जुनागढ़ भाग-६

जुनागढ़, इतिहास, अतुलनिय भारत, सोमनाथ, गुजरात, भारत, भाग-६

आज हम जिस सोमनाथ मंदिर के दर्शन करते हैं, वह सातवीं बार बनाया गया मन्दिर है। ऐसा कहा जाता है यानि पुराण कहते हैं कि चंद्र (चाँद) ने यहाँ पर सर्वप्रथम स्वर्ण से बने सोमनाथ मंदिर का निर्माण किया था। रामायण के कालखंड में यहाँ पर चाँदी से बने मंदिर का निर्माण किया गया। श्रीकृष्ण ने यहाँ पर चंदन से बने मंदिर का निर्माण किया, वहीं भीमदेव नाम के गुजरात के राजा ने यहाँ पर पत्थरों से बने मंदिर का निर्माण किया।

हो सकता है कि शायद चंद्र ने सोमनाथ मंदिर बनाने का प्रारंभ किया होगा। सोमनाथ और चंद्र इनके बीच का रिश्ता बहुत ही दृढ़ है, इस बात को पुराण ही दोहराते हैं; किंबहुना ‘सोमनाथ’ इस शब्द का अर्थ ‘सोम का नाथ’ यानि कि चंद्र का नाथ यही होता है। ‘सोम’ यह चंद्र का एक नाम है।

तो फिर ऐसे इस सोम यानि चंद्र के जीवन में ऐसी कौनसी घटना हुई, जिससे कि उसने यहाँ पर सोमनाथ के स्वर्ण से बने मंदिर का निर्माण किया?

पुराणों में इस बारे में एक कथा कही जाती है। चंद्र का विवाह दक्षप्रजापति ने अपनी कन्याओं के साथ कर दिया। दक्षप्रजापति को कुल २७ कन्याएँ थीं। इन २७ कन्याओं के साथ चंद्र का विवाह हुआ। लेकिन इन २७ में से केवल एक से ही चंद्र बेहद प्यार करता था, जिसका नाम था रोहिणी। चंद्र की इस बात से दक्षप्रजापति की बाकी की २६ कन्याएँ रूठकर अपने पिता के पास गयीं। उनकी शिकायत सुनने के बाद दक्षप्रजापति को बहुत ही गुस्सा आ गया और उस क्रोध के आवेश में उन्होंने चंद्र को शाप दे दिया कि तुम्हें क्षय की बाधा होगी। इससे चंद्र व्यथित हो गया। उसने अपनी ग़लती क़बूल करके दक्षप्रजापति अपना शाप वापस ले ले, ऐसी बिनती की। लेकिन एक बार दिये हुए शाप को वापस लेने का सामर्थ्य दक्षप्रजापति में नहीं था। फिर अब क्या किया जाये? शिवजी की उपासना करने का परामर्श चंद्र को दिया गया। फिर चंद्र ने प्रभासक्षेत्र में ब्रह्मदेव द्वारा अर्चित शिवलिंग की उपासना की और वह शापमुक्त हो गया। इस तरह प्रभासक्षेत्रस्थ शिवजी ये चंद्र को यानि सोम को तारनेवाले ‘सोमनाथ’ इस शिवलिंग रूप में मशहूर हो गये। इसी कारण शापमुक्त हो चुके चंद्र ने सोमनाथ के स्वर्ण से बने मंदिर का निर्माण किया।

फिर उसके बाद के युगों में भी विभिन्न साधनों का उपयोग करके इस सोमनाथ मंदिर का निर्माण किया गया। चंद्र की इस शापमुक्ति की कथा के अतिरिक्त अन्य युगों में यहाँ पर बनाये गये मंदिरों के बारे में किसीभी प्रकार की जानकारी नहीं मिलती।

लेकिन इससे ‘सोमनाथ’ का अतिप्राचीनत्व पुन: एक बार अपनी छाप हमारे मन पर अंकित करता है।

वेरावळ यह आज का एक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह है और प्राचीन युग में भी वह ‘बंदरगाह’ के रूप में ही मशहूर था। यहाँ से बाहरी देशों के साथ समुद्री मार्ग से व्यापार होता होगा। अब जहाँ व्यापार का कार्य चल रहा हो, वहाँ लोगों की आवाजाही तो लगी ही रहेगी। यहाँ के व्यापारी जिस तरह दूसरे देश में जाते होंगे; उसी तरह दूसरे देशों से भी व्यापारी यहाँ पधारते होंगे। उनमें से कुछ व्यापारियों ने ‘सोमनाथ’ का वर्णन किया हुआ है।

१३वीं सदी में अरबस्तान से यहाँ पर आये किसी भू-वैज्ञानिक ने ‘सोमनाथ’ की सविस्तार जानकारी लिख रखी है।

यह भू-वैज्ञानिक लिखता है- सोमनाथ, भारतवर्ष का एक महत्त्वपूर्ण नगर, समुद्रतट पर बसा हुआ। सागर की लहरें बार बार आकर यहाँ की भूमि का चरणस्पर्श करती हैं। इस भूमि में जिसे अजूबा कहा जा सकता है ऐसा एक मंदिर है, जिसके आराध्य -‘सोमनाथ’ इस नाम से मशहूर हैं। इन आराध्य की मूर्ति मंदिर में बिलकुल बीचों बीच है और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह बिना किसी सहारे के यानि सपोर्ट के मंदिर के मध्यभाग में विराजमान है। उसके कहने का मथितार्थ यही है कि इस मंदिर की मूर्ति ऊपर से, नीचे से या अन्य किसीभी दिशा से बिना किसी सहारे के हवा में स्थित है। इस एक बात से ही यह भू-वैज्ञानिक भौचक्का रह गया होगा, दंग रह गया होगा, अचंभित हो गया होगा, इसमें कोई दोराय नहीं है। बिना किसी सपोर्ट के हवा में विराजमान मूर्ति को देखकर तो क्या पढ़कर भी हम अचंभित रह जाते हैं।

जुनागढ़, इतिहास, अतुलनिय भारत, सोमनाथ, गुजरात, भारत, भाग-६यह भू-वैज्ञानिक आगे लिखता है कि यह स्थान अत्यंत पुण्यदायक तथा सर्वोच्च है, ऐसी इस भूमि के निवासियों की श्रद्धा है। मृत्यु के पश्‍चात् शरीर से बाहर निकलकर आत्मा यहीं पर इन ईश्‍वर के चरणों में आ जाती है और यहीं से वह नये शरीर में प्रवेश करके पुन: जन्म लेती है, ऐसी भी इन लोगों की मान्यता है। इसीलिए यहाँ पर हमेशा बड़ी तादात में लोग दर्शन करने आते हैं। इतना ही नहीं बल्कि यहाँ के समुद्र की लहरें, जो यहाँ के किनारे को स्पर्श करती हैं, वे मानों उनकी अपनी पद्धति से ईश्‍वर का चरणस्पर्श ही करती हैं। ऐसे इस पवित्र तीर्थक्षेत्र में लोग क़ीमती वस्तुएँ ईश्‍वर के चरणों में अर्पण करते हैं। इस मंदिर को उसकी खर्ची के लिए दस हज़ार से अधिक गाँवों का लगान दिया गया है। मंदिर में दैनिक उपचारों के लिए सबसे पवित्र माने जानेवाली नदी का जल लाया जाता है। हज़ारो विप्र यहाँ पर भगवान की सेवा में हैं, जो मंदिर के दैनिक धार्मिक कार्य करते हैं। मंदिर की रचना को सहारा देनेवाले सगौन के ५६ खंभे भी हैं और उनपर सीसे का आवरण किया गया है। इस संपूर्ण मंदिर में प्रकाशव्यवस्था के लिए विभिन्न रत्नों से बने झाड़-फ़ानूस लगाये गये हैं। इस मंदिर में लगभग ५०० नृत्यांगनाएँ भगवान के मनोरंजन के लिए तत्पर रहती हैं।

यहाँ पर एक स्वर्ण की ज़ंजीर है, जिसका वजन २०० मन (१ मन = चालीस सेर का वजन) है। इसका उपयोग क्या होगा? यहाँ का विप्रवर्ग, जिसमें विप्र बहुत बड़ी संख्या में हैं, उनके कार्य का विशिष्ट समय निर्धारित किया गया है, संक्षेप में उनकी ‘शिफ्ट ड्युटीज’ है। अत एव जब एक शिफ्ट समाप्त होकर दूसरी शुरू हो जाती है, तब संबंधित सेवकों को उसकी जानकारी देने के लिए यह ज़ंजीर बजायी जाती है।

यहाँ अर्पण की गयी वस्तुओं में स्वर्ण, चाँदी, रत्न आदि बहुमूल्य वस्तुएँ रहती हैं और वे एकाद दो की संख्या में नहीं रहती; बल्कि उनका ढेर लगा रहता है।

यह सब पढ़कर ताज्जुब के कारण हमारा खुला हुआ मुँह खुला का खुला ही रह जाता है। है ना! १३वीं सदी का यह यात्री हमारी आँखों के सामने एक भव्य, दिव्य, अत्यंत वैभवशाली और शुहरत के आसमान की बुलंदी को छूता हुआ, भक्तभाविकों की भीड़ से भरा सोमनाथ मंदिर रेखांकित करता है। है ना!

तो फिर ऐसे वैभवशाली मंदिर को भला पतन के घाव क्यों सहने पड़े? उसके इसी वैभव के कारण, शुहरत के कारण या फिर समुद्र के सम्मुख रहने के कारण? सोमनाथ की दिशा में सफ़र करते हुए इस सवाल का जवाब ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं।

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