२५. दंडनायकों का कालखंड (‘एरा ऑफ द जजेस्’)

जोशुआ की मृत्यु से, ज्यूधर्मियों के इतिहास का, प्राचीन माना जानेवाला हिस्सा समाप्त हो चुका था। अब इसके बाद का (ईसापूर्व १३वीं-१२वीं सदी के बाद का) इतिहास यह हालाँकि तीन हज़ार वर्ष पुराना भी हों, तब भी कइयों की राय से वह आधुनिक ही है, क्योंकि उसका दस्तावेज़ीकरण सुचारु रूप से किया गया पाया जाता है। इस कालखंड की तथा उसके बाद की सर्वमान्य घटनाओं के पु़ख्ता सबूत भी जगह जगह पाये जाते हैं।

जोशुआ ने मृत्यु से पहले, कॅनान प्रान्त के उस समय तक जीते हुए भाग का, इस्रायल की मूल बारह ज्ञातियों में बँटवारा कर दिया था। इस बँटवारे में हमपर अन्याय हुआ है ऐसा कोई न सोचें इसलिए उसने सीधे ईश्‍वर को साक्षी मानकर चिठ्ठियाँ डालते हुए, यह बँटवारा किये हुए प्रदेश इस ज्ञातियों को बहाल किये थे। क्योंकि किसी की भी वास्तविक ज़ारूरत क्या और कितनी है, यह उस व्यक्ति से भी अधिक ईश्‍वर अच्छी तरह जानता है, यह दृढ़विश्‍वास जोशुआ के दिल में था।

ज्यूधर्मियों के इतिहास
कॅनान प्रांत के जीते हुए भाग की इस्रायल का मूल बारह ज्ञातियों में बँटवारा करते हुए, इस बँटवारे में हमपर अन्याय हुआ ऐसा किसी को भी न लगें इसलिए जोशुआने सीधे ईश्‍वर को साक्षी मानकर चिट्ठियाँ उठाकर, ये बँटवारा किये हुए प्रदेश इन ज्ञातियों को बहाल किये।

उसके बाद उसने, अपने अधिकार में होनेवाला, इन बारह ज्ञातियों का केंद्रीय प्रतिनिधिमंडल भी बरख़ास्त किया। इतना ही नहीं, बल्कि ज्यूधर्मियों की एकत्रित सेना भी विसर्जित कर, उस सेना के सैनिकों को हर एक की ज्ञाति को बहाल किये हुए प्रदेशों में लौटने के लिए और वहीं पर अपनी अपनी ज्ञाति की स्वतंत्र सेनाएँ बनाने के लिए भी उसने कहा था।

ऊपरि तौर पर देखें, तो किसी को यह आत्मघातकी विचार प्रतीत हो सकता है। ‘इससे क्या हासिल हुआ? उल्टे ज्यूधर्मियों की ताकत बँटकर क्या वे दुर्बल नहीं बने? कसी भी प्रकार का केंद्रीय धाक अब न होने के कारण क्या ज्यूधर्मियों में अराजकता फैलनेवाली नहीं थी?’ ऐसे सवाल किसी के मन में उठ सकते हैं। उसमें भी, जोशुआ जैसे सर्वोत्तम माने गये सेनापति एवं ईश्‍वरभक्त के द्वारा ऐसा फैसला किया जाना, यह थोड़ाबहुत धक्कादायी प्रतीत हो सकता है।

लेकिन कई विश्‍लेषकों ने इसपर ऐसी राय ज़ाहिर की है कि ज्यूधर्म की उत्पत्तिकथा का एवं उसके बाद के उसके इतिहास को बारिक़ी से देखा, तो जोशुआ ने जो किया, वह सही ही किया।

जोशुआ एक आदर्श ज्यूधर्मीय व्यवस्था का निर्माण करना चाहता था, जिसमें एक एकसंध समाज के तौर पर जीना चाहनेवाला हर एक ज्यूधर्मीय निजी स्तर पर भी अपनी ज़िम्मेदारी अच्छे से निभायेगा; फिर ऐसे सभी आदर्श ज्यूधर्मियों का समाज अपने आप ही आदर्श बन जायेगा। केंद्रीय नेतृत्व की कब ज़रूरत पड़ेगी? एक तो मतभिन्नता हो सकनेवाले विभिन्न प्रान्त जब एक ढ़ीलाढाले संघराज्य के रूप में एकत्रित होते हैं, तब उनका कारोबार चलाने के लिए; और दूसरी बात यानी इस संघराज्य पर होनेवाले संभाव्य बाह्य आक्रमण का एकसंध रूप से सामना करने के लिए।

‘एक ईश्‍वर – एक धर्म’ इस तत्त्व पर स्थापना किये गये धर्म में मतभिन्नता हो ही कैसे सकती है? ईश्‍वर ने ज्यूधर्म की स्थापना करने की आज्ञा देते समय – ‘एक ईश्‍वर’, ‘सब्बाथ’, वैसे ही बाद में ‘पासओव्हर’, ‘टेन कमांडमेंट्स’ एवं ‘टोराह’, साथ ही ‘टॅबरनॅकल’ इन बातों के द्वारा ज्यूधर्म की बारिक़ी से रूपरेखा स्वयं बनाकर दी थी और ये बातें सभी ज्यूधर्मियों के लिए समान रूप से लागू थीं। साथ ही, ज्यूधर्मियों से जो जीवनपद्धति ईश्‍वर को अपेक्षित थी, उसके बारे में पूरा विवरण एवं क़ानून ‘टोराह’ में होने ही वाले थे और ‘टोराह’ माननेवाले हर एक के लिए वे बंधनकारक ही थे। इस कारण उनको लेकर आपस में झगड़ा होने की संभवता बहुत ही कम थी।

वैसे ही, हर एक ज्यूधर्मीय को दूसरे ज्यूधर्मियों के प्रति बंधुभाव एवं प्रेम होने ही वाला था। इस कारण ज्यूधर्मियों के किसी प्रान्त पर किसी बाह्य आक्रमणकर्ता ने हमला किया, तो अन्यप्रांतीय ज्यूधर्मीय – ‘मुझे उससे क्या लेनादेना है’ ऐसा न मानते हुए; ‘वह हमला संपूर्ण ज्यूधर्मियों पर करने जैसा ही है’ ऐसे मानकर, उस हमला हुए प्रांतस्थित ज्यूधर्मियों की सहायता के लिए दौड़ेंगे, ऐसी उनसे उम्मीद थी।

जोशुआ ने इस्रायल की मूल बारह ज्ञातियों में कॅनान प्रान्त का साधारणत: इस प्रकार विभाजन किया था।

यह सारा विचार करके ही जोशुआ ने – ज्यूधर्मतत्त्वों का अचूकता से पालन करनेवाले ज्यूधर्मियों को अलग केंद्रीय नेतृत्व की ज़रूरत नहीं है, यह मानकर यह किया, ऐसा मत इन विश्‍लेषकों ने व्यक्त किया है।

इस तरह, जोशुआ की मृत्यु के बाद ऐसे हालात उद्भवित हुए थे कि इजिप्त में से बाहर निकलने के बाद पहली ही बार ज्यूधर्मियों का कोई केंद्रीय नेतृत्व ही नहीं बचा था। मोझेस और उसके बाद जोशुआ ये ज्यूधर्मियों के लिए केवल सर्वोच्च सेनापति, सर्वोच्च अमात्य ही नहीं, बल्कि सर्वोच्च मार्गदर्शक भी थे। अपनी हर छोटी-बड़ी समस्या के लिए ज्यूधर्मीय उनके पास आस लेकर चले आते थे। उनके नेतृत्व की, मार्गदर्शन की ज्यूधर्मियों को आदत पड़ गयी थी। उतना उनका धाक भी ज्यूधर्मियों के मन में था। जोशुआ की मृत्यु के बाद ये सारे बातें अब ख़त्म हुईं थीं।

यह – एकसलग मज़बूत केंद्रीय नेतृत्व न होने की स्थिति अगले लगभग तीनसौ साल बनी रही। लेकिन जोशुआ ने जो उनकी जीवनशैली निश्‍चित करके दी थी, वह एक ही झटके में नहीं बिगड़ी। ऐसा नहीं था कि ज्यूधर्मतत्त्वों से दूर ले जानेवालीं बातें घटित ही नहीं हो रही थीं। लेकिन जब तक ज्यूधर्मियों की, जोशुआ से तालीम लेकर तैयार हुई बुज़ुर्गों की पीढ़ी जीवित थी, तब तक ज्यूधर्मियों के मन में उनका थोड़ाबहुत नैतिक धाक यक़ीनन ही था। इस कारण बातें पूरी तरह हद से बाहर जाने से पहले ही सुधर जाती थीं। लेकिन जैसे ही इस पीढ़ी ने उम्र के हिसाब से इस दुनिया से विदा ले ली, ज्यूधर्मीय धीरे धीरे ज्यूधर्मतत्त्वों से दूर ले जानेवालीं बातों में अधिक से अधिक उलझने लगे।

ज्यूधर्मियों के मन में अब किसी का भी नैतिक, राजनीतिक एवं लष्करी ही नहीं, बल्कि धार्मिक धाक भी नहीं बचा था। ‘टॅबरनॅकल’ की स्थापना किया गया शिलोह यह ज्यूधर्मियों के लिए सर्वोच्च महत्त्व होनेवाला धार्मिक केंद्र था, जिसकी कम से कम साल में एक बार तो ज्यूधर्मीय भेंट करते ही थे। धीरे धीरे वहाँ जाने के लिए भी ज्यूधर्मीय टालमटोल करने लगे, कॅनानप्रांतियों के अनेकदेवतापूजनों में वे रममाण होने लगे, उनकी रूढ़ियों-परिपाटियों को वे अपनाने लगे;

और इस दौर में – यानी समर्थ केंद्रीय नेतृत्व न होने के दौर में – जब जब ज्यू समाज दिशाहीन या मार्गभ्रष्ट हो रहा है ऐसा प्रतीत होने लगा या फिर उनपर विदेशी आक्रमण हुए, तब तब ईश्‍वर की कृपा से, उन्हीं में से कोई एक वीर, पराक्रमी, ज्ञानी व्यक्ति (पुरुष या फिर कभी कभी कोई स्त्री भी) उन्हें पुनः मार्गदर्शन करने के लिए, उनका नेतृत्व करने के लिए उतने समय के लिए ही सही, लेकिन आगे आता रहा। इन मार्गदर्शकों को बाद के समय में ‘जज्ज’ (‘दंडनायक’) ऐसा कहा गया। इस कालखंड को ‘एरा ऑफ द जजेस’ (दंडनायकों का कालखंड) ऐसा कहा गया है।

इस तक़रीबन तीनसौ साल के कालखंड में ऐसे कुल मिलाकर १२ जजेस् हुए (कुछ जगहों पर १५ जजेस का उल्लेख पाया जाता है)। ओथनिल, एहुद, शामगार, डेबोरा (स्त्री), गिडिऑन, टोला, जैर, जेफ्था, इब्झान, एलॉन, अ‍ॅबडॉन और सॅमसन ऐसे इन जजेस् के नाम हैं।

ये सारे के सारे एक के बाद एक अखंडित रूप में आये ऐसा नहीं है। इनमें से कोई एक-दूसरे के रिश्तेदार भी नहीं थे। इनमें से किसीने ४० साल, किसी ने पूरे ८० साल, तो किसी ने महज़ १-२ साल ही ज्यूधर्मियों का, उस उस समय के संकटों में नेतृत्व किया। आम तौर पर कोई भी जज्ज ज्यूधर्मियों को तत्कालीन संकट में से बाहर निकालकर, जब उनकी गाड़ी पुनः पटरी पर ले आता था, तब कुछ साल अच्छे बीत जाते थे। फिर उस जज्ज की मृत्यु के कुछ साल बाद यह गाड़ी पुनः पटरी से फिसल जाती थी। फिर वह जब हद से गुज़रने की कगार पर आ जाती थी, तब ईश्‍वर की कृपा से पुनः नया कोई पराक्रमी व्यक्ति ज्यूधर्मियों का नेतृत्व करने के लिए आगे बढ़ता था।

अगले तक़रीबन तीनसौ सालों में आम तौर पर इसी घटनाक्रम की ही पुनरावृत्ति होती रही। इनमें से कुछ घटनाएँ ज्यूधर्मियों के अगले इतिहास को नया मोड़ देनेवालीं साबित हुईं।(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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