श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ५३)

अब तक हमने देखा कि साईनाथजी ने गेहूँ पीसने वाली लीला के द्वारा हेमाडपंत को उनकी भूमिका का एहसास करवाया और साथ ही उन्हें पूरे विश्‍वास के साथ आगे बढ़ाने के लिए सामर्थ्य भी प्रदान किया। हेमाडपंत इससे पहले से ही बाबा के पास जा रहे थे, परन्तु इस गेहूँ पीसने की प्रक्रिया से साईबाबा पूर्ण रूप से उनके पूरे जीवन में समा गए और साथ ही श्रीसाईसच्चरित भी। साईबाबा की इस लीला से ही, ‘बाबा की लीलाओं का संग्रह करना चाहिए’ यह बात बाबा की इच्छा से ही, साई की कृपा से ही हेमाडपंत के अन्त:करण में प्रकट हुई। जिन्होंने बाबा को देखा है उनके लिए भी और जिन लोगों ने बाबा को नहीं देखा, उनके लिए भी, साथ ही आने वाले समय में सच्चे भक्तिमार्ग पर चलने के लिए, सच्चे सद्गुरु की पहचान कर उस मार्ग पर चलने के लिए साईसच्चरित अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक है। यह ग्रन्थ स्वयं सद्गुरु ही है, यह विश्‍वास दृढ करने के लिए, सच्चे सद्गुरु की पहचान कराने के लिए, मर्यादाशील भक्ति करके अपने जीवन का समग्र विकास करने के लिए ही साईबाबा ने स्वयं इस सच्चरित की विरचना हेमाडपंत से करवायी।

sainath- साईबाबाइस सच्चरित-लेखन की गंगोत्री प्रकट हुई है, ‘प्रेम’ इस सर्वोच्च तत्त्व के आधार पर ही, ‘प्रेम’ इस प्रेरणा से ही; और इसीलिए यह ग्रंथ ज्ञान, चिकित्सा, उपदेश आदि से संबंधित न होकर केवल ‘प्रेम’ इस तत्त्व से इसका उद्गम होकर यह प्रेमसागर में जा मिलता है। इसी लिए यह अध्याय साईसच्चरित इस प्रेमनदी का उद्गम भी है और मुख भी। आरंभ से अंत तक इस में प्रेम ही प्रवाहित होता रहा है। इसीलिए इसका पाठ करते समय, पारायण करते समय, अध्ययन करते समय हर कार्य सिर्फ प्रेम से ही करना चाहिए। क्योंकि बाबा की गेहूँ पीसने की लीला से हेमाडपंत के हृदय में जो प्रेम उमड़ पड़ा था, उसी से इस साईसच्चरित की रचना करने की प्रेरणा उन्हें मिली थी। यह बात वे स्वयं ही कहते हैं-

क्षीरसागर में जिस तरह उठती हैं लहरें। प्रेम उमड़ पड़ा उसी तरह अंतर्मन में।
उठी चाह कि गाऊँ जी भरकर। कथा माधुरी बाबा की॥

हमारे मन में भी श्रीसाईसच्चरित का पठन करते समय इसी तरह की प्रेम की लहरें उठनी चाहिए। यदि एक बार ये प्रेम की लहरें उठने लगती हैं तो उसमें अवरोध उत्पन्न हो ही नहीं सकता है। अन्य लहरों में किसी अन्य कारण से अवरोध उत्पन्न हो सकता हैं, परन्तु प्रेम की लहरें जब उठने लगती हैं तो वे ‘अनिरुद्ध’ होती हैं, उसे कोई भी रोक नहीं सकता है। वह अधिक से अधिक बढ़ती ही रहती हैं। साईसच्चरित के प्रथम अध्याय के बोध को जीवन में उतारना यह मेरे द्वारा साईनाथ की दिशा में उठाया गया पहला कदम है। मेरे द्वारा एक कदम उठाये जाते ही साईबाबा १०० कदम दौड़कर मेरे पास आते ही हैं। इसके लिए बस हेमाडपंत की तरह हमारे जीवन में भी साईप्रेम की लहरें उत्पन्न होनी चाहिए। हेमाडपंत के अंत:करण में लहरें उत्पन्न करने में कारण बना, वह ‘अद्भुत’ रस और ऐसा अद्भुत रस केवल रसराज साईनाथ की लीला में ही है और रस का इस गेहूँ पीसने वाली लीला में उत्कृष्ट रूप में परिपोष हुआ है। इसी कारण हेमाडपंत के मन में श्रीसाईसच्चरित लिखने की इच्छा उत्पन्न हुई। यह अद्भुत रस नौ रसों में से विशेष रूप से साई की हर लीला में प्रवाहित होता दिखाई देता है, इसका स्वाद श्रद्धावान कैसे ले सकता है इसे स्पष्ट करते हुए आगे हेमाडपंत कहते हैं –

अब दत्तचित्त हो जाओ। और सुनो सुंदर वृत्तांत।
आश्‍चर्यचकित हो जाओगे। बाबा का कृपावंतत्व देखकर।

‘बाबा के प्रति आश्‍चर्य होगा बहुत’ यह हेमाडपंत कहते है, जिसका अर्थ है- अब जो गेहूँ पीसने वाली कथा कहने वाला हूँ उसे सुनकर, बाबा की कृपा देख तुम भी अद्भुत रस का अनुभव कर सकते हो।

हेमाडपंत पुन: कहते हैं कि बाबा के गेहूँ पीसने बैठते ही मेरे एवं उपस्थितियों के मन में उनके प्रति प्रेम की तरंग कैसे उठने लगती है इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं –

महत् आश्‍चर्य मेरे मन में। गेहूँ पीसने की यह कैसी लीला।
अपरिग्रह अकिंचन को। क्या  ज़रूरत है यह करने की?॥
लोग देखते साश्‍चर्य चित्त। हिंमत  न किसीमें भी कुछ पूछने की।
गाँव में फैलते ही यह खबर । दौड़ पड़े तुरन्त ही नरनारी॥

यहाँ पर हेमाडपंत तथा उपस्थित लोगों के मन में जो आश्‍चर्य हैं। उसी में अद्भुत रस का बीज छिपा हुआ है। बाबा की लीला देख साईभक्तों के मन     में आनन्द की लहरें उठती हैं। भक्त एवं अभक्त में यही फर्क होता है। बाबा की लीला देख भक्त के मन में बाबा के प्रति प्यार उमड़ने लगता है और अभक्त के मन में कोई भी भाव नहीं आता, उलटे वह निंदा ही करता है। जिस तरह बच्चे की कोई भी कृति पहली बार होते देख माँ को अपार आनंद होता है, ठीक उसी प्रकार अपने सद्गुरु की कृति देख हमारे मन में आनंद होना चाहिए। आनंदित होने वाला भक्त ही बाबा की लीला का स्वाद ले सकता है।

हेमाडपंत कथा के अंत में कहते हैं –
आरंभ बाबा का कोई न जाने । क्योंकि प्रथमत: कुछ भी समझ में न आए।
धैर्य रखने पर ही ज्ञात होता है । अद्भुत कर्तृत्व बाबा का॥

‘बाबा क्या कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं’ इसकी अपेक्षा हमें बाबा की लीला से आनंदित होना चाहिए। बाबा की लीला सहज ही कोई नहीं जान सकता हैं। परन्तु जो उनकी लीलाओं को प्यार से निहारता है अर्थात बाबा पर श्रद्धा रखकर उनके साथ एकनिष्ठ रहता है, वही बाबा की लीला का स्वाद ले सकता है और वही बाबा की लीला के अद्भुत रस का अनुभवी बनता है। इस अद्भुत रस से ही श्रद्धावान का जीवन पूर्णत: स्निग्ध, उष्ण एवं गुरु गुणों से समृद्ध बन जाता है। बाबा की लीला बारंबार याद कर, दूसरों को बताकर इस अद्भुत रस को मन में उतारते रहनेवाले श्रद्धावान का ही जीवन रसपूर्ण रहता है। इसके विपरीत श्रद्धाहीन व्यक्ति का जीवन शुष्क, रूक्ष, नीरस रहता है। साई-प्रेम को जीवन में उतारकर जीवन को रसपूर्ण बनाना है अथवा श्रद्धाहीन बनकर अपने जीवन को रूखा ही रखना है, इस बात का फैसला हमें खुद ही करना है।

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