श्रीनगर भाग-५

बेजोड़ खूबसूरती की मिसाल रहनेवाले मुग़ल गार्डन्स को देखते देखते थक चुके पैरों को थोड़ा सा आराम अवश्य मिला होगा। तो आइए, अब आगे बढ़ते हैं, हमारे श्रीनगर के इस सफ़र में।

‘शालिमार’ और ‘निशात’ इन दो प्रमुख मुग़ल गार्डन्स को देखने के बाद अब इसी शृंखला के तीसरे बग़ीचे में चलते हैं।

यह बग़ीचा ‘चष्मशाही’ इस नाम से मशहूर है। दर असल यह एक प्राकृतिक झरने के आसपास बनाया गया बग़ीचा है। ‘चष्म’ का अर्थ है, पानी का झरना। लेकिन यह कोई मामूली झरना नहीं है। यह तो ‘शाही’ झरना है। चष्मशाही इस नाम के अनुसार ही इसका अपना एक अलग अंदाज़ होगा, यह तो आप समझ ही चुके होंगे।

इस बग़ीचे का निर्माण भी मुग़लों के शासनकाल में किया गया। १७वी सदी के पूर्वार्ध में इसका निर्माण किया गया। इस बग़ीचे में कुल ३ टेरेसेस् (स्तर) हैं। सबसे ऊपरी टेरेस से इस झरने को यानि कि ‘शाही चष्म’ को विशिष्ट मार्ग द्वारा पहली टेरेस तक लाया गया है। इसके आसपास विभिन्न प्रकार के पेड़पौधों तथा फुलवारियों को उगाया गया है। अन्य मुग़ल गार्डन्स की तरह फव्वारें, पुष्करणी ये सभी इस बग़ीचे के अविभाज्य घटक हैं। संक्षेप में, झरने का झरझर बहता जल, यह इस बग़ीचे की सुन्दरता की आत्मा है।

दर असल आप श्रीनगर शहर के किसी भी कोने से सामनेवाला नज़ारा देखिए, ऊपर आसमान की ओर देखिए, आसपास का नज़ारा देखिए, इस शहर की सुन्दरता आपको हर जगह दिखायी देगी। और ज़ाहिर है कि जिस शहर के नाम में ही ‘श्री’ यानि कि ऐश्‍वर्य है, उसे सुन्दरता का वरदान तो अवश्य प्राप्त हुआ होगा।

अब सुन्दरता की बात चली ही है तो एक खूबसूरत वस्तु का ज़िक्र करना ज़रूरी है। यह वस्तु भारत में अन्यत्र हमें दिखायी नहीं देती, वह केवल श्रीनगर से कुछ ही दूरी पर दिखायी देती है।

आपकी उत्सुकता को अब और न बढ़ाते हुए, आइए सीधे उसके खेत में ही चलते हैं।

‘केसर’! प्राचीन समय से मानवों को ज्ञात रहनेवाली एक सुगन्धित वस्तु। त्वचा को निखारनेवाले द्रव्यों में केसर को श्रेष्ठ माना जाता है। कस्तूरी या चंदन के साथ यह केसर भगवान के माथे का तिलक बन जाता है और श्रीखंड, रबड़ी जैसे पकवानों में से यही केसर चखनेवाले को तृप्ति प्रदान करता है। औषधि से लेकर आहार तक और नित्य उपयोग से लेकर नैमित्तिक (विशिष्ट) उपयोग तक इस्तेमाल किया जानेवाला यह केसर, श्रीनगर से चंद कुछ ही मील की दूरी पर स्थित खेतों में उगता है।

‘पम्पूर’ या ‘पम्पोर’ यह है श्रीनगर से कुछ ही दूरी पर बसा एक छोटा सा गाँव, जो मशहूर है, वहाँ के केसर की खेती के लिए। ‘पद्मपूर’ इस नाम से भी यह पम्पूर विख्यात है।

केसर का पौधा काफ़ी छोटा होता है। इस छोटे से पौधे के फूल रहते हैं, सुन्दर जामूनी रंग के। इन फूलों के केसरी रंग के केसर को सुखाकर उसका ही हम केसर के रूप में उपयोग करते हैं।

इस केसर में ‘शाही केसर’ (शाही जाफ़रान) और मोगरा केसर (मोगरा जाफ़रान) ऐसी दो श्रेणियाँ रहती हैं। केसर की फसल उगाने के लिए ज़मीन में उसके कंद बोये जाते हैं। केसर के कंद बोये जाने के बाद साधारणत: चार महिनों बाद उसके फूल खिलते हैं। इन फूलों के खिलने का मौसम है – अक्तूबर के मध्य से लेकर नवंबर की शुरुआत तक। इन खिले हुए फूलों को देखकर खुशी से दिल भर आता है। अक्तूबर की पूनम रात की चांदनी में इन्हें देखना यह तो एक अनोखा नज़ारा है।

कश्मीर की ज़मीन और आबोहवा केसर की उपज के किए अनुकूल रहने के कारण भारत में सिर्फ़ यहीं पर केसर की खेती की जाती है। कश्मीर में केसर से संबंधित कई लोकगीत प्रचलित हैं।

कश्मीर और केसर इनके बीच के इस अटूत रिश्ते के निर्माण की एक कथा कल्हण ने उसके ‘राजतरंगिणी’ इस ग्रन्थ में लिखी है। इस पद्मपूर यानि कि पम्पूर में एक वैद्य रहता था। इस प्रदेश के नागसमूह के निवासियों के राजा एक बार बीमार पड़ गये और इस वैद्य की दवा से राजा स्वस्थ हो गये। नागराजा ने उपहारस्वरूप में उस वैद्य को केसर का एक कंद दिया और यहीं से कश्मीर में, विशेषत: पम्पूर में केसर की खेती शुरू हो गयी।

कुछ समय तक तो केसर की उपज अच्छी तरह होती रही, लेकिन आगे चलकर इसमें लोगों की रुचि कम हो गयी। तब कश्मीर के शासकों ने केसर के अनन्यसाधारण महत्त्व को ध्यान में रखकर केसर की खेती करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया। आज भी केसर के लिए पम्पूर मशहूर है।

केसर की इस जानकारी को प्राप्त करने के बाद हम यक़ीनन यह कह सकते हैं कि ईश्‍वर ने कश्मीर को ज़मीन से लेकर आबोहवा तक सभी पहलुओं से बेमिसाल सुन्दरता ही प्रदान की है।

इस सुन्दरता के कारण ही आज सिर्फ़ श्रीनगर ही नहीं, बल्कि संपूर्ण कश्मीर में ही पर्यटन यह एक प्रमुख व्यवसाय बन चुका है और साथ ही हज़ारों की रोज़ी रोटी का साधन भी। ८० के दशक के बाद के यहाँ के हालातों के बारे में तो सभी जानते ही हैं। इन हालातों से कश्मीर के नंदनवन का पर्यटन व्यवसाय का़ङ्गी बुरी तरह प्रभावित हुआ। लेकिन आज फिर पर्यटकों का इस नंदनवन में आना शुरू हो चुका है और यह यक़ीनन एक बेहतर और आशाजनक बात है।

पर्यटन व्यवसाय के साथ साथ यहाँ की हस्तकला – कारीग़री भी काफ़ी मशहूर है। कड़ाके की ठंड का मुक़ाबला करनेवाले यहाँ के निवासी मेहनती हैं। शालें बुनना, ग़ालीचें (कालीन) बनाना, लकड़ी को कुरीदकर आकर्षक वस्तुओं का निर्माण करना, कागज़ की लुगदी से विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाना, बाँस से कईं प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करना और बेलबूट का काम ये व्यवसाय भी यहाँ के निवासी करते हैं।
कश्मीर जाकर बिना शाल खरीदे कोई सैलानी लौट आये, ऐसा तो शायद ही कभी होता होगा। कश्मीर की शाल तो दुनिया भर में मशहूर है। ऊनी, पश्मिना और शहतूत इन तीन प्रकार की शालों का निर्माण यहाँ पर किया जाता है। कश्मीर की शाल मशहूर है, यहाँ उनपर किये जानेवाले बेलबूट के काम से।

पश्मिना शाल पर भी बेलबूट का काम किया जाता है। कश्मीर में पायी जानेवाली ‘रफेल’ नाम की ऊन सबसे उत्तम दर्जे की मानी जाती है। पश्मिना शाल यह कश्मीर की एक अनन्यसाधारण विशेषता मानी जाती है; वहीं शहतूत शाल यह ‘रिंग शाल’ इस नाम से भी मशहूर थी। इसका कारण यह था कि पूरी की पूरी शहतूत शाल को रिंग यानि कि अंगूठी में से बड़ी आसानी से निकाला जा सकता था, इतनी वह महीन रहती थी। क़ीमत की दृष्टि से सोचा जाये तो शहतूत शाल सबसे महंगी, उससे सस्ती पश्मिना और सबसे सस्ती ऊनी शाल है। आजकल केवल पश्मिना और ऊनी शाल ही आम तौर पर बनती हैं।

कश्मीर की शाल पर किये जानेवाले बेलबूट के काम की ख़ासियत यह है कि यह काम दोनों ओर से एकसमान दिखायी देता है अर्थात् उलटी-सीधी बाजुओं के बीच का फ़र्क़ ही नज़र नहीं आता। शाल के इस प्रकार को ‘जामावार’ कहा जाता है।

ग़ालीचें यानि कि कार्पेट्स् (कालीन) बुनना यह भी यहाँ के निवासियों का एक प्रमुख व्यवसाय है। कश्मीर के रेशमी गालीचें उनपर की गयी कारीगरी के साथ साथ टिकाऊपन के लिए भी मशहूर हैं। पर्शिया से यह कला कश्मीर में आयी ऐसा कहा जाता है। ग़ालीचा बुनना यह काफ़ी मेहनत का काम है। लेकिन इस मेहनत के कारण ही उस ग़ालीचे की सुन्दरता और साथ ही आयु भी बढ़ती है।

लकड़ी को कुरचकर उसपर ऩ़क़्क़ाशीकाम करना यह भी यहाँ का एक प्रमुख व्यवसाय है। कश्मीर में आप कहीं भी जाइए, इस तरह की आकर्षक वस्तुएँ, फर्निचर से लेकर फोटोफ्रेम्स तक की कई प्रकार की वस्तुएँ आपको दिखायी देती हैं। कारीगरी के लिए ‘वॉलनट’ की लकड़ी को उपयोग में लाया जाता है। मुख्य रूप से वॉलनट की जड़ों का इस्तेमाल किया जाता है; क्योंकि पेड़ के अन्य हिस्सों की अपेक्षा उसकी जड़ों का रंग काफ़ी गहरा होता है और कारीगरी काम करने की दृष्टि से यह हिस्सा सर्वोत्तम रहता है। लकड़ी पर किया जानेवाला यह ऩक़्क़ाशीकाम साधारणत: फूल, पत्ते, लताएँ इनकी आकृतियाँ बनाकर किया जाता है।

कशिदाकारी (बेलबूट का काम) यह कश्मीर के समाजजीवन का एक अविभाज्य अंग है। कश्मीरी कशिदाकारी की अपनी एक ख़ास पहचान है। शाल से लेकर रोजमर्रा के कपड़ों तक की वस्तुओं पर यह कशिदाकारी की जाती है। कश्मीर की प्राकृतिक सुन्दरता की झलक हमें इस कशिदाकारी में दिखायी देती है। इस कशिदाकारी की एक और ख़ासियत यह है कि इस काम में केवल एक या दो ही प्रमुख रंगों का तथा उनकी छटाओं का इस्तेमाल किया जाता है।

श्रीनगर बाँस से बनायी जानेवाले वस्तुओं के लिए भी मशहूर है। यहाँ के निवासी उनके घर में भी लचीले बाँस से बनी वस्तुओं का उपयोग करते हैं। कुर्सियों से लेकर बास्केट्स् तक कईं वस्तुएँ बाँस से बनायी जाती हैं।

पर्यावरण को सुरक्षित रखने का एक प्रमुख मार्ग है, पेड़कटाई को रोकना। कश्मीर की कला ने पुराने समय से ही पर्यावरण की सुरक्षा पर ध्यान दिया है, कागज़ की लुगदी से विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करके। इस वस्तुओं को काले रंग में रंगकर फिर उनपर अलग अलग तरह की ऩक़्क़ाशियाँ बनायी जाती हैं। इनमें सुनहरे रंग का उपयोग प्राय: प्रमुख रूप में किया जाता है।

ऐसे हुनर को जतन करनेवाले कश्मीर के इन परिश्रमी निवासियों के लोकजीवन के बारे में जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। लेकिन उसके लिए हमें अगले ह़फ़्ते तक रुकना पड़ेगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published.