श्रीसाईसच्चरित : अध्याय २ (भाग- ६)

बाबा प्रथम अध्याय में गेहूँ पीसना आरंभ करते हैं। प्रथम अध्याय के कथानक तक भले ही बाबा ने ‘उस’ गेहूँ पीसने वाली क्रिया को बाबा ने रोक दिया था, फ़ीर भी बाबा का गेहूँ पीसना शुरु ही है, बावनवे अध्याय तक शुरु ही रहनेवाला है। बाबा की श्रीसाईसच्चरितरुपी पीसाई तो सदैव चल ही रही है, बिलकुल आज भी। कारण बाबा दिशा-काल से परे हैं। वे आज भी, शरीर छोड़कर चले जाने पर भी भक्तों के लिए दौड़ ही रहे हैं, गेहूँ पीस ही रहे हैं। भक्तों के मन के एक-एक अनुचित बीज को अर्थात गेहूँ को पीसने के लिए बाबा का जाता घूम ही रहा है और भक्तों को मन:सामर्थ्य प्रदान कर ही रहे हैं। हर एक अध्याय में बाबा बैर को रगड़ ही रहे हैं, महामारी का निर्दलन कर ही रहे हैं। इस अध्याय में वादावादी रुपी बैरी बाबा के जाते में पीसता चला जा रहा है। हम जब साईसच्चरित प्रेम से पढ़ते हैं, तब ये साईनाथ हमारे अन्तर्मन रुपी द्वारकामाई में इसी तरह पीसने बैठते हैं और एक-एक करके सभी बुराई रुपी बीजों को पीसकर हमारे जीवन में होने वाली महामारी का नाश कर देते हैं तथा हमारे जीवन विकास को गति प्रदान कर हमारे जीवन को धन्य कर देते हैं।

बाबा

इस दूसरे अध्याय में बाबा वादावादी रुपी वैरी को रगड़कर नष्ट कर रहे हैं। हेमाडपंत के जीवन में सचमुच नामकरण के इस कथा द्वारा कितना सुंदर बदलाव लाया है! संपूर्ण साईसच्चरित में हेमाडपंत के विनम्रभाव की प्रचिती हमें हर जगह पर दिखाई देती हैं। यह केवल ऊपरी दिखावा अथवा शिष्टाचार तक की ही नम्रता, विनयभाव न होकर हेमाडपंत के मन में उत्पन्न होने वाला सहजभाव है और इस बात का प्रमाण हमें पंक्तियों को पढ़ते समय मिल जाता है, बिलकुल वैसे ही जैसे ‘हाथ कंगन को आरसी की क्या ज़रूरत।’ दूसरे अध्याय के आरंभिक पंक्तियों में यही ‘विनय’ भाव प्रखरतापूर्वक दिखाई देता है। बाबा का चरित्र लिखनेवाला मैं कोई बहुत बड़ा ज्ञानी नहीं हूँ, ना ही कवि और ना ही श्रेष्ठ भक्त हूँ, बल्कि यह सब कुछ मुझसे मेरे ये साईनाथ ही करवा रहे हैं, इस में मेरा कोई बड़प्पन नहीं हैं यहाँ पर हेमाडपंत इस बात को बिलकुल स्पष्ट कर रहे हैं। बाबा का चरित्र लिखने का सामर्थ्य केवल बाबा के पास ही है इस बात का अहसास हेमाडपंत को सदैव है ही।

हेमाडपंत कहते हैं कि जिसके साथ मेरी बहुत अच्छी पहचान है और जिसके साथ मैं रात-दिन रहता हूँ, ऐसे मित्र का अचूक वर्णन करना भी मेरे लिए नामुमकिन है, फ़ीर मैं श्रीसाईनाथ का चरित्र भला कैसे लिख सकता हूँ? सचमुच, हम सभी इस बात से सहमत हो जायेंगे। यदि किसी व्यक्ति की और अपनी बहुत अच्छी जान-पहचान है, और उसके साथ हम चौबीसों घंटे रहते भी हैं फ़ीर भी उस व्यक्ति के मन की बात हम अच्छी तरह से जान जायेंगे ऐसा नहीं हैं इस तरह वह हकीकत में कैसा है इस बात का पूरे विश्‍वास के साथ उसका वर्णन हम नहीं कर सकते हैं। इसका कारण यह हैं कि हम हर बात को अपने नज़रिये से देखते हैं; वह बात जैसी है वैसे हम उसे नहीं देखते और इसी लिए हर एक बात के संदर्भ में हमारी सापेक्षता यही मूल आधार होती है। परन्तु इससे हम उस बात को जैसी है, उसी प्रकार जान ही नहीं सकते। हर किसी के साथ ऐसा ही होता है और इसीलिए कोई भी किसी अन्य व्यक्ति का दृढ़ विश्‍वास के साथ वर्णन कैसे कर सकेगा?

यदि एक मनुष्य के बारे में हम इस तरह से असमर्थ हैं तो फ़ीर साक्षात ईश्‍वर स्वरुप इस साईनाथ का चरित्र लिखने की एक मनुष्य की क्या योग्यता (बियात?) कोई भी मनुष्य निर्दोष नहीं होता उसमें कमजोरी होगी ही और इसी लिए साक्षात् ईश्‍वर ऐसे इस साईनाथ का चरित्र वह भला कैसे लिख सकेगा? साईनाथ भले ही मानवरुप धारण करके आये ते, फ़ीर भी एक मनुष्य के लिए उनका चरित्र लिखना असंभव है। उलटे यही पर वह भटक सकता है। साईनाथ के मानवीस्वरुप के भ्रम में उनके ईश्‍वरी स्वरुप का विस्मरण हो सकता है। साथ ही बाबा का वे जैसे हैं, वैसा ही वर्णन करना यह बात तो सिवाय बाबा के और किसी के बस की है, ही नहीं। अन्य लोगों की बात छोड़ो, मनुष्य जहाँ पर खुद अपने मन को पूरी तरह से नहीं जान पाता है वहाँ वह साक्षात् ईश्‍वर को भला क्या जान पायेगा? हेमाडपंत इस अध्याय में यही बात बता रहे हैं।

जहाँ मेरा अपना अन्तरंग। जान सकूँ ना यथासांग।
वहाँ में संतमन के तरंग। कैसे वर्णू निर्व्यंग।

जहाँ मेरे ही अन्तरंग को मैं ठीक से नहीं जान पाता हूँ, वहाँ मैं साईनाथ के मन की बातें भला कैसे जान पाऊँगा? और जहाँ बाबा को ही जान पाना मेरे लिए असंभव है, वहाँ मैं बाबा के चरित्र का अचूक वर्णन कैसे कर पाऊँगा? यहाँ पर हेमाडपंत निर्व्यंग नामक इस बड़े ही सुंदर शब्द का उपयोग करते हैं। साईनाथ एवं उनका चरित्र व्यंगातीत ही है। उसमें कोई भी व्यंग कही भी नहीं हैं; परन्तु मनुष्य में मात्र कुछ न कुछ दोष होता ही है। केवल शारीरिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि मानसिक, बौद्धिक, आदि सभी स्तरों पर। फ़ीर ऐसा यह सव्यंग अर्थात दोषयुक्त रहनेवाला मनुष्य व्यग्यांतीत रहनेवाले साईनाथ का चरित्र ‘निर्व्यंग’ रुप में वर्णन कैसे कर सकेगा?

यहीं पर हम सीखते हैं एक महत्त्वपूर्ण बात और वह है अपनी मर्यादा की सीमा। हेमाडपंत को स्वयं के मर्यादा का पूरा ध्यान है, उन्हें स्वयं की क्षमता का पूरा ध्यान है और इस तरह अपनी मर्यादा का अपनी सीमा का ध्यान रहना ही मर्यादापुरुषार्थ की पहली सीढ़ी है। अपने बारे में अवास्तव ऐसी कल्पनाएँ बिलकुल न करते हुए वास्तविकता का ध्यान रखना यही महत्त्वपूर्ण बात है। अपनी मर्यादा का ध्यान रखकर तथा इसके साथ ही ये भगवंत और इस भगवान के सामर्थ्यपर पूरा विश्‍वास रखकर भगवान की भक्ति से, उनके नियमानुसार उनके द्वारा दिखाए गए मार्ग पर चलत हुए अपनी क्षमता को बढ़ाते रहना ही मर्यादा पुरुषार्थ साध्य करना, साथ ही अपने जीवन का भी विकास करना। यही नरजन्म की इतिकर्तव्यता है। ग्रन्थराज श्रीमद्पुरुषार्थ भी हमें यही बताते हैं।

उदा.- आज मैं तीन फ़ीट की ऊँचाई तक उछलकर कूद सकता हूँ और मुझे ऊँचाई तक उछलकर कूदनेवाली प्रतियोगिता में भाग लेकर ऊँच्चांक प्रस्थापित करना है तो इसके लिए मेरे आज की क्षमता का अंदाजा लगाकर मैं कितने कालावधी में कितनी प्रगति कर सकता हूँ इस बात का अभ्यास कर निरंतर धीरे-धीरे करनेवाले अभ्यास से रोज १/२ इंच, १ इंच अधिक ऊँचाई तक कूदने का प्रयास करते रहकर मुझे अपने ध्येय की प्राप्ति करनी चाहिए तथा मुझे मेरे प्रयासों को यश देने वाले, मुझे सामर्थ्य पूरा करने वाले भगवान ही हैं। इस विश्‍वास के साथ उनकी भक्ति भी करते रहना है। इस उचित मार्ग का अवलंबन करते हुए ऊँची कूद प्रतियोगिता में यश प्राप्त करना यही मर्यादा पुरुषार्थ हैं। इसके बजाय उत्तेजक गोलियाँ एवं इंजेक्शन लेकर यदि मैं प्रतियोगिता के दिन इस प्रतियोगिता के लिए निकलता हूँ तो यह मर्यादा का उल्लंघन ही है। कारण इस तरह के उत्तेजक द्रव्य का सेवन करके किसी भी स्पर्धा में भाग लेना सर्वथा अनुचित ही है! इसी बात का ध्यान हमें सदैव रखना चाहिए।

साईसच्चरित में जगह-जगह पर हेमाडपंत की पंक्तियों द्वारा हमें पता चलता है कि उन में इस वास्तविकता का ध्यान कितना दृढ़ है। यही है स्वयं की मर्यादा का ध्यान रखकर अपनी औकात में रहना। साईनाथ ने मुझे अपने कितने ही करीब क्यों न रखा हो, बाबा मुझसे हास्य विनोद करते हैं, बाबा ने मुझे उनके बस्ते को रखने जैसा महत्त्वपूर्ण काम दिया है फ़ीर भी यह सब मुझे मेरी योग्यता के कारण ही मिला है ऐसा न मानकर यह सब मुझे बाबा की करुणा से ही मिला हैं। इस बात का ध्यान सदैव रखना चाहिए। बाबा ने मुझ पर यह काम सौंपा है, मुझ पर इस कार्य की जिम्मेदारी सौंपी है इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि मैं कितना महान हूँ, मेरे बिना बाबा का पत्ता भी नहीं हिल सकता है, बाबा को मेरी बहुत ज़रूरत है! इस प्रकार की गलत़फ़हमी यदि कोई करता है तब तो उसके समान बद्किस्मत और कोई हो ही नहीं सकता है।

बाबा का किसी के बिना कभी कुछ भी रुकता नहीं है, बाबा को किसी की भी ज़रूरत नहीं हैं। बाबा ने यह काम मुझे दिया है इस मे मेरा कोई बड़प्पन न होकर बाबा को इसी माध्यम से मेरा विकास करना है। बाबा ने मुझे मेरी प्रगति का अवसर देने के लिए यह कार्य मुझे सौंपा हैं और वह बाबा की न होकर मेरी ही ज़रूरत है। बाबा किसी से भी, कुछ भी करवा सकते हैं। यह कार्य क्या केवल मैं ही कर सकता था? बाबा का हाथ यदि सिर पर हो तो पागल व्यक्ति के मुख से ही वेद निकलने लगते हैं, इस बात का ध्यान तो मुझे होना ही चाहिए। हेमाडपंत के आचरण से स्वयं के मर्यादा का ध्यान एवं सद्गुरुराया के सामर्थ्य के प्रति पूरा विश्‍वास यही हमें सीखना चाहिए। यदि हेमाडपंत इस भूमिका को स्पष्ट रुप में प्रस्तुत करते हैं, तो फ़ीर हमें भी यह जानना चाहिए। १८ वी पंक्ति में हेमाडपंत यही मर्म हमें बताते हैं।

मेरे भी मन में यही स्फूर्ति । चेता रही थी वही भगवन्तमूर्ति।
स्वयं यदि मैं जड़ मूढ़मति। निजकार्यपूर्ति वे ही जानतें॥

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