कोडाईकनाल भाग – १

वैशाख महीने की गर्मियों ने सबके नाक में दम कर रखा है। इस चढ़ते हुए पारे से छुटकारा पाने के लिए हर कोई अपनी अपनी तरक़ीबें अपना ही रहा है। ऐसे समय केवल दो ही शब्द याद आते हैं – हिल स्टेशन। कुछ समय के लिए ही सही, हिल स्टेशन जानेवालों को इस ते़ज गर्मी से राहत मिलती है।

हिल स्टेशन की याद आते ही यह खयाल आया कि हमारे देश में जो हिल स्टेशन्स हैं, वहाँ पर लोगों के बसने की शुरुआत कैसे हुई? और मन इस सवाल का जवाब ढूँढ़ते ढूँढ़ते लगभग दो सदियाँ पीछे चला गया। दरअसल भारतवासियों को ऐसी ते़ज गर्मियों की आदत सी पड़ गयी थी। लेकिन २-३ सदियों पहले इस देश पर शासन करने के उद्देश्य से यहाँ आये हुए अंग्रे़जों के लिए इन गर्मियों को सहना नामुमक़िन था और इसीलिए उन्होंने ठण्डी आबोहवा के स्थानों की खोज करना शुरू किया। उन्होंने पूरे भारतभर में ऐसे कईं स्थानों को खोजा और गर्मियों का मौसम वहाँ बिताना शुरू किया। इन स्थानों की खोज, जो अंग्रे़जों के लिए जरूरत बन गयी थी, वह आगे चलकर हमारे लिए भी सुविधाजनक ही साबित हुई।

फ़िर लोगों ने उस उस स्थान की प्राकृतिक सुन्दरता, आबोहवा आदि घटकों को मद्देऩजर रखते हुए इन हिल स्टेशन्स का वर्गीकरण करना शुरू किया और फ़िर किसी स्थान को ‘हिल स्टेशन्स की रानी (क्वीन)’, तो किसी स्थान को ‘हिल स्टेशन्स की राजकुमारी (प्रिन्सेस)’ ऐसे बिरुद प्रदान किये।

अब इस प्रस्तावना में अधिक समय न गँवाते हुए, आइए, चलते हैं हिल स्टेशन्स की प्रिन्सेस से मिलने के लिए।

पलानी हिल्स पर जानेवाला रास्ता जैसे जैसे हरीभरी झाड़ियों में से ऊपर चढ़ते जाता है, वैसे वैसे गर्मियाँ कम होकर ठण्डी हवाएँ महसूस होने लगती हैं। इस रास्ते से गु़जरते हुए ऩजदीकी पहाड़ से नीचे गिरनेवाला एक प्रपात (वॉटरफॉल) भी दिखायी देता है, जिसके क़रीब सैलानी जा सकते हैं। यहाँ से कुछ ही किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद हम हिल स्टेशन्स की प्रिन्सेस के महल में ही जा पहुँचते हैं। अभी अभी जिस फॉल का जिक्र किया, वह ‘सिल्वर कास्केड’ मानो हमसे कहता है, यह तो शुरुआत है, अभी का़फ़ी कुछ देखना बाक़ी है। इस सिल्वर कास्केड से लगभग आठ किमी. की दूरी तय करने पर ऊँचे ऊँचे पाईन और निलगिरी (युकॅलिप्टस) के वृक्षों में बसे हुए, मनोरम तथा प्रसन्न शीतल आबोहवा के, पहाड़ों से गिरते हुए प्रपात और झरनें, लंबेचौड़े तालाब और रंगबिरंगे फ़ूल इनसे सजे हुए कोड़ाईकनाल में हम पहुँच जाते हैं।

पलानी हिल्स पर, लगभग ६,९९८ फ़ीट की ऊँचाई पर तमीलनाडू राज्य में कोड़ाईकनाल बसा हुआ है। हालाँकि कोड़ाईकनाल से कुछ ही दूरी पर स्थित मदुराई, कोईम्बतूर, कोडाई रोड इन स्थानों तक हम रेल्वे से जा सकते हैं, मग़र कोड़ाईकनाल पहुँचने के लिए पहाड़ी की तलहटी से केवल सड़क का ही पर्याय उपलब्ध है।

हम देख ही चुके हैं कि अंग्रे़जों ने जरूरतवश भारत में कई हिल स्टेशन्स बसाए, लेकिन कोड़ाईकनाल को बसाने का श्रेय अमरीकी मिशनरियों को दिया जाता है।

दरअसल इस स्थान को ‘कोड़ाईकनाल’ यह नाम किसने दिया, इसके बारे में कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती। ‘कोडाई’ और ‘कनाल’ इन दो शब्दों के तमील भाषा में कई अर्थ हैं। उनके अनुसार ‘कोड़ाईकनाल’ इस शब्द के – ‘जंगल की देन, बेलियों का जंगल, गर्मी के मौसम के लिए जंगल (यानि कि जहाँ गर्मियों में आराम किया जा सके, ऐसा जंगल) – ऐसे कई अर्थ होते हैं। संक्षेप में, कोड़ाईकनाल इस नाम में ही जंगल, बेलियाँ और गर्मियों में राहत इन सभी बातों को समावेश है।

पलानी हिल्स का जिक्र सर्वप्रथम संगम साहित्य में मिलता है। इससे यह अँदाजा लगाया जाता है कि शायद तब कोड़ाईकनाल किसी दूसरे नाम से अस्तित्व में होगा। लेकिन यह कहाँ तक सच है, यह कहना मुश्किल है।

ऐसा मत है कि पुराने जमाने में इन पहाड़ियों पर और कोड़ाईकनाल में लोग समूह बनाकर रहते थे। आदिम समय में यहाँ पर मनुष्य का वास्तव्य होने के सबूत कोड़ाईकनाल और उसके आसपास के प्रदेश में उस जमाने की वस्तुएँ, स्मारक आदि के रूप में उपलब्ध हुए हैं। यहाँ पर बसनेवाला मानवसमूह ‘पलैयार’ इस नाम से जाना जाता था। इससे यह कह सकते हैं कि कोड़ाईकनाल में शुरुआती समय से ही मनुष्यों का निवास रहा है।

लेकिन आदिम मानव के बसेरे के इस स्थान पर उसके पश्चात् का़फ़ी लंबे अरसे तक मानवी बसती नहीं थी अथवा यह स्थान उपेक्षित रहा; क्योंकि उसके बाद ठेंठ १९वी सदी में जब एक अंग्रे़ज अ़फ़सर यहाँ आ पहुँचा, तब कोड़ाईकनाल फ़िर से एक बार चर्चा का विषय बन गया।

इसवी १८२१ में बी.एस्.वॉर्ड नामक अंग्रे़ज लेफ्टनंट वेल्लगावी नामक गाँव के उसके हेडक्वार्टर्स में से ठेंठ इन पलानी पहाड़ियों पर चढ़कर यहाँ पर आ पहुँचा। इस जगह का मुआयना करना यही उसका उद्देश्य था। यहाँ की प्रसन्न और स्वास्थपूर्ण आबोहवा के कारण, इस जगह के बारे में इस अंग्रे़ज अ़फ़सर का मत बहुत ही अनुकूल बन गया। उसके बाद इसवी १८३४ में मदुराई का रॉटन नामक सब-कलेक्टर और मद्रास प्रेसिडेन्सी का कॉटन नामक अ़फ़सर भी इसी तरह पहाड़ी चढ़कर यहाँ पहुँच गये और कहा जाता है कि उन्होंने कोड़ाईकनाल के पास ही एक छोटे बंगले का निर्माण किया। उसके बाद इसवी १८३६ में एक वनस्पतिशास्त्रज्ञ ने यहाँ पहुँचकर यहाँ के जंगल में से लगभग १०० वनस्पतियों के नमूनें इकट्ठा किये और अपने साथ ले गया। ये नमूनें वनस्पतिशास्त्रज्ञों को उनके अभ्यास में का़ङ्गी मददगार साबित हुए। इसवी १८४५ में अमरीकी मिशनरियों के ६ परिवार यहाँ पर दाखिल हुए और यहाँ पर दो बंगलों का निर्माण कर वे यहीं पर रहने लगे। यहीं से कोड़ाईकनाल में मनुष्यों का बसना शुरू हुआ और इसीलिए कोड़ाईकनाल को बसाने का श्रेय अमरीकी मिशनरियों को जाता है।

दरअसल अमरीकी मिशनरियों की इस खोजमुहिम का एक प्रमुख कारण था – दक्षिणी भारत की ते़ज गर्मी। दक्षिणी भारत के मैदानी इलाक़ों में धर्मप्रसार करने आये ये लोग यहाँ की स्थानीय आबोहवा तथा खानपान के कारण अक़्सर बीमार पड़ जाते थे। साथ ही उस समय महामारियों का फ़ैलाव भी बीच बीच में हुआ करता था। ऐसे हालातों में बार बार सतानेवाली इस बीमारी की परेशानी से छुटकारा पाने के लिए उस समय अकसीर इलाज माना जाता था – हवाबदली। इसीलिए फ़िर इस प्रकार की सा़फ़, शुद्ध एवं स्वस्थ आबोहवा के स्थल की खोज में निकले अमरीकी मिशनरियों को यहाँ की आबोहवा ने मोह लिया। इससे एक बात याद आयी कि प्राचीन समय में जब वैद्यकशास्त्र विकसित हो रहा था, तब बीमारी के इलाज के रूप में पेशंट को दवाइयों के साथ साथ हवाबदली करने के लिए इस तरह के हिल स्टेशन्स पर जाने की सलाह दी जाती थी और इससे का़फ़ी फ़ायदा भी होता था।

इस तरह कोड़ाईकनाल में लोगों का बसना शुरू हुआ और इसके बाद फ़िर लोग यहाँ आने लगे; कुछ लोग सैलानी बनकर, तो कुछ यहाँ पर बसने के लिए। जाहिर है कि इसमें अधिकतर लोग थे – बाहरी मुल्क से भारत आये हुए विदेशी। इसी दरमियान इसवी १८५३ में कोड़ाईकनाल में पहले चर्च का निर्माण भी किया गया।

यहाँ पर आये अंग्रे़ज और अमरीकी लोगों ने इस प्रदेश के बारे में जो लिखा है, उसमें वर्णित यहाँ के सभी पहलुओं में यहाँ की प्राकृतिक सुन्दरता और बेहतरीन आबोहवा अव्वल नंबर पर है।

इसवी १८८३ में कोड़ाईकनाल में ६१५ स्थायी निवासी थे, ऐसा वर्णन प्राप्त होता है। यानि कि कोड़ाईकनाल की आबादी छः परिवारों से बढ़कर ६१५ होने में लगभग ३८ साल लग गये। बाद में भारत की रियासतों के राजा-महाराजा भी यहाँ पर आने लगे। लेकिन यहाँ तक पहुँचने में सबसे बड़ी दिक्कत थी, स़फ़र की मुश्किलें। इनका वर्णन भी कुछ सैलानियों ने उनके स़फ़रनामे में किया है। पहले तो यहाँ तक पैदल ही चढ़कर आना पड़ता था; ठीक उसी तरह, जिस तरह पहले तीन अंग्रे़ज यहाँ तक आये थे। बाद में लोगों की आवाजाही जैसे जैसे बढ़ने लगी, वैसे वैसे बैलगाड़ी, पालकी, घोड़ा इनका इस्तेमाल किया जाने लगा। इस स़फ़र को पूरा करने में कई घण्टे लगते थे और साथ ही शारीरिक कष्ट भी उठाने पड़ते थे।

इस समस्या का समाधान यह था कि जिसपर से बसें, कारें तलहटी से लेकर कोड़ाईकनाल तक जा सकें, ऐसी सड़क का निर्माण करना। आख़िर इसवी १९१४ में इस तरह के मोटरेबल रोड़ का निर्माण किया गया, लेकिन लोगों के लिए उसे खोला गया इसवी १९१६ में। अब बस अथवा कार से सड़क के द्वारा ठेंठ कोड़ाईकनाल पहुँचना मुमक़िन बन गया।

लेकिन एक बात ग़ौर करने लायक है कि कोड़ाईकनाल में स्वतन्त्र रियासत अथवा हुकूमत की स्थापना नहीं हुई। पूरे भारत पर जब अंग्रे़जों का राज था, तब यहाँ पर भी स्वाभाविक रूप से उन्हीं का शासन था और भारत के आ़जाद होने के साथ साथ यहाँ की अंग्रे़जी हुकूमत का भी अस्त हो गया।

प्रायः अधिकांश हिल स्टेशन्स का चाय के बाग़ानों के साथ का़फ़ी क़रीबी रिश्ता रहता है; लेकिन यहाँ की पहाड़ियों की आबोहवा कॉफ़ी की उपज के लिए बेहतरीन है। और हाँ, यहाँ के जंगलों में हर बारह वर्ष बाद ‘कुरिंजी’ खिल उठती है। हालाँकि कुरिंजी के खिलने के लिए १२ वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है, लेकिन उसकी जानकारी प्राप्त करने के लिए हमें उतना लंबा इन्त़जार नहीं करना पड़ेगा; बस उसके लिए एक हफ्ते तक ही प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

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