अस्थिसंस्था भाग – ११

Untitledमानवी शरीर में रहनेवाले अस्थियों के पिंजरे की शास्त्रीय जानकारी हम लें रहे हैं। पिंजरे के प्रमुख दो भाग होते हैं, यह हमने जान लिया। शरीर के बीचों बीच स्थित आक्सिजल पिंजरा व उससे जुड़ा हुआ अ‍ॅपेन्डीक्युलर पिंजरा। आजतक हमने ऑक्सिअल पिंजरे की जानकारी प्राप्त की। सिर, रीढ़ की कशेरुकाएँ और छाती का पिंजरा मिलकर आक्सिअल अथवा मध्य पिंजरा बनता है। वही अपेन्डीक्युलर अथवा जोड़ पिंजरा मुख्यत: दो हाथ, दो पैर व कमर, कंधों को मिलकर बनता है। इसके आगे हमें अपने हाथ व पैर की विविध अस्थियों व विभिन्न जोड़ों के बारे में जानकारी प्राप्त करनी है। परन्तु उसके पहले हम अस्थि संस्था से संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण चीजों के बारे में जानकारी लेता है जिससे पिंजरे के बारे में पिंजरे के बारे में समझना आसान हो जायेगा।

अस्थिसंस्था के बारे में जानकारी प्राप्त करते समय हमने देखा है की हमारी अस्थि पेशीयां, संघिनी पेशी है। इन्हें सुधारित संघिनी पेशी कहते है। हमारे पिंजरे का एक दूसरा महत्त्वपूर्ण पेशी अर्थात कुर्चा यांनी कार्टिलेज। यह पेशियां भी सुधारित संघिनी पेशी है। परन्तु अस्थिपेशी व कुर्चा पेशी में उनका आदान-प्रदान, उनका रक्ताभिसरण, भौतिक गुणधर्म, बाढ़ व पुन:निर्माण में फर्क है। अस्थिपेशी के बारे में हमने जानकारी प्राप्त की है। अब हम यह देखेंगे कि कुर्चा क्या है?

कूर्चा (cartilage):

पृष्ठवंशीय प्राणियों में बिल्कुल शुरुआती समय में दिखायी देनी वाला यह पेशी समूह है। कुछ प्राणियों में इन पेशियों का अस्थायी तो कुछ प्राणियों में स्थायी स्वरुप होता है । मानव के गर्भ में शुरुआती समय का यह पिंजरा पूरी तरह कुर्चा का ही बना होता है।

धीरे-धीरे इनकी जगह अस्थिपेशियां ले लेती है। पूर्ण विकसित व्यक्तियों में ये पेशियां सिर्फ  निम्नलिखित स्थानों पर ही दिखायी देती हैं –

१)सायनोवियल जोड़ों में
२)लॅरिंक्स अथवा (voice box) की दीवारों में
३)श्‍वसन नलिका
४)नाक
५)कान
६)जीभ और खोपड़ी का नीचला हिस्सा।

शरीर की पूरी वृद्धि होने से पहले बढ़ने वाली हड्डियों के सिरो पर ये पेशियां होती हैं। वृद्धि पूरी होते-होते इनका रुपांतरण अस्थिपेशियों में हो जाता हैं।

कुर्चा का वर्णन हम निम्नलिखित शब्दों में कर सकते हैं। कुर्चा का तात्पर्य है भार अथवा बजन बहन करने की क्षमता रखनेवाली, परन्तु कड़क पेशी समूह। इस पेशी समूह के कुछ विशेष गुणधर्म है। वे हैं – मेटॅबोविक रेट (ऊर्जा उपयोग करने की क्रिया) कम होती है, इसका रक्ताभिसरण पेशी की ऊपरी सतह तक सीमित रहता है, अत्यंत वेग से बढ़ने की क्षमता होती है, किसी भी तनाव, चारों ओर से पड़ने वाला दबाव, घर्षण, खींचा जाना इत्यादि सभी चीजों का प्रतिकार करने की क्षमता, कुछ हद तक लचीलापन, इत्यादि। हमने देखा कि हड्डियों पर पेरिऑस्टिअम का पतला परदा होता है। कुर्चा पर भी ऐसा पतला परदा होता है। इसे पेरिकॉन्ड्रीयन कहते हैं। इसीलिये जहाँ पर कुर्चा व हड्डियां एकत्र मिलती है वहाँ पर व जोड़ों के कुर्चा पर यह पापुद्रा नहीं होता।

अब हम देखेंगे की कुर्चा कितने प्रकार की होती है। दो प्रकार की कुर्चा पेशियां होती हैं। साथ ही साथ पेशियों के दरम्यान कॉलेजन तंतू होते हैं और साथ ही जेली जैसा पदार्थ भी होता है। तंतुओं के प्रकारानुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। वह जिस तरह दिखायी देती हैं, उसके आधार पर कुर्चा के चार प्रकार किये गये हैं –

१)हायलाइन कुर्चा (hyaline) – कांच की तरह दिखनेवाली कुर्चा।
२)सफ़ेद तंतुमय कुर्चा
३)पीली इलॅस्टिक कुर्चा
४)पेशीमय कुर्चा

हमारे शरीर की सभी कुर्चा में उपरोक्त चार प्रकारों की होती हैं। अब हम देखेंगे कि कुर्चा पेशी कितने प्रकार की होती हैं तथा अन्य मॉटिक्स में क्या होता हैं।

कुर्चा पेशी : कुर्चा में दो प्रकार की कुर्चा पेशीयां होती हैं।

अ)कॉन्ड्रोब्लास्टर पेशी
ब)कॉन्ड्रोसाइट पेशी

कॉन्ड्रोब्लास्टर पेशी कुर्चा की प्राथमिक पेशी है। इससे नवीन पेशी तैयार होती है। फलस्वरूप  कुर्चा की वृद्धि होती रहती हैं। ये पेशियां सतत कार्यरत रहती है। जब इनका विकास पूर्ण होता है तो इनका रुपांतर कॉन्ड्रोसाइट पेशी में हो जाता है। कॉन्ड्रोसाइट पेशी, कॉन्ड्रोब्लास्टर जितनी कार्यरत नहीं होती हैं तथा ये नयी पेशी नहीं बनाती हैं।

कुर्चा पेशी के दरम्यान स्थित मॅट्रिक्स नामक कोलॅजेन तंतू, इलॅस्टिक तंतू  व पानी से भरे मॅट्रिक्स अथवा गाऊंड सबस्टन्स इन सबसे बने होते हैं। इन मॅट्रिक्स में पिष्टमय पदार्थ भरपूर होते हैं। हमने देखा की, कॉन्ड्रोसाइट पेशी, नयी पेशी नहीं बनाती परन्तु कुर्चे की मॅट्रिक्स की निर्मिती ये पेशियां करती हैं।

प्रारंभ में हमने देखा कि, कुर्चा में रक्तबाहिनियां व रक्तप्रवाह सिर्फ  ऊपरी सतह तक मर्यादित होता है। कुर्चा का शेष भाग रक्तविहरित होता है। फिर भला इनका पोषण कैसे होता है? पहले गर्भ के बच्चे का नाल के द्वारा होने वाले पोषण को हमने देखा। इसका महत्त्वपूर्ण नियम यह था कि रक्त की वायु व अन्न घटक का वहन उच्चदाब से निम्नदाब की ओर होता है। अर्थात जहाँ उनका प्रमाण ज्यादा होता है वहाँ से उसका वहन वहाँ होता है जहाँ उनका प्रमाण कम होता है। इस नियम के अनुसार कुर्चा के ऊपरी स्तर की रक्तबाहिनियों से अन्नघटक निचलें स्तर तक पहुँचते हैं।

इस लेख की शुरुआत में हमने देखा कि हमारे शरीर में चार प्रकार की कुर्चा होती हैं। उनमें से किस प्रकार की कुर्चा कहाँ पर होती हैं अब हम यह देखेंगे।

१)हायलाइन कुर्चा – कॉस्ट्रल कार्टिलेज, नाक की कुर्चा, श्‍वसन नलिका व जोड़ों की कुर्चा इत्यादी सभी हायलाइन प्रकार की होती हैं। जोड़ों में यह कुर्चा घर्षण विरहित हलचलों को मदद करती हैं। मात्र जोड़ों की हड्डियों पर इनका स्तर होता है। वजन होने की तथा दाब का प्रतिबंध करने की क्षमता इनमें ज्यादा होती हैं। इस कुर्चा का रुपांतर हड्डियों में कभी भी नहीं होता। जोड़ों में इसकी मोटाई 1 मि.मी. से 7 मि.मी. होती हैं।

२)सफ़ेद तंतुमय कुर्चा : यह सफ़ेद कोलॅजेन तंतू की बनी होती हैं। दो मणिकाओं के बीच की कुर्चा इस प्रकार की होती हैं।

३)पीली इलॅस्टिन कुर्चा – बाह्यकर्ण व जीभ में होती है।

अब तक हमनें मानवी पिंजरे की कुर्चापेशी की जानकारी ली। इसके बाद हम अपने शरीर के विविध जोड़ों के बारे में अध्ययन करेंगे।

(क्रमश:)

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