श्रीनगर भाग-६

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श्रीनगर की पहाड़ियों की चोटियों पर जब सूरज की सुनहरी किरनें खेलने लग जाती हैं, तब धीरे धीरे श्रीनगर पुन: अपनी दैनिक गतिविधियाँ शुरू करता है।

हमारे भारतवर्ष के हर एक प्रान्त की अपनी एक अलग पहचान है और श्रीनगर भी इससे अछूता नहीं है। प्रत्येक प्रान्त की भौगोलिक स्थिति के अनुसार वहाँ के लोगों की रहनसहन में फ़र्क़ रहता है। साथ ही इतिहास का बहुत बड़ा प्रभाव वहाँ के रीतिरिवाज़ों पर रहता है।

कश्मीर और श्रीनगर कहते ही मन की आँखों के सामने दिखायी देते है, ऊनी कपड़े पहननेवाले कश्मीरी नागरिक। ये ऊनी कपड़े इन श्रीनगरवासीयों के जीवन का एक अविभाज्य अंग है; क्योंकि कड़ाके की ठंड के बाद आनेवाला गर्मियों का मौसम भी सुखद शीतल ही रहता है।

कश्मीर को प्राप्त हो चुका सुन्दरता का वरदहस्त यहाँ के नागरिकों के चेहरे पर भी सा़फ दिखायी देता है। साधारणत: कश्मीर के निवासी यह कहने पर हमारी मनश्‍चक्षुओं के सामने गोरे रंग के, सुन्दर चेहरे और आँखों के लोग आ जाते हैं और गोरे गोरे गालों तथा सेब की तरह लाल लाल होठों वाले बच्चों को भला हम कैसे भूल सकते हैं!

दुनिया के किसी भी समाज की पोशाक़ साधारण रूप से परंपरा के अनुरूप रहती हैं और समय के साथ साथ उसमें थोड़ा बहुत बदलाव भी होते रहता है।

यहाँ के पुरुषों की पोशाक़ है, ‘फ़िरन’। महिलाएँ भी इसे पहनती हैं। ‘फ़िरन’ यह एक ऐसा ऊनी वस्त्रप्रकार है, जिससे ठंड से शरीर का बचाव होता है। यहाँ की महिलाएँ साधारणत: सलवार-क़मीज़ पहनती हैं। वे माथे पर एक रुमाल विशिष्ट पद्धति से बाँधती हैं। हिंदूधर्मीय महिलाएँ जो रुमाल बाँधती हैं, उसे ‘तरंगा’ कहा जाता हैं; वहीं मुस्लिमधर्मीय महिलाएँ जो रुमाल बाँधती हैं, उसे ‘कसबा’ कहा जाता हैं। हिंदूधर्मीय पुरुष माथे पर फ़ेटा पहनते हैं; वहीं मुस्लिमधर्मीय पुरुष गोलाकार टोपी पहनते हैं। वस्त्रप्रकार चाहे जो भी हो, उसपर कुछ न कुछ कशिदाकारी की हुई रहती है।

प्राचीन समय से गहनें और महिलाएँ इनके बीच एक अटूट रिश्ता बना हुआ है। हडप्पा-मोहंजोदडो के उत्खनन में भी महिलाओं के विभिन्न गहने पाये गये हैं। कश्मीर की महिलाएँ भी सोने-चांदी के विभिन्न गहनें पहनती हैं और उनके अलग अलग नाम भी हैं।

वस्त्रों के साथ साथ सर्दियों के मौसम में यहाँ के निवासी एक छोटी सी अँगीठी को फ़िरन के भीतर रखते हैं। बेंत की टोकरी में इसे रखते हैं और उसमें कोयले जलाकर रखे जाते हैं। इस अँगीठी को ‘कांगरी’ कहा जाता है। कड़ाके की ठंड में यह कांगरी कितने काम आती होगी, यह तो आप समझ सकते हैं।

कांगरी की तरह कश्मीर की एक और ख़ासियत है- ‘काहवा’। काहवा यानि कि कश्मीरी चाय। लेकिन जिसे हम रोज़ पीते हैं, उससे यह चाय कुछ अलग होती है।

अब चाय की बात चली ही है तो कश्मीर के खानपान के बारे में भी थोड़ी बहुत जानकारी प्राप्त करते हैं। प्रत्येक प्रान्त का खानपान वहाँ की जलवायु पर निर्भर रहता है। श्रीनगर की इस भूमि में जल की विपुलता है। सर्दियों के मौसम को छोड़कर बाक़ी समय में यहाँ पर विभिन्न प्रकार की फसल ली जाती है। चावल और सामिष भोजन के अलावा यहाँ पर उगनेवाली सब्ज़ियाँ भी यहाँ के निवासी खाते हैं। इन सब्ज़ियों में कमल के कंद की सब्ज़ी और कडम (करम) नाम की हरी सब्ज़ी ख़ास मानी जाती हैं।

सेब यह कश्मीर का प्रमुख फ़ल है। स्कूल के ज़माने से, ‘सेब कहाँ के?’ तो ‘कश्मीर के’, इस सवाल-जवाब को तो आप सब ने पढ़ा ही होगा। ‘अखरोट’ यह यहाँ का अन्य प्रमुख उत्पाद है। इसी अखरोट की लकड़ी को कुरेदकर सुन्दर वस्तुएँ भी बनायी जाती हैं। अखरोट, सेब के साथ साथ बादाम, पिस्ता, ज़रदालू इनकी भी ङ्गसल यहाँ पर होती है।

बेमिसाल खूबसूरती का वरदान प्राप्त इस कश्मीर की भूमि में ज्ञान के कमल भी विकसित हुए। प्राचीन समय में कश्मीर यह ज्ञानदान का एक केंद्र था। यहाँ पर कला और संस्कृति का उत्कर्ष हुआ। कल्हण जैसे विद्वान ने अपनी क़लम से उस समय के कश्मीर से दुनिया को परिचित कराया। यहाँ के कई शासकों के शासनकाल में प्रार्थनास्थल, बग़ीचें इनका निर्माण किया गया, जो आज भी सुन्दरता की मिसाल माने जाते हैं।

कश्मीर में बोली जाती है, ‘कश्मीरी’ भाषा। इसे स्थानीय ‘काशुर’ भी कहते हैं। कश्मीरी भाषा के साथ साथ यहाँ पर ‘डोग्री’ और ‘पहाड़ी’ भाषाएँ भी बोली जाती हैं। विशेषत: जम्मू और उसके आसपास के इलाक़ों में ‘डोग्री’ बोली जाती है; वहीं पहाड़ी इलाक़ों में ‘पहाडी’ बोली जाती है। भाषा तो हर बारह मैलों पर बदलती है ऐसा कहा जाता है। इसके अनुसार कश्मीर में अन्य बोलियाँ भी प्रचलित हैं।

कल्हण के समय में ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखे जाते थे। आगे चलकर कश्मीरी भाषा में भी साहित्य का निर्माण होता रहा। साधारणत: १४वी सदी तक कश्मीरी भाषा ‘शारदा’ नामक लिपि में लिखी जाती थी; लेकिन आगे चलकर मुग़ल हुकूमत के साथ साथ उनकी लिपि का स्वीकार किया गया।

प्रारंभिक काल में दर्शनशास्त्र और धार्मिक साहित्य इनका कश्मीर में निर्माण हुआ। आगे चलकर इतिहास और पुराणों के साथ साथ उस समय के वर्तमानकाल को साहित्य द्वारा चित्रित किया गया। साथ ही विभिन्न प्रकार के गीतों की रचना की गयी। यह गीतरचना कश्मीरी साहित्य का एक अविभाज्य अंग है।

‘संतूर’ जैसे वाद्य पर या उसके साथ आज भी कई कश्मीरी गीतों के बोल छेड़े जाते हैं। ‘संतूर’ यह तंतुवाद्य कश्मीर की विशेषता भी मानी जाती है। इसके सुरों की मधुरता मन को मोह लेती है।

कश्मीर के संगीत के जितना ही यहाँ का नृत्य भी सुन्दर है। भांड पाथेर/भांड, चक्री, रौफ़ आदि नृत्यप्रकार कश्मीर में प्रचलित हैं। ये अधिकतर लोकनृत्य ही हैं।

‘भांड’ अथवा ‘भांड पाथेर’ इस नाम से जाना जानेवाला नृत्यप्रकार कुशल कलाकारों द्वारा पेश किया जाता है। यह किसानों का ख़ास नृत्य है और खेती के मौसम को छोड़कर अन्य दिनों में ये कलाकार अपनी कला जगह जगह पेश करते हैं। १०-१५ कलाकारों का दल इस भांड नृत्य को प्रस्तुत करता है। इसमें संगीत, नृत्य और नाट्य इन तीनों का समावेश रहता है।

लोककला मनोरंजन के साथ साथ जनजागृति का भी महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। कहा जाता है कि १९४७ में जब कश्मीर पर विदेशी हमला हुआ, तब यहाँ के कलाकारों ने एकसाथ मिलकर कश्मीर की जनता में इस विदेशी हमले का डँटकर मुक़ाबला करने का जोश उत्पन्न किया।

‘रौफ़’ यह नृत्यप्रकार महिलाएँ शादी या त्योहार के समय प्रस्तुत करती हैं। कश्मीरी संगीत पर सू़फ़ी संगीत का का़फ़ी प्रभाव है। कश्मीरी संगीत में संतूर के साथ साथ तबला, वजूल, कश्मिरी साज़ और सितार इन वाद्यों को भी बजाया जाता है।

लोकगीत यह कश्मीर के लोकजीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। केसर के खेत में केसर के फ़ूल तोड़ने से लेकर दल लेक में शिकारा चलाने तक इन गीतों को गाया जाता है। केसर और चिनार ये कश्मीर के दो प्रमुख सौंदर्यस्थल हैं; इसीलिए अधिकतर गीतों में केसर और चिनार का वर्णन अवश्य किया गया है। साथ ही झेलम नदी से भी इन लोकगीतकारों को का़फ़ी लगाव है।

लोकगीतों के साथ साथ लोककथाओं का भी कश्मीर में खज़ाना है। यहाँ के निवासी इन कथाओं को बड़ी सुन्दरता से प्रस्तुत करते हैं। इन लोककलाओं के साथ साथ कश्मीरी रंगभूमि का भी विकास हुआ है।

कश्मीर में रहनेवाली जल की विपुलता के कारण यहाँ पर साधारणत: लकड़ी से ही घर बनाये जाते हैं। कईं महत्त्वपूर्ण वास्तुओं का निर्माण भी लकड़ी से ही किया गया है; क्योंकि यहाँ की आबोहवा की दृष्टि से लकड़ी का उपयोग करना सुविधाजनक है। समय के साथ वास्तुनिर्माण में कुछ बदलाव अवश्य आये हैं; लेकिन दल लेक की हाऊसबोट्स् और शिकारें आज भी लकड़ी से ही बनते हैं।

कश्मीरी लोकजीवन से परिचित होने के बाद हमें यह महसूस होता है कि यह लोकजीवन सुन्दरता और सादगी इनका अनोखा मिलाप है।

दल की हाऊसबोट्स् जब ढलती हुई शाम को जल को रोशनी से भर देती हैं, तब दूर से सुनायी देनेवाले संतूर के सुर इस स्वर्गीय सुन्दरता को पल भर में ही स्वर्गीय आनंद में परिवर्तित कर देते हैं।

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