य ऋषि जब इसे यहाँ ले आये थे, तब इसकी ऊँ चाई १६ मील थी; लेकिन उनके शाप के कारण वह धीरे धीरे घटती जा रही है। एक किंवदन्ति ऐसी भी है कि जिस दिन गोवर्धन का अस्तित्व नहीं रहेगा, तब सर्वत्र कलि का साम्राज्य स्थापित हो जायेगा। वहीं दूसरी आख्यायिका ऐसी है कि जैसे जैसे यमुना का जलस्तर घटता जायेगा, वैसे वैसे गोवर्धन की ऊँ चाई भी घटती जायेगी।

संक्षेप में, विभिन्न कथाओं, आख्यायिकाओं, प्रचलित किंवदन्तियों के माध्यम से गोवर्धन जनमानस की स्मृति में स्थिर हो चुका है और शायद इसीलिए किसी ग्रंथ में उसे ‘अधिनायक’ कहा गया है।

मथुरा, इतिहास, अतुलनिय भारत, कुसुम सरोवर, उत्तर प्रदेश, भारत, भाग-५आज इस गोवर्धन पर कुछ मंदिर तथा कुंड इनके साथ साथ एक छोटा सा गाँव भी बसा हुआ है। इस गोवर्धन पर ‘मानसीगंगा’ और ‘कुसुम सरोवर’ ये दो महत्त्वपूर्ण स्थान हैं।

‘मानसीगंगा’ यह एक बड़े कुंड का नाम है। इस कुंड का निर्माण भगवान की इच्छा से हुआ है, ऐसा माना जाता है। इस मानसीगंगा को आमेर के राजा ने १७वीं सदी में दीवारें बनवाकर सुव्यस्थित रूप प्रदान किया। दीपावलि में यहाँ पर दीपदान करने की परिपाटी है।

मथुरा, इतिहास, अतुलनिय भारत, कुसुम सरोवर, उत्तर प्रदेश, भारत, भाग-५गोवर्धन का एक अन्य महत्त्वपूर्ण स्थल है ‘कुसुम सरोवर’, जो स्थापत्य कला का एक बेहतरीन नमूना माना जाता है। दर असल कुसुम सरोवर यह कुछ व्यक्तियों की याद में झील के इर्दगिर्द बनायी गयीं छत्रियाँ हैं। ‘कुसुम सरोवर’ नामक इस झील को राजा ‘ओरछा’ ने सुव्यवस्थित रूप प्रदान किया। उसके बाद सूरजमल नाम के राजा ने उसकी रानी के लिए यहाँ सुन्दर बगीचों का निर्माण करके इसकी शोभा को बढ़ाया। बाद में, जवाहरसिंह ने अपने पिता की याद में उनके एक स्मारक का यहाँ निर्माण किया। यह सारा इलाक़ा उस समय की स्थापत्य कला का आदर्श नमूना माना जाता है। यहाँ राजाओं के स्मारक के साथ साथ उनकी रानियों तथा अन्य परिजनों के भी स्मारक हैं।

तो ऐसा यह गोवर्धन श्रीकृष्ण के समय से लेकर आज तक अडिग रूप से खड़ा है।

जिस तरह ‘ब्रजमंडल की परिक्रमा’ करने की परिपाटी है, उसी तरह ‘गोवर्धन की परिक्रमा’ भी की जाती है। गोवर्धन की इस परिक्रमा में कई स्थान आते हैं। इनमें ऋणमोचन, पापमोचन इन कुंडों का भी समावेश है। इनके नाम से ही इनके महत्त्व को हम जान सकते हैं। प्राचीन समय में इन कुंडों में स्नान करना यह बहुत ही पुण्यप्रद माना जाता था। अब बदलते समय के साथ साथ और भौगोलिक परिवर्तनों के कारण कई कुंडों का केवल नाममात्र अस्तित्व ही रहा है। गोवर्धन की यह परिक्रमा कार्तिक महीने में की जाती है। १२ मील की इस परिक्रमा को ‘दंडवती परिक्रमा’ कहा जाता है।

गोवर्धन में प्रतिवर्ष दो बड़े उत्सव आयोजित किये जाते हैं। स्वाभाविक रूप से उनमें से पहला है, ‘गोवर्धन पूजा’ का उत्सव, जिसकी शुरुआत श्रीकृष्ण ने उनके समय में की थी। यहाँ का दूसरा महत्त्वपूर्ण उत्सव है, ‘अन्नकूट’। दर असल अन्नकूट यह गोवर्धन का ही एक पर्यायवाचक नाम भी है।

‘अन्नकूट’ इस शब्द का एक भाग अन्न यह है। ‘अन्न’ इस शब्द के बारे में कुछ अलग से कहने की ज़रूरत ही नहीं है। हम जो कुछ खाते या पीते हैं, उसे ‘अन्न’ ही कहा जाता है। अन्नकूट यह गोवर्धन में मनाया जानेवाला उत्सव भी अन्न से ही संबंधित है। इस उत्सव में विभिन्न खाद्यपदार्थ तथा पकवान बनाकर श्रीकृष्ण को नैवैद्य के रूप में अर्पण किये जाते हैं और इसे ही ‘अन्नकूट’ कहते हैं।

अन्नकूट और गोवर्धन पूजा ये दोनों उत्सव कार्तिक महीने में मनाये जाते हैं। श्रीकृष्ण ने गोवर्धन को छोटी उँगली पर उठा लिया था, इस कथा की पार्श्‍वभूमि इस अन्नकूट के उत्सव को है, ऐसा कहा जाता है।

केवल गोवर्धन में ही नहीं, बल्कि ब्रजमंडल में अन्यत्र भी इस उत्सव को मनाया जाता है। साथ ही काशी और राजस्थान में भी ‘अन्नकूट’ उत्सव को मनाने की परिपाटी है।

ब्रज में इस अवसर पर विभिन्न प्रकार की मिठाइयाँ, मिष्टान्न इनका भोग चढ़ाया जाता है और भगवान के सामने उनके ढेर लगाये जाते हैं; वहीं काशी और राजस्थान में मिठाइयों के बदले भात का उपयोग किया जाता है।

अब ब्रज के उत्सवों की बात चली ही है, तो उनपर अब एक नज़र डालते हैं।

दर असल श्रीकृष्ण से संबंधित प्रत्येक आनंददायक एवं महत्त्वपूर्ण घटना ब्रज में उत्सव का रूप धारण कर लेती है। इसीलिए जन्माष्टमी, होली इन जैसे उत्सवों के रंग में सारी ब्रजभूमि भीग जाती है। वहीं, ब्रज के कुछ विशिष्ट स्थानों पर कुछ विशेष उत्सव भी मनाये जाते हैं। जैसे गोवर्धन में अन्नकूट और गोवर्धनपूजा का उत्सव, वहीं विश्राम घाट में यमद्वितीया।

हमारे भारतवर्ष में हर उत्सव मानों एक पर्व ही रहता है। प्रत्येक प्रांत की विशिष्ट उत्सव मनाने की विशिष्ट पध्दति रहती है। मग़र फिर भी इन सब में दिखायी देनेवाला एक कॉमन फॅक्टर है, संगीत एवं नृत्य।

जहाँ कृष्ण की बन्सी की गूँज आज भी सुनायी देती है, वह ब्रजभूमि भला नृत्य और संगीत में पीछे कैसे हो सकती है? इस ब्रजमंडल में लोकगीत बहुत ही जनप्रिय हैं। इनमें से अधिकांश लोकगीत श्रीकृष्ण, उनका चरित्र, उनकी लीलाएँ इनपर ही आधारित हैं। इन लोकगीतों में से ही एक प्रकार है, ‘रसिया’। ये ब्रजभाषा के लोकगीत विभिन्न अवसरों पर गाये जाते हैं। कुछ संगीततज्ञ इन गीतों को ध्रुपद घराने का एक प्रकार मानते हैं।

लोकगीतों की तरह लोकनृत्य यह भी भारत के हर एक प्रान्त की अपनी ख़ासियत है। इन लोकनृत्यों के माध्यम से उस प्रांत की विशेषताएँ तथा संस्कृति इनका दर्शन होता है।

‘चारकुला’ यह ब्रज के लोकनृत्य का एक प्रकार है। विजय और आनंद इन दोनों के प्रतीक के रूप में यह ‘चारकुला नृत्य’ किया जाता है। इस नृत्य में नृत्य करनेवाली महिलाओं के सिर पर शंकु के आकार का एक ‘स्टँड’ रहता है और उसमें जलाये हुए दीपक रहते हैं। संक्षेप में, उन जलते हुए दीपकों को सिर पर उठाकर उनके साथ ‘बॅलन्स’ सँभालते हुए इस नृत्य को किया जाता है। इस लकड़ी से बने स्टँड पर जो दीपक रखे जाते हैं, उनकी संख्या एक समय ५१ से लेकर १०८ तक रहती है। सिर पर जलते हुए दीपक रहने के कारण विशिष्ट मुद्रा तथा अभिनय के जरिये ही नृत्य के आशय को दर्शकों तक पहुँचाया जाता है।

श्रीकृष्ण का नाम लेते ही अवश्य ही याद आती है, ‘रास’ इस नृत्यप्रकार की। इस रास में श्रीकृष्ण प्रमुख एवं प्रधान रहते हैं। लेकिन यह रास किसके साथ और किस तरह खेला जाता है तथा ‘रासलीला’ का अर्थ क्या है, यह भी हम जानेंगे, लेकिन एक ह़फ़्ते के बाद।

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