त्वचा – रचना एवं कार्य भाग २

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हमने देखा कि त्वचा के प्रमुख तीन स्तर होते हैं। अब हम इनमें से प्रत्येक स्तर की जानकारी लेंगे।

१) एपिडरमिस अथवा बाह्यत्वचा : एपिडरमिस विभिन्न पेशी समूहों से मिलकर बनी होती है। इस स्तर की विशेषता यह है कि इनकी पेशियां स्वतः प्रतिदिन बदलती रहती है। अर्थात इसके सबसे बाहरी स्तर की पेशियां रोज शरीर से बाहर फेंकी जाती है और उनका स्थान नयी पेशियां लेती रहती है। इस मुख्य पेशी को केरॅटिनीसाइट्स कहते हैं। इसके अतिरिक्त इस स्तर में अनेकों पेशियां होती हैं जिन्हें स्थलांतरित पेशी कहा जाता है। इनमें दो मुख्य पेशियां होती हैं जिन्हें मेलॅनोसाईट्स (रंगपेशी) कहते हैं। इसका मेलॅनीन द्रव के आधार पर त्वचा का रंग तय होता है और दूसरी लॅगरहन्स पेशी जिसका संबंध शरीर के अंतर्गत प्रतिकार शक्ति से होता है।

इस एपिडरमिस में भी पेशियों के पाँच भिन्न-भिन्न स्तर होते हैं। इनमें से सबसे ऊपर का अथवा बाह्य स्तर जिसे कॉरनियस स्तर कहते हैं। इस स्तर की पेशियों को रोज बाहर फेंका जाता है। जब हम स्नान करते हैं तभी ये पेशियां निकाल जाती है। यह बात हमारे ध्यान में भी नहीं आती। जब इन पेशियों के बाहर फेंके जाने की मात्र केशयुक्त भागों में बढ़ जाती है तब हम उसे बालों की रुसी कहते हैं। कुछ बीमारियों में यह मात्रा इतनी बढ़ जाती है कि ऐसा प्रतीत होने लगता है कि मानों त्वचा छील दी गयी। परंतु इसमें सिर्फ त्वचा का ऊपरी स्तर ही निकलता रहता है। तात्पर्य यह है कि हमारी बाह्य त्वचा में प्रतिदिन बदलाव होते रहते हैं। जितनी पेशियाँ हर रोज़ बाहर फेंक दी जाती हैं, उतनी ही पेशियाँ हर रोज़ उनकी जगह लेती रहती हैं। यह समतोल हमेशा रखा जाता है। तभी हमारी त्वचा निरोगी, सुदृढ़ रहती है। यदि किन्हीं कारणों से इसमें असमतोल (विषमता) हो जाती है तो त्वचा के रोग निर्मित हो जाते हैं। साथ ही किसी घाव के भरने के समय इस समतोल का महत्त्व ज्यादा होता है।

इस स्तर का इतना ही कार्य नहीं है। अन्य अनेक महत्वपूर्ण कार्य इस स्तर द्वारा किये जाते हैं। यहाँ पर हम एक उदाहरण देखते हैं। त्वचा के इस स्तर में अनेक स्निग्ध पदार्थ होते हैं जिन्हें ‘लिपिडो’ कहते हैं।

इनमें से एक पदार्थ जिसे ७ dehydra cholesterol कहते हैं। सूर्यकिरणों की शक्ति जब इस पदार्थ पर कार्य करती है तब इसका रुपांतर ‘ड’ जीवनसत्त्व (व्हिटॅमिन डी) में हो जाता है। उपरोक्त वर्णन की गयी रचना तथा कार्य सभी केरिटिनोसाइट् पेशी के ही है |

एपिडरमिस में दूसरी महत्त्वपूर्ण पेशी होती है मेलॉनोसाईट्स(Melonocytes)। इस पेशी में मेलॅनीन(Melanin) नामक रंगद्रव्य(colour pigment) होता है। इसीलिये इसे मेलॅनोसाइट्स कहते हैं। मूल रूप में यह पेशी गर्भावस्था में न्यूरलीव्रेस्ट (जिसमें मस्तिष्क, मज्जारज्जू बनते हैं) भाग में रहती है। गर्भ के आंठवे सप्ताह से इसका स्थलांतरण त्वचा की ओर शुरु हो जाता है। अतः इन्हें स्थालांतरित पेशी कहते हैं। हमारी त्वचा का रंग इन मेलॉनोसाईट्स के कारण ही तय होता है। मेलॅनीन रंगद्रव्य का निमंत्रण दो प्रकार से होता है –

१) जनुक (जेनेटिक)- की सहायता से जैसे कुछ व्यक्तियों के शरीर पर कोढ़ होता है अथवा संपूर्ण शरीर ही फीके रंग का हो जाता है। चमड़ी के रंग में वंशिक भिन्नता भी रहती है। यह भिन्नता पेशियों में रंगद्रव्य की मात्रा पर निर्भर करता है। इन पेशियों की रचना व कार्य वंश वंश के अनुसार भिन्न भिन्न होता है।

बाह्यत्वचा की तीसरी मुख्य पेशी है लॅगरहॅन्स पेशी। आप सबने अनुभूति की होगी अथवा सुना होगा कि कुछ औषधों की पूरी मात्रा में सेवन करने पर कुछ प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ शरीर में होती है। इसे हम ऍलर्जीक रिऍक्शन कहते हैं। हमें पेनिसिलीन का इन्जेक्शन लगाने से पहले डॉक्टर त्वचा पर इसका परीक्षण करते हैं। यदि त्वचा पर उसकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया दिखायी देती है तो डॉक्टर हमें वो इन्जेक्शन नहीं लगाते। इसे हम पेन्सलीन की ऍलर्जी कहते हैं। त्वचा पर इस तरह दवाईयों के प्रति ऐसी प्रतिक्रिया के लिये ये लगॅरहॅन्स पेशी जिम्मेदार होती है। हमें किसी चीज की ऍलर्जी है यह इस पेशी के कारण ही पता चलता है। यह पेशी और क्या कार्य करती है तो जब किसी व्यक्ति को त्वचारोपण (स्कीन ग्राफ्टींग) की जाती है तो उस रोपण को स्वीकारने अथवा नकारने का कार्य प्रायः इस पेशी पर निर्भर होता है। आँखों की कार्निया में ये पेशी नहीं होती है। अतः कार्निया का रोपण प्रायः नकारा नहीं जाता है।

किसी व्यक्ति को यदि उसी की त्वचा का रोपण किया जाता है तो भी उसे नकारा नहीं जाता है। परंतु जब त्वचा किसी अन्य व्यक्ति की ली जाती है, तब उस त्वचा रोपण को नकारने की संभावना बनी रहती है। ऐसा क्यों होता है ? दाता व्यक्ति की त्वचा की ये लॅगरहॅन्स पेशियाँ और जिस व्यक्ति की त्वचा का रोपण किया जाता है उस व्यक्ति की लॅगरहॅन्स पेशियाँ इनमें प्रतिकूल प्रतिक्रिया निर्माण होने पर त्वचारोपण नकारा जाता है। हमारे कार्निया में ये लॅगरहॅन्स पेशी नहीं होती है, फलस्वरूप कार्निया का रोपण हमेशा सफल ही होता है। कार्निया का रोपण करते समय तो हम उसी व्यक्ति की एक आँख का कार्निया निकालकर दूसरी आँख में उसका रोपण नहीं करते। इसके लिये दूसरे व्यक्ति की ही कार्निया उपलब्ध होनी चाहिये। इसीलिये सभी को मृत्यु के बाद नेत्रदान करना चाहिये। हमारी अपनी आँखें हमारी मृत्यु के बाद किसी दृष्टिहीन भाई या बहन को दृष्टि प्रदान कर सकती है। एक असीम आनंद उनके जीवन में उत्पन्न कर सकती हैं। उनके जीवन में एक नया अध्याय जोड़ सकती है। और दूसरे के जीवन में आनंद उत्पन्न करने जैसी और कोई बात ही नहीं है। ‘देह त्याग करने के बाद भी नेत्र के रूप में मानव आनन्द रूप में रह सकता है’, इसीलये नेत्रदान यह एक श्रेष्ठ दान है।

अगले लेख में हम त्वचा के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करेंगे।

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