अस्थिसंस्था भाग – १७

skeletonपिछले लेख में हमने पेलविस एवं कंधों के गर्डल (पेक्टोरल) की जानकारी ली। ये दोनों गर्डल्स और उनसे संबंधित हाथ एवं पैर की अस्थियों व उनके सांधों में समानता व अंतर अब हम देखेंगें।

मुक्त हलचल कर सकने वाले अवयवों से यानी हाथों व पैरों से भी ये गर्डल्स जुड़ी होती है। यह सांधा फिर चाहे वह कमर का हो अथवा कंधे का – ऊखळी (बॉल अ‍ॅण्ड सॉकेट टाईप) सांधा हो। इन सांधों के कारण हाथ के और पैरों की गति मुक्त रुप से होती है। विविध दिशाओं में होती हैं परन्तु हाथों की अपेक्षा पैरों की हलचल कम होती है अथवा उनपर थोड़ा बंधन होता है। गर्डल्स के बारे में जानकारी लेते समय हमने देखा था कि कंधों की स्कॅप्युला हड्डी पीछे की ओर खुली होती है। जिसके कारण इन की हलचल (गति) में ज्यादा स्वतंत्रता रहती है। वहीं पेलविस में सॅक़रम से जुड़े होने के कारण इस हड्डी की स्वतंत्र गति पर बंधन आ जाता है। उत्क्रांती के दौरान ऐसा क्यों हुआ? इसका कारण यह है कि द्विपाद प्राणि (मानव) चलने के लिये-दौड़ने के लिये तथा खड़े रहने के लिये, सिर्फ  पैरों का इस्तेमाल करने लगे। हाथों का इस्तेमाल अन्य कार्यों के लिये होने लगा। शरीर का भार उठाने से हाथों की मुक्तता होने से – मानव हाथों की सहायता से अनेकों काम, अनेक कलायें सीख सका। पकड़ना (ग्रास्प)हाथों की प्रमुख विशेषता बन गयी। इसके लिये आवश्यक, हाथों की अंगुलियाँ लम्बी हो गयी। पैरों का उपयोग भार उठाने व चलने के लिये प्रमुखता से होने लगा। उसके लिये आवश्यक बदलाव पैरों में हो गये। कमर व पैरों की हड्डियां हाथों की हड्डियों की अपेक्षा मोटी व मजबूत बन गयी। पैरों के स्नायु हाथों के स्नायुओं की अपेक्षा ताकतवर बन गये। इस सबके लिये आवश्यक बदलाव हाथों के व पैरों के सांधों में भी हो गये।

हमारे दंड व हमारी जाँघ दोनों में एक ही हड्डी होती है। दंड की हड्डी को ह्युमरस तथा जाँघ की हड्डी को फीमर कहते हैं। दंड से लेकर कलाई तक के हाथ में तथा मुड़से लेकर एड़ी तक पैरों में समांतर दो हड्डियां होती हैं।

हाथों की हड्डियां हैं – रेडिअस व अल्ना
पैरों की हड्डियां हैं – टिबिया व फिब्युला

दंड व हाथ में कोहनी का सांधा व जाँघ और पैर में गुड़दे का सांधा – ये दोनों विजागरी(हिज) के सांधे हैं। गुड़दे के सांधे में सिर्फ  टिबिया ही सहभागी होती है। कोहनी के सांधे में रेडिअस् व अल्ना दोनों सहभागी होते हैं। परन्तु अल्ना का सहभाग ज्यादा होता है। गुड़दे में हम सिर्फ  दो प्रकार की गति कर सकते हैं। मोड़ना (फ्लेक्शन) व सीधा करना (एक्स्टेन्शन), कोहनी के जोड़ में इन दो गतियों के अलावा रोटेशन की गति भी संभव होती हैं। इस में रेडिअस नामक हड्डी अल्ना के ऊपर घूमती है। फलस्वरूप हम अपना पंजा विभिन्न दिशाओं में घुमा सकते हैं। हमारा पंजा जब शरीर के सामने की दिशा में होता है तब उसे सुपाइन स्थिती कहते हैं। पंजा जब पीठ की ओर मुड़ता है तो उसे प्रोन स्थिती कहते हैं। पंज के सामने की दिशा से पीछे की ओर घूमने को प्रोनेशन तथा इसके विपरीत यानी पंजे को पूर्वस्थिती में लाने की क्रिया को पूर्वस्थिती में लाने की क्रिया को सुपायनेशन कहते हैं। इस क्रिया का हमारे जीवन में महत्त्व तुरंत ध्यान में आता हैं। अन्न का कौर हाथ से मुँह की ओर ले जाते स्मय ये दोनों क्रिया ये बारी-बारी से करना पड़ता है। उसी तरह लिखने की क्रिया में भी पेजा प्रोन स्थिती में लाना पड़ता हैं।

कलाई व एड़ी के सांधे भी विजागरी सांधे हैं परन्तु कलाई में अ‍ॅबडक्शन व अ‍ॅडक्शन (पंजे को अंदर व बाहर घुमाना) संभव होता है। एड़ी में ऐसी गति नहीं की जा सकती। कलाई की  हड्डियों को कार्पल अस्थि तथा एड़ी की हड्डी को टारसल अस्थि कहते हैं। ये प्रत्येक आठ अस्थियां होती है। ये अस्थियां दो कतारों में बंटी होती है। हाथ व पैर के नज़दीक पहली कतार में पाँच अस्थियां होती हैं। कलाई व एड़ी के सांधों में तीन महत्त्वपूर्ण फर्क  हैं –

१ )कलाई में पहली कतार की तीनों अस्थियां सांधे में सहभागी होती है तथा एड़ी की टॅळस मात्र की एक ही हड्डी सांधे में सहभागी होती है।

२)एड़ी की कलकेनियस अस्थि पाँवों के दोनों हड्डियों के पीछे की ओर आती है। इसका ङ्गायदा एड़ी की हलचल को होता है क्योंकि पीछे की बाजू यांत्रिक तरङ्गा की तरह काम करती हैं। कलाई में ऐसा कुछ नहीं होता।

३)एड़ी को हड्डियों में विविध प्रकार की हलचल संभव होती है जिसके कारण ऊबडखाबड़ भूमि पर भी चलना संभव होता है।

इससे हम यह समझ सकते हैं कि कलाई की तुलन में एड़ी की हड्डियां व जोड़ ज्यादा विकसित हैं। हाथ के पंजे के व पैर के ततुरे की हड्डियों को क्रमश: मेटाकारपल व मेटाटारसल कहते हैं। इन हड्डियों को लम्बाई अलग-अलग होती है। यहाँ पर प्रत्येक में पाँच-पाँच हड्डियां होती हैं। अंगूठे से लेकर छोटी ऊंगली (छगुनियां) तक को यदि एक से पाँच-पाँच हड्डियां होती हैं। अंगूठे से लेकर छोटी अंगली तक को यदि एक से पाँच का क्रमांक दें तो इनकी लम्बाई इस प्रकार होती हैं – हाथों में २ ३  ४ ५ १ का क्रम तथा पैरों  में १ २ ३ ४ ५ का क्रम होता है। इसका अर्थ यह है कि हाथ के पंजे की दूसरे नंबर की हड्डी तीसरी की तुलना में, तीसरी चौथी की तुलना में, चौथी पाँचवी की अपेक्षा तथा पांचवी पहली की अपेक्षा लंबी होती है। अर्थात एक नंबर की हड्डी सबसे छोटी तथा दो नंबर की हड्डी सबसे लम्बी होती है। पैर के तलुयें की एक नंबर की हड्डी सबसे लम्बी तथा पाँच नंबर की हड्डी सबसे छोटी होती हैं।

हमारे हाथों और पैरों में पाँच-पाँच उंगलिया होती हैं। दोनो में अंगूठा अन्य उंगलियों की अपेक्षा दूर होता है। सभी अंगुलियों में चार क्रियाये समान होती है। मुड़ना, सीधा करना, अंदर व बाहर की ओर घूमना। परन्तु मानवों के हाथ का अंगूठा वैशिष्ट्यपूर्ण होता है। उपरोक्त चारों क्रियाओं के अलावा हमारा हाथ का अंगूठा शेष चारों उंगलियों तक जा सकता है। इसे अंग्रेजी में अ‍ॅपोझिशन कहते हैं। इसके कारण किसी भी वस्तु को मजबूरी से पकड़ना सुलभ व संभव हो जाता है। पाँचों उंगलियों का इस्तेमाल करके हम सुरक्षा के लिये अथवा पेड़ पर चढ़ने के लिये, किसी वस्तु को उठाने के लिये, पकड़ सकते हैं। अंगूठा व एक उंगली से पकड़कर हम अन्य काम कर सकते हैं। वे हैं हाथ में पेन, पेन्सिल, रंग का ब्रश इत्यादि पकड़ना।

इससे हम यह समझ सकते हैं कि मानव के हाथ व पैर वैशिष्ट्यपूर्ण व शरीर को गतिशील क्रियाओं के लिये योग्य पैरों की रचना हैं। क्रियाओं के अलावा अन्य  अनेक चीजें आत्मसात करने योग्य हाथों की रचना हैं।

दृष्टि, विविध स्पर्शज्ञान, पूर्ण विकसित मष्तिष्क व हाथ का एक दूसरे से होनेवाले संयोग से मानव ने आज अनेक व्यलायें, अनेको कार्य आत्मसात किया है। आजू-बाजू की स्थिती पर नियंत्रण रखा है। इन सब का उपयोग हम अच्छे व बुरे दोनों चीजों के लिये करते हैं। परमेश्‍वर ने हमें यह अच्छे कार्यों के लिये दिया है। परमेश्‍वर अर्थात सत्य, प्रेम, आनंद। हमारी जिन-जिन क्रियाओं से ये तीनों अथवा इनमें से एक चीज का निर्मांण होता है वहीं अच्छा कार्य है। हम सबको यह ध्येय रखना चाहिए कि हमारे हाथों से उचित कार्य ही हो । किसी को थप्पड मारने और पीठ थपथपाने में काफी अंतर है।

मानवों की यह अस्थि रचना क्या प्राणियों के विकास का सर्वोच्च बिंदू है? क्या यह विकास का अंत है? शायद नहीं। इसके बाद भी विकास होता ही रहेगा!

(क्रमश:)

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