गंध संवेदना

nose_cross section Dehgrmaगंध का ज्ञान हमारी मूल अनुभूतियों में से एक है। हमारी नाक के कारण हमें विभिन्न प्रकार की गंधों का ज्ञान होता हैं। विभिन्न प्रकार के गंध – कुछ मन को उन्मन करनेवाले – मन को लुभालेनेवाले – कुछ चाहे- कुछ अनचाहे। मन को प्रसन्न करने वाले अनेक सुगंध – कुछ मंद मधुर मोगरे के जैसे, तो कुछ तीव्र मधुर – चंपा की तरह। हमारे दैनिक जीवन में ऐसे विभिन्न गंधो की धुंद रहती हैं। अन्य प्राणियों की अपेक्षा मानवों की गंध संवेदना काफी कम होती है। वातावरण में उपस्थित अनेक प्रकार के गंध जिनका हमें अहसास तक नहीं होता वे इन प्राणियों को तुरंत पता चल जाती है। प्राणियों में गंध की अनुभूति के तीन प्रमुख उपयोग हैं –

१)गंध के आधार पर वो अपना भोजन ढूँढ़ सकते हैं।
२)गंध के आधार पर उन्हें पता चल जाता हैं कि उनके आस पास कोई अन्य प्राणी हैं। सिर्फ इतना ही नहीं ब्लकि उन्हें यहाँ तक भी चल जाता हैं कि उनके आस पास का प्राणी उनका मित्र प्राणी है या शत्रु प्राणी और वह उससे कितनी दूरी पर है इसका भी अंदाजा उन्हें हो जाता है। उदा.- जंगल में हिरनों को गंध के आधार पर यह पता चल जाता है कि उनके नज़दीक सिंह अथवा बाघ है।
३)गंध के आधार पर नर प्राणी अपनी मादा को सही-सही पहचान सकता है। तथा उसी गंध के कारण उनमें कामवासना भी उत्तेजित होती है। इसका उपयोग उनके जीवन चक्र को बरकरार रखने के लिये होता है।

अब हम देखेंगे कि मानवों में गंध की अनुभूति किस तरह उपयोगी साबित होती है। विविध प्रकार के पदार्थों की गंध के आधार पर हम यह तय कर सकते हैं कि वो पदार्थ हमारे लिये फायदेमंद या नुकसानकारक है। अन्न पदार्थ की गंध मात्र के आधार पर हम यह जान सकते हैं कि वह पदार्थ खाने लायक है या नहीं। उसी प्रकार किसी पदार्थ को खाने के बाद, यदि हमें अच्छा नहीं लगे तो बाद में कभी भी उक्त पदार्थ की पहचान खाने से पहले हम उसकी गंध मात्र से कर सकते हैं। मानवों में भी गंध और कामवासना का अनन्य संबंध हैं। फिर भी मानवो की गंध संवेदन में एक बड़ी कमी है। मानवो की गंध संवेदना काफी व्यक्तिगत (subjective) है। मुझे यदि कोई भी गंध अच्छी लगी, पसंद आयी तो वह दूसरों को भी उतनी ही पसंद आयेंगी ऐसा नहीं होता। कदाचित दूसरों को वह बिल्कुल भी पसंद ना आये।

अब हम यह देखेंगे कि हमारी नाक एवं हमारे मस्तिष्क के द्वारा हमें गंध की अनुभूति किस प्रकार होती हैं।

हमारी नाक को बीच में भी एक परदा होता है। फलस्वरुप नाक का अंदसनी हिस्सा दो भागों में बट जाता है। इन्हे हम हमारी नाक के दो नथुनें कहते हैं। नाक का पिछला हिस्सा गर्दन से जुड़ा होता है। गंध संवेदना देनेवाली नाक की झिल्ली (olfactory membrane) दोनों नथुनों के उपरी हिस्से में होती है। यह झिल्ली मध्यभाग में नाक के बीच के परदे पर कुछ मात्रा में उतरती है। तथा बाहर की ओर भी थोड़ा उतरता है। इस झिल्ली का प्रत्येक नथुने में क्षेत्रफल अंदाजम २.५ चौ.से.मी. होता है। इस झिल्ली की गंध पेशी (olfactory cells) के कारण प्रत्येक नथुने में करोडों गंध पेशियां होती हैं। इन पेशियों के आवरण पर अतिसूक्ष्म केशिकायें (cilling) होती है। प्रत्येक पेशी पर लगभग ४ से २५ केशीकायें होती हैं। गंध पेशी से एक प्रकार का चिपचिपा द्रव  (Mucous) स्त्रवित होता है। यह द्रव इस इन केशिकाओं के चारों ओर फैला रहता हैं। गंधयुक्त कोई भी पदार्थ का गंध जब नाक में घुसती हैं तो सर्वप्रथम इस युव में मिलकर केशिकाओं को उत्तेजित करता हैं। स्वाद की तरह गंध भी एक रासायनिक संवेदना है। इन गंध युक्त पदार्थ के अणुओं के कारण केशिकाओं एवं गंधपेशियों के कुछ अणु उत्तेजित होते है। मात्र कुछ सेकड़ों में ही यह उत्तेजना गंधपेशियों में अनेक गुना बढ़ जाती हैतथा वहाँ से चेतना तंतुओं के माध्यम से मस्तिष्क तक पहुँचा दी जाती है। फलस्वरूप बिल्कुल हल्की गंध की भी अनुभूति हमें हो जाती है।

किसी भी पदार्थ की गंध को जानने के लिये उसके रासायनिक गुणधर्मो के साथ-साथ कुछ भौतिक गुणधर्म भी महत्त्वपूर्ण होते है। इस पदार्थ का नाक में वायुस्वरूप में ही प्रवेश होता है। दूसरी बात यह है कि इस पदार्थ का भले ही थोडी मात्रा में ही क्यों न हो, पानी में धुलनशील होना आवश्यक होता है। ऐसा होने पर ही यह केशीका के चारों ओर फैले द्रव को माध्यम से केशिकाओं तक पहुँच सकता है। तीसरा गुणधर्म यह है कि इस पदार्थ का थोडी मात्रा में स्निग्ध द्रवण में घुलनशील होना आवश्यक होता है। (liqid soluble)। क्योंकि यदि ऐसा नहीं होगा तो केशिकाओं का आचरण ऐसे पदार्थ का ग्रहण नहीं करता, नकार देता है तथा उसके गंध की अनुभूति हमें नहीं हो पाती।

नाक की गंध पेशियां मूलरुप से चेतना पेशी ही होती हैं। यह से यह गंध संवेदना मष्तिष्क में जाती है। मष्तिष्क में गंधसंवेदना का स्थान हैपोथॅलमॅस के पास होता है। इसके तीन भाग होते हैं। मध्यभाग पूर्णत: मूल अथवा आदिम गंध से संवेदना से जुड़ा होता है। तथा बगल के दोनों भाग किसी गंध की पसंद नापसंद से जुड़ा होता है।

जिस तरह तीन मूल रंग, चार मूल स्वाद, उसी तरह मूल गंध कितनी है? इसका जबाब है, कुछ कह नहीं सकते। हमारा मष्तिष्क अक्षरश: हजारो विभिन्न प्रकार के गंधों को पहचान सकता है। प्रत्येक गंध अलग होती है- मिश्रण नहीं होता। गंध के बरे में एक अन्य चीज की अनुभूति हम हमेशा करते रहते हैं। यह चीज हैं गंध का आदि होना। कोई भी गंध युक्त वातावरण में प्रवेश करते ही एक ही मिनट में हम उस गंध के आदी होने लगते हैं। उस गंध की अनुभूति धीरे-धीरे कम होती रहती है। यह थी गंध की दुनिया।

(क्रमश……..)

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