२४. जोशुआ की मृत्यु

इस प्रकार कॅनान प्रान्त के स्थापितों पर जीत हासिल कर, उनमें से अधिकांश प्रदेश ज्यूधर्मियों के कब्ज़े में आने के बाद, जोशुआ ने उस प्रान्त का इस्रायल की मूल बारह ज्ञातियों में बँटवारा करा दिया था। साथ ही, कॅनान प्रान्त में कदम रखते ही गिल्गाल में प्रतिष्ठापना किये हुए, ज्यूधर्मियों के लिए बहुत ही आदर का विषय होनेवाले ‘टॅबरनॅकल’ को भी जोशुआ ने आगे चलकर ‘शिहोल’ इस मध्यवर्ती स्थान में स्थलांतरित किया। ‘टॅबरनॅकल’ जब तक वहाँ पर था, तब तक शिहोल यह तत्कालीन तमाम ज्यूधर्मियों के लिए तीर्थक्षेत्र ही बन गया था।

हालाँकि अपने हक़ की भूमि में वे स्थानान्तरित हुए थे और सुस्थिर हो रहे थे, लेकिन एक एकसंध समाज के तौर पर, एक राष्ट्र के तौर पर अभी भी ज्यूधर्मीय एक नहीं हो रहे थे, उस बात का जोशुआ को खेद हो रहा था। ‘एक ईश्‍वर’, ‘सब्बाथ’, ‘पासओव्हर’, ‘टेन कमांडमेंट्स’ एवं ‘टोराह’, तथा ‘टॅबरनॅकल’ ये ज्यूधर्मियों को एक-दूसरे के साथ बाँधे रखनेवालीं बातें थीं और इन बातों का ज्यूधर्मीय दिल से एकसाथ पालन करते भी थे। उसीके साथ, बतौर केंद्रीय नेतृत्व जोशुआ जैसा गगनस्पर्शी व्यक्तित्व तो था ही। उसके आदरयुक्त धाक के कारण ज्यूधर्मीय अनुशासनपूर्वक अपने सारे कर्तव्य निभा रहे थे।

ऐसे कुछ साल गये। ज्यूधर्मियों को कॅनान प्रान्त में ले जाने की ज़िम्मेदारी जब कन्धे पर रखी गयी थी, तब ८२ साल उम्र होनेवाले जोशुआ ने अब उम्र के सौ साल पार किये थे।

बीच के दौर में ‘प्रॉमिस्ड लँड’ कॅनान में स्थलांतरित हुए ज्यूधर्मियों ने अब इस प्रान्त में पैर जमाना शुरू किया। कॅनान के विभिन्न भागों में उनकी बस्तियाँ बनने लगीं। गत कुछ वर्षों में पुरातत्त्वसंशोधकों ने किये उत्खननों में जो सबूत प्राप्त हुए, वे उस समय की जीवनशैली को अधिक ही उजागर करते हैं।

वेस्ट बँकस्थित तेल अस्सुलतान इस स्थान पर हुए उत्खनन में प्राप्त हुए जेरिको नगरी के कुछ घरों के अवशेष

समतल प्रदेशों के साथ ही, छोटे टीलों के शिखरों पर, पर्वत के ढलान पर भी उनके गाँव बसने लगे। ये गाँव वैसे छोटे ही होते थे – ज़्यादा से ज़्यादा चार-एकसौ लोगों की बस्ती होनेवाले। उनमें भी, ये सभी बस्तियाँ एक-परिवार अधिष्ठित होने के कारण, नज़दीकी रिश्तेदार अड़ोसपड़ोस में रहा करते थे। यानी समझो माँ-बाप-बच्चें इनका एक मूल घर है, तो आगे चलकर बच्चो की शादियाँ हो जाने के बाद उनकी गृहस्थी का विस्तार होने पर, उनके लिए मूल घर के पड़ोस में ही घर बनवाकर दिया जाता था। बच्चों में से कोई एक अपने माँबाप के साथ मूल घर में ही रहता था। बीच में बहुत बड़ा आँगन, उसकी चहुँ ओर एक-दूसरे से सटकर इस प्रकार के नज़दीकी परिजनों/आप्तों के घर और उनकी चहुँ ओर पारिवारिक सरहद को दर्शानेवाली दीवार या बाड़ा ऐसी कुल मिलाकर घरों की रचना होती थी। मज़बूत पत्थर की नींव होनेवाले, खंभों का इस्तेमाल कर बनाये, चार-पाँच कमरों के ये घर (‘पिलर-होम्स’) प्रायः मिट्टी की ईटों से बने हुए होते थे। कभी कभी निचली मंज़िल और पहली मंज़िल, ऐसे दो-मंज़िला घर होते थे, जिसमें ऊपरी मंज़िल प्रायः लकड़ी के होती थी और वह उन खंभों के आधार पर खड़ी की जाती थी। निचली मंज़िल (ग्राऊंड फ्लोर) पर पालतू जानवरों, प्रायः भेड़-बक़रियों को रखने की जगहें भी होती थीं। आँगन में पानी के हौद/कुएँ होते थे। वैसे ही, हर घर में ब्रेड़ आदि बनाने के लिए मिट्टी से बनी भट्टी (ओव्हन) भी होती थी। ऐसीं कुछ पारिवारिक बस्तियाँ मिलकर गाँव बनता था।

लेकिन ये गाँव केवल बतौर सुविधा बने होने के कारण, ज़्यादातर उनकी सीमारेखाएँ बाड़े से वगैरा बन्दिस्त नहीं होती थीं, खुलीं ही रहती थीं।

हालाँकि पशुपालन यह उनका पूर्वापार चलता आया व्यवसाय था, मग़र फिर भी उसके साथ अब ज्यूधर्मीय धीरे धीरे खेती भी करने लगे थे। स्थानीय कॅनानवासियों का खेतीतंत्र और इजिप्तस्थित खेती का तंत्र इन दोनों में होनेवालीं अच्छीं बातें एकत्रित कर ज्यूधर्मियों ने अपनी खेती बढ़ाना शुरू किया था।

ज्यूधर्मियों की यह सारी तरक्की देखकर, उम्र का शतक पार कर चुका जोशुआ मन ही मन खुश हो जाता था। लेकिन अपने बाद क्या होगा; जो कॅनानप्रांतीय ज्यूधर्मियों के स्वामित्व का स्वीकार कर वहीं पर रह गये थे, उनमें मिलजुलकर रहने पर कहीं उनकी, ज्यूधर्मतत्त्वों के विरोध में होनेवालीं रूढ़ियों-परंपराओं को भी ज्यूधर्मीय अपना न लें, ऐसा डर भी जोशुआ को लग रहा था। मन ही मन जोशुआ यह सोचता था कि यदि हाथों से जाने-अनजाने में होनेवाले ज्यूधर्मतत्त्वविरोधी कृत्यों को न होने देना है, तो हर एक ज्यूधर्मिय को इस बात का भली-भाँति एहसास रखना चाहिए कि ‘ज्यूधर्मीय ये ईश्‍वर के ख़ास लोग हैं, जिन्हें ईश्‍वर ने ख़ास काम के लिए चुना है।’ ज्यूधर्मीय यदि ‘टेन कमांडमेंट्स’ एवं ‘टोराह’ का, भक्तिभाव से एवं अचूकता से पालन करें और हर एक ज्यूधर्मीय अपनी ज़िम्मेदारी को पहचानकर यदि अन्य ज्यूधर्मियों के साथ निःस्वार्थी बंधुभाव से तथा एकसंध रूप में रहें, तो ज्यूधर्मियों को मार्गदर्शन करने के लिए अलग केंद्रीय नेतृत्व की ज़रूरत ही नहीं रहेगी, ऐसा जोशुआ को मन ही मन लगता था और उसी दिशा में उसके सारे प्रयास शुरू थे।

जोशुआ समय समय पर इस्रायली लोगों को मार्गदर्शन करता था।

उम्र का शतक पार करने के बाद कुछ ही सालों में, अपनी मृत्यु अब कभी भी हो सकता है इसका एहसास हो चुके जोशुआ ने शेकेम में सभी ज्यूधर्मियों की सभा बुलायी। उसमें उसने – अब्राहम को हुए ईश्‍वरीय दृष्टान्त से लेकर ज्यूधर्मियों का तब तक का पूरा इतिहास उन्हें प्यार से विशद किया; और उन्हें तहे दिल से, लेकिन सीधे सीधे यह सवाल किया कि ‘अब हमारे इस दीप्तिमान् इतिहास का परिचय होने के बाद, उस परंपरा का ही भाग होनेवाले हर एक ज्यूधर्मीय को यह तय करना है की वह ज्यूधर्मतत्त्वों का पालन करेगा, अब्राहम-आयझॅक-जेकब को दृष्टान्त के ज़रिये मिले ईश्‍वर का ही पूजन कर उसकी आज्ञाओं का पालन करेगा;

या फिर इस प्रदेश के अन्य लोगों की तरह अनेकदेवतापूजन करता रहेगा?’

जोशुआ ने इतने प्यार से एवं भावनावेग से बयान किया इतिहास सुनकर सभी ज्यूधर्मीय भारित हो चुके थे। उनमें से नयी पीढ़ी के लोग तो पहली ही बार अपना इतिहास इतना सविस्तार सुन रहे थे। इस कारण, उसके बाद तहे दिल से किये गये इस सवाल के जवाबस्वरूप – ‘हाँ, हम ज्यूधर्म का निष्ठापूर्वक पालन करेंगे’, ‘हम कभी भी ‘उस एक ईश्‍वर’ के अलावा अन्य किसी भी देवता का पूजन नहीं करेंगे’, ‘हम कभी भी ज्यूधर्मतत्वों के साथ प्रतारणा नहीं करेंगे’ ऐसी घोषणाएँ चारों ओर से ज्यूधर्मियों से सुनायीं देने लगीं।

जोशुआ ने बुलायी इस सभा का अच्छा परिणाम हुआ था और ज्यूधर्मीय पुनः नये सिरे से ज्यूधर्मतत्त्वों का पालन करने के लिए कटिबद्ध हो चुके थे।

यह देख तसल्ली हुए जोशुआ ने उसके दो ही साल बाद इस दुनिया से विदा ली। मृत्यु के समय उसकी उम्र ११० साल थी।
जोशुआ की मृत्यु के बाद अब ज्यूधर्मियों के लिए केंद्रीय नेतृत्व नहीं बचा था!(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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