त्वचा – रचना एवं कार्य भाग ५

dermis

त्वचा हमारे शरीर का एक अविभाज्य अंग है। शरीर की विभिन्न कोशिकासमूह, अवयव सभी पर एक समान आवरण देनेवाली होती है त्वचा। यह त्वचा हमारे शरीर को एक निश्चित आकार देती है| यह त्वचा हमारे शरीर को एक प्रकार की सुन्दरता प्रदान करती है। यह त्वचा हमें एक व्यक्तित्व प्रदान करती है। हमारी त्वचा ही हमारी पहचान है। प्रभु श्रीरामचंद्रजी सॉंवले थे, लक्ष्मणजी गोरे थे, सीतामाता गोरी थी इसका अर्थ हम है कि उनकी त्वचा उस रंगी की थी। परंतु यहॉं पर हम त्वचा का उल्लेख नहीं करते। हम उसे त्वचा का रंग मान लेते हैं। इसी तरह जीवनभर सभी बातों में हम त्वचा को गौण मानते रहते हैं। फलस्वरूप हमें उसका महत्त्व समझ में ही नहीं आता। दर असल हम हमेशा उसकी ओर अनदेखा करते रहते हैं। अन्य किसी भी अवयव को यदि थोडी भी तकलीफ हो जाये तो हम निराश हो जाते हैं, बीमार पड़ जाते हैं, इलाज के लिये भाग-दौड़ करने लगते हैं। परंतु प्रथमतः हम यह भूल ही जाते हैं कि हमारी त्वचा भी हमारे शरीर का ही एक अवयव है। कभी यदि छोटा सा कांटा लग जाये, थोडा सा जल जाये, खरोंच आ जायें, जख्म हो जाये तो हमारी प्रतिक्रिया यहीं होती हैं कि ‘‘मामूली है। ठीक जो जाएगा- थोडी दवा/ मरहम लगाओ।’’ कई बार कुछ जख्म बिना कुछ किये भी भर जाते हैं। यह चमत्कार नहीं है। यह होती है हमारी त्वचा की खासियत, उसकी क्षमता, जो कभी भी हमारे ध्यान में ही नहीं आती। शरीर पर आस पड़ोस से बाह्य वातावरण से होनेवाले प्रत्येक आघात को सबसे पहले हमारी त्वचा ही झेलती है। इनमें से कुछ अपघातों से त्वचा हमारे संपूर्ण शरीर की रक्षा करती है। त्वचा के बिना शरीर कैसा दिखायी देगा, कार्य कैसे करेगा – सिर्फ इसकी कल्पना करें तो हमें त्वचा का महत्त्व समझ में आ जाएगा।

अब हम देखेंगे कि हमारी त्वचा कौन-कौन से कार्य करती हैं –
१) त्वचा शरीर का संरक्षक कवच (प्रोटेक्टिव ऍक्शन )
२) त्वचा के निःस्सारण कार्य (एक्सक्रिटरी ऍक्शन)
३) शरीर का तापमान नियंत्रण (थर्मो रेग्युलटरी फंक्शन)
४) थोड़ी हद तक शरीर की रोगप्रतिकार शक्ति
५) अपने मन के भाव प्रकट करनेवाली त्वचा (एक्सप्रेसिंग)
६) सामाजिक – लैंगिक निकटता संबंध का साधन (सोशिओ सेक्जुअल कम्युनिकेशन)
७) त्वचा एक संवेदनायुक्त -अनुभूतिक्षम अवयव (सेन्सरी ऑर्गन) ङ्मह अंतिम एवं महत्त्वपूर्ण कार्य है|

अब हम उपरोक्त सभी कार्यों को सविस्तार अध्ययन करेंगे।

१) शरीर का संरक्षक कवच

शरीर के अंदर के अवयव व बाह्य वातावरण समस्त परिसर के बीच आदन-प्रदान का साधन है त्वचा। जीवाणुओं से, उनके संसर्ग से शरीर की सुरक्षा त्वचा कुछ हद तक करती है। इसके अतिरिक्त घातक रसायन, यांत्रिक आघात, गरम- ठंडे तापमान में होने वाले उतार-चढाव इत्यादि से त्वचा शरीर का संरक्षण करती है।

२) निस्सारण कार्य

त्वचा का यह एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। मूत्रपिंड, आंत, श्वसन संस्था इनके साथ साथ त्वचा यह भी एक निस्सारण अवयव है| त्वचा द्वारा प्रतिदिन पसीना बाहर निकाला जाता है। पसीने के माध्यम से शरीर का पानी, सोडिअम , पोटेशिअम, क्लोराईड इत्यादि बाहर निकाले जाते हैं। साथ ही साथ शरीर की कोई भी जहरीले हेवी मेटल्स जैसे आर्सेनिक, पारा इत्यादि हुये तो वे भी त्वचा से बाहर फेंक दिये जाते हैं। शरीर का आवश्यकतानुसार शरीर से निकलनेवाले पसीने का नियंत्रण किया जाता है। यह नियंत्रण सिम्पेथेटिक एवं पॅरासिम्पेथेटिक नर्व्हज के द्वारा किया जाता है।

३) थर्मोरेग्युलेशन अथवा तापमान नियंत्रण

इसका नियंत्रण संवेदना संस्था एवं त्वचा के रक्ताभिसरण द्वारा किया जाता है। इसमें पसीने का भी सहभाग होता है। बाह्य तापमान अतिशीत अथवा ठंडा होने पर शरीर त्वचा से बाहर निकलनेवाली उष्णता को टोककर रखता है। इसके लिये त्वचा की रक्तवाहिनियां आकुंचित हो जाती है और रक्तप्रवाह कम हो जाता है। दूसरी घटना जो होती है, वह यह है कि त्वचा के रोंगटें खड़े हो जाते हैं। फलस्वरूप इन बालों के स्थान पर बाह्य हवा अटक जाती है। त्वचा के पास उसका तापमान बढ़ जाता है और यह हवा बाहर की ठंडी हवा को त्वचा तक नहीं पहुँचने देती। त्वचा के तापमान को गिरने से बचाने के लिये बीच-बीच में त्वचा के नीचे रक्तप्रवाह अस्थायी रूप से बढ़ जाता है। बाहरी तापमान ज्यादा होने पर पसीने की मात्रा बढ़ जाती है। फलस्वरूप त्वचा को एक तरह की ठंड महसूस होती है।

शरीर के अंदर का तापमान बढ़ने से (उदा. बीमारी में) त्वचा के रास्ते से ही तापमान को बाहर निकालने में सहायता मिलती है। इसके लिये त्वचा के नीचे की रक्तवाहनियां प्रसारित होती हैं तथा रक्तप्रवाह बढ़ जाता हे। ऐसी परिस्थिति में यदि कृत्रिम तरीके से त्वचा के बाह्य आवरण का तापमान कम किया जाये तो शरीर से उष्णता बाहर निकालने की क्षमता मात्रा बढ जाती है और तापमान कम हो जाता है। इसीलिये बुखार आने पर हम मस्तक पर ठंडे पानी की पट्टियां रखते हैं और आवश्यकता पड़ने पर पूरा शरीर ठंडे पानी से पोंछते रहते हैं। अब थोड़ा विषयांतर करते हैं।

हमें कुछ बीमारियों में कंपकंपी होती है। उदा. जुकाम, ठंड आने पर बुखार आ जाता है। इसमें जुकाम के जंतुओं के काण जो रक्त में मिल जाते हैं , उनका परिणाम शरीर के अंतर्गत तापमान (कोअर टेम्पर्रेचर) में काफी कमी हो जाती है। ऐसी परिस्थिती में इस विष के परिणाम को कम करने के लिये यानी शरीर के अंतर्गत तापमान को बढ़ाने के लिये शरीर कंपनों के द्वारा उष्णता निर्माण करता है। (जनरेशन ऑफ हीट)। विषमज्वर जैसी बीमारी में कँपकँपी होती है| इससे शरीर की उष्मा बडी मात्रा में बाहर निकाली जाती है। शरीर की उष्मा को बाहर जाने से रोकती है और अंदर की उष्मा संभालकर रखती है। (कन्झर्वेशन ऑफ हीट)।

४) प्रतिकार शक्ति

त्वचा कुछ हद तक जीवाणुओं को शरीर में घुसने से रोकती है। इस प्रतिकार प्रतिक्रिया में लॅगरहॅन एवं लिम्फॅटिक कोशिकाएँ भाग लेती है।

५) हमारी भाव-भावनाओं का व्यक्त होना

हमारे चेहरों को हमारा आइना कहा जाता है। यानी मन की भाव भावनाएँ चेहरे पर साफ साफ दिखायी देने लगती हैं। यह प्रकटीकरण चेहरे की त्वचा के कारण होता है।

त्वचा का महत्त्वपूर्ण कार्य है संवेदना, जिसके बारे में हम अगले लेख में जानकारी प्राप्त करेंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published.