त्वचा – रचना एवं कार्य भाग ७

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आज हम पेन सेन्स (क्लेशकारक स्पर्श) एवं थरमलसेन्स (तापमान संबंधित सेन्स) के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे। शरीर की अधिकांश बीमारियों में क्लेश अथवा दुख की संवेदनाएं होती ही है। इन क्लेशकारक संवेदनाओं की जानकारी के आधार पर डॉक्टरों के लिये रोग का निदान करना आसान हो जाता है। क्लेशकारक संवेदनाएं शरीर के संरक्षण का एक हिस्सा है। बिल्कुल छोटे से एक कॉंटे के चुभते ही हम उसे फौरन निकाल देते हैं। क्लेश का निर्माण कैसे होता है तो जब पेशी को या पेशी समूह को किसी भी प्रकार का धक्का पहुँचता है (टिश्यू डॅमेज) तभी। क्लेशकारक संवेदनाएं दो प्रकार की होती हैं –

१) तेज़ी से होनेवाली (फास्ट पेन) – क्लेशकारक चीज का स्पर्श त्वचा से होने के बाद सिर्फ ०.१ सेकंड़ में इसकी अनुभूति हो जाती है। कांटा अथवा सुई का चुभना कटना, जलना, इलेक्ट्रिक शॉक लगना इत्यादि संवेदनाएं जलदगति से होनेवाली संवेदनाएं हैं।

२) धीमी गति से होनेवाली (स्लो पेन) – क्लेशकारक चीजों का स्पर्श होने के बाद कम से कम एक सेकंड़ के बाद इसकी अनुभूति होती है तथा धीरे धीरे यह अनुभूति कुछ सेकंड़ों अथवा मिनटों तक बढ़ती जाती है। उदा. धीरे धीरे जलन का होना, दुखना, बारंबार दुखना इत्यादि

क्लेशकारक संवेदनाओं को ग्रहण करने के लिये त्वचा के नीचे खुले संवेदनशील तंतु (फ्रि नर्व्ह एंडिंग) होते हैं। त्वचा के अलावा हड्डियों के आवरण , जोड़, रक्तवाहिनियों की दीवारों इत्यादि जगहों में से संवेदनशील तंतु होते हैं। शरीर में अंदर तक रहनेवाली इन पेशियों में ये तंतु कम मात्रा में होते हैं। मॅकेनिकल, थरकमल व केमिकल तीनों प्रकार के स्पर्श इन संवेदनशील तंतुओं में संवेदना जागृत करते हैं।

सभी प्रकार के स्पर्शों को त्वचा धीरे धीरे ग्रहण (ऍडप्टस्) करती हैं परंतु क्लेशकारक स्पर्शों को त्वचा ग्रहण नहीं करती बल्कि इसके विपरित यदि स्पर्श शुरु ही रहता है तो संवेदनाएं अधिक तीव्र हो जाती है। यदि शरीर के किसी हिस्से में रक्त का प्रसरण कम हो जाता है या रुक जाता है अथवा स्नायुओं के जोरदार आकुंचनों के कारण भी इन संवेदनाओं का निर्माण होता है।

जलदगति से होनेवाली क्लेशकारक संवदेनाएं हम त्वचा के एक बिंदु पर भी स्पष्ट जान सकते हैं परंतु धीमी गति से होनेवाली संवेदनाओं को नहीं जान सकते हैं। कॉंटा कहॉं पर लगा यह हम ठीक से बता सकते हैं परंतु बीमारी के काण यदि हाथ में सूजन आ जाये तो हम उसका दुख पिनप्वाइंट नहीं कर सकते।

कभी कभी तो क्लेश एक स्थान पर होता है परंतु उसकी संवदेना दूसरे स्थान पर होती है। इसे रिफर्ड पेन कहते हैं। उदा. हृदय की क्लेश संवेदना बांये हाथ या गर्दन में होती है।

शरीर के अन्य अवयवों की क्लेश संवदेनाओं को विसरल पेन कहते हैं। क्लेशसंवदेना त्वचा से संवेदनशील तंतु द्वारा प्रथम मज्जारज्जु में व वहॉं से मस्तिष्क के थलॅमस में पहुँचती है। थॅलॅमस उसका प्रमुख केन्द्र है। क्लेश संवेदना की तीव्रता हम कुछ चीजों की सहायता से कम कर सकते हैं। ये साधन हैं क्लेश, दर्द कम करनेवाली दवाइयॉं (ऍनलजेसिस) दुखनेवाले भाग के चारो ओर की त्वचा पर दाब अथवा घर्षण (ऍक्युप्रेशर अथवा रबिंग) तथा दुखनेवाली त्वचा पर विद्युत प्रकाश के माध्यम से क्लेश कम करना। इसीलिये दर्द होने वाले भाग पर पेनबाम लगाने से हमें कुछ समय के लिये ठीक लगने लगता है।

थरमल सेन्स – इसमें तीन प्रकार की संवेदना पेशियॉं आती है।
१) ठंड की संवेदना देनेवाली
२) उष्णता की संवेदना देनेवाली
३) क्लेशकारक संवदेना देनेवाली

जब ठंड अतिशीत होती है या उष्ण अतिउष्ण होती है तभी ये क्लेश संवदेना जागृत होती है।

हमारी त्वचा पर ठंड एवं उष्ण संवेदना देनेवाली पेशियां विभिन्न स्थानों पर होती हैं। एक पेशी साधारणतः एक चौ. मिमि त्वचा की संवदेना ग्रहण करती है। ठंड संवेदना पेशियों की संख्या उष्ण संवदेन पेशियों से तीन से दस गुना ज्यादा होती है।

अतिशीत व अतिउष्ण परिस्थिती में क्लेशकारक संवेदनाएं जागृत होती हैं। अतिशीत तापमान धीरे धीरे बढकर जब १० सेंटिग्रेड से १५ सेंटीग्रेड तक पहुँच जाता है तभी क्लेशदायक संवेदनाएं रुक जाती हैं और सिर्फ शीत संवेदनाएं ही शेष बचती हैं। जैसे जैसे तापमान बढता जाता है वैसे वैसे ये शीत संवेदनाएं कम होती जाती हैं तथा ४० सेंटिग्रेड पर पूरी तरह रुक जाती हैं। वैसा ही उष्ण संवदेनाओं के बारे में होता है। साधारणतः ३० सेंटीग्रेड तापमान पर उष्ण संवदेना पेशी जागृत होती है तथा ४९ सेंटिग्रेड पर इनका कार्य पूरी तरह रुक जाता है। ४५ सेंटीग्रेड तापमान पर उष्ण क्लेशकारक संवेदना जागृत होती है।

वातावरण के तापमान से त्वचा की इन संवदेनशील पेशियों क्रिया-प्रतिक्रिया सतत चलती रहती है। तापमान स्थिर रहने पर ये पेशियॉं उसी तापमान को ग्रहण (अडॉप्ट) कर लेती हैं। परंतु तापमान के बदलाव को वे बराबर ग्रहण करती हैं। यह ग्रहणशक्ती इस बात पर अवलंबित रहती है कि त्वचा का कितना भाग वातावरण के तापमान के संपर्क में है। उदा. यदि संपूर्ण शरीर पर तापमान का संपर्क हुआ हो ०.०९ सेंटिग्रेड तापमान का फर्क हुआ तो भी तापमान में फर्क की अनुभूति होती। यदि त्वचा का सिर्फ १ चौ.मिमि भाग पर भी तापमान का अंतर प्रतीत हुआ तो तापमान में सौ गुना हुआ बदल भी समझ में नहीं आता। उपरोक्त दोनों प्रकार की संवेदनाएं शरीर का संरक्षण ही करती हैं। ऐसी है इस त्वचा की महानता। हमारे द्वारा दुलर्क्षित की गयी हमारी त्वचा हमारे लिये कितनी महत्त्वपूर्ण है, यह बात इन लेखों के माध्यम से आप जान ही गये होंगे। मुझे तो मेरी त्वचा मॉं का दूसरा रूप ही प्रतीत होता है अथवा किसी निष्काम योगी की तरह किसी भी फलाशा को न रखते हुये निरंतर काम करनेवाले की तरह लगती है। (क्रमशः)

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