त्वचा – रचना व कार्य

हमारी चारों ज्ञानेंन्द्रियाँ मस्तिष्क के बिलकुल नजदीक हैं। स्पर्श की अनुभूति देनेवाली त्वचा मस्तिष्क के पास भी है (सिर और चेहरे की त्वचा) और दूर भी है (पाँव की त्वचा)। हमारे पूरे शरीर पर इस त्वचा का आवरण है, जैसे मजबूती से सिल दी गई हो, परंतु यह आवरण भी नौ स्थानों पर खुला हुआ है। (संत एकनाथ महाराज ने इन्हें ही हमारी यह चादर नौ स्थानों पर फटी हुई है, ऐसा भारूड़ (भारूड यह अभंगरचना का एक प्रकार है) में कहा है। खुली हुयी इन नौ जगहों में सात जगहें ज्ञानेंद्रियों के स्थान पर तथा दो कर्मेन्द्रियों के स्थान पर हैं। ऐसा करने में परमेश्वर का उद्देश्य अच्छा ही है। यह उद्देश्य है कि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से सिर्फ शुद्धता ही ग्रहण करनी चाहिए, जिससे प्रेम एवं आनंद का ही निर्माण हो और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से अंदर की अशुद्धता बाहर निकाल जाये। ऐसी है परमेश्वर की योजना। अब हम ‘कर्मदरिद्री’ शब्द का उपयोग क्यों एवं किसके लिये करते हैं, यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है।

हमारे शरीर को ढकनेवाली यह त्वचा विभिन्न कार्य करती हैं। ये कार्य कौन-कौन से हैं, यह तो हम आगे देखने ही वाले हैं। परंतु उसके पहले हम उसकी रचना देखते हैं।

प्रत्येक के शरीर के वजहन का कुछ ९ प्रतिशत वजन उसकी त्वचा का होता है। लम्बाई एवं वजन के अनुसार उसका क्षेत्रफल प्रत्येक के लिये अलग अलग होता है। परंतु साधारणतः २ चौ.मी. होता है। त्वचा की मोटाई १.५ से ४ मिमि होती हैं। अपनी त्वचा के मुख्यतः दो प्रकार है –

skin-1१) पतली, बालयुक्त त्वा जो हमारे शरीर के अधिकांश भाग को ढंकती है।

२) मोटी, बालविहीन त्वचा जो हमारे हाथों व पैरों के मोडों पर होती है। साथ ही साथ उंगलियों के तलवे की तरफ के हिस्सों पर होती है। इस त्वचा की घर्षण क्षमता, संवेदन क्षमता ज्यादा होती है। जिसके कारण विभिन्न कार्य आसान हो जाते हैं। इसके अलावा इस त्वचा में पसीने की ग्रन्थियां काफी मात्रा में होती है | तंतुओं की खास रेषाओं के कारण इनकी घर्षण क्षमता ज्यादा होती है। फलस्वरुप हाथ-पाँवों की पकड़ने की क्षमता ज्यादा होती है और हाथ-पैरों के लिये पकड़ना आसान हो जाता है।

हमारी संपूर्ण त्वचा पर अनेक प्रकार की रेषाएं होती हैं। परंतु हाथ और पैरों की रेषायें जनुक(जीन्स) द्वारा नियंत्रित होती है। इसके अलावा हमारे हाथ-पैरों के तलवों व अगुंलियों पर कुछ वैशिष्ट्यपूर्ण रेषायें होती हैं। इन्हें पॅपिलरी रिजेस कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक ये रेषायें नहीं बदलती हैं। ये हमेशा एक विशिष्ट नक्से में ही रहती हैं। इतना ही नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति के लिये यह नक्शा निश्चित ही होता हे और वैसा नक्शा किसी भी अन्य व्यक्ति में नहीं होता। इसीलिये किसी भी व्यक्ति की पहचान करने में हाथ-पैर के तलुओं के निशान महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अब तक हमने त्वचा का स्थूल रुप देखा, अब हम उसका सूक्ष्म रुप देखेंगे।

हमारी त्वचा यह सिर्फ एक पतला परदा नहीं है, त्वचा थोडी मोटी भी है, यह हमने पहले ही जान लिखा है। त्वचा की ज्यादा से ज्यादा मोटाई ४ मिमि होती है। परंतु इतनी सी जगह में भी अनेक महत्वपूर्ण चीजें होती है। त्वचा के बाहर से अंदर की ओर तीन स्तर होते हैं। उनके नाम क्रमशः निम्नलिखित हैं :

१) एपिडर्मिस – बाह्य त्वचा
२) डरमिस – मुख्य त्वचा
३) हायपोडर्मिस- मुख्य त्वचा के नीचे का स्तर।

त्वचा के जो दो प्रमुख प्रकार हमने देखें उनमें भी ये स्तर अलग होते हैं।

हमारे तलुओं एवं ऊँगलियों की मोटी बालविहीन त्वचा की एपिडरमिस भी ज्यादा मोटी होती है। इसमें सिर्फ त्वचा पेशी, रक्तवाहिनियों के जालें तथा पसीना ग्रंथी की नलिकायें होती हैं। साथ ही साथ त्वचा के संवेदन तंतु भी होते हैं। हायपोडर्मिस मुख्य रुप से स्निग्ध पेशी की होती है। इसमें रक्तवाहनियां, संवेदना तंतु एवं पसीने की ग्रन्थियां होती हैं।

शरीर के शेष भाग में पतली, केशयुक्त त्वचा में बाह्य त्वचा का स्तर कम मोटा होता है। इससे बाल बाहर निकलते हैं। बालों के चारों ओर सॅबेशियस ग्रंथी का मुख होता है। शेष त्वचा पर पसीने की ग्रन्थियों के मुख होते हैं। डरमिस अथवा मुख्य त्वचा मोटी होती है। इस स्तर में रक्तवाहनियाँ, संवेदना तंतु, सॅबेशियस ग्रंथी एवं सूक्ष्म स्नायु होते हैं। हायपोडरमिस में पसीने की ग्रंन्थियां तथा बालों की जडें होती हैं, जो डरमिस से लेकर हायपोडरमिस तक होती हैं।

हम ने त्वचा के दो प्रकारों की भिन्नता देखी। इसके बाद हम इन दोनों प्रकार के स्तरों की संक्षेप में जानकारी लेंगे। (क्रमशः)

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