श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-२७)

हेमाडपंत सद्गुरुकृपा की महिमा लिखते समय कहते हैं –

यही है गुरुकृपा की महिमा। कि जहाँ पर न हो रत्ती भर भी नमी।
वहाँ पर भी वृक्ष पुष्पित हो उठता है। घना हो उठता है बिना प्रयास के ही॥

उपरोक्त पंक्ति से हमें यही सीख मिलती है कि जहाँ पर बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी, वहाँ पर साईबाबा की कृपा से अचिन्त्य एवं अद्भुत कार्य भी हो सकता है। जहाँ पर घोर अंधकारमय प्रारब्ध के कारण जीवन में रत्ती भर भी प्रकाश की किरण के आने की संभावना नहीं होती, वहाँ पर तेज एवं प्रकाश फैलाने की ताकत केवल बाबा में ही है। जहाँ पर इतनी अधिक बंजर जमीन है कि वहाँ पर घास की एक पत्ती के भी उगने की संभावना नहीं होती, वहाँ पर नंदनवन खिला देने का सामर्थ्य केवल साईनाथ जी के पास ही है। संपूर्ण साईसच्चरित में इस पंक्ति को स्पष्ट करनेवाले अनेक उदाहरण हैं। हेमाडपंत ५२ वे अध्याय में स्वयं के बारे में इसी उदाहरण को सुस्पष्ट रूप में बताते हैं।

यह साईसमर्थचरित। करवाना इसकी रचना मुझ जैसे के हाथों से।
यह कार्य बगैर साई कृपा के। कदापि नहीं हो सकता॥
ना ही था अधिक दिनों का सहवास। ना ही संतों के पहचान का ज्ञान॥
ना ही शोधक दृष्टि का साहस। कहाँ था विश्‍वास संपूर्ण॥
ना ही कभी की थी अनन्यभाव से उपासना। ना कभी पल भर भी किया भजन।
ऐसे व्यक्ति के हाथों चरित्रलेखन करवाकर। दुनिया को दिखला दिया॥
साध्य करने हेतु निज वचन। साई ही याद दिलाते रहे ।
इस ग्रंथ को, पूरा भी करवा लिया यह उन्हीं का निजकार्य। हेमाड तो बस नाम के लिए है॥
मशक कहाँ उठा पायेगा मेरु पर्वत को। टिटिहरी कहाँ सोंख पायेगी सागर को।
पर सिर पर हो जब सद्गुरु का हाथ। तब असंभव भी संभव हो सकता है॥

सद्गुरु साईनाथ ‘असंभव को संभव’ बना देते हैं, यह हेमाडपंत का वचन यह द्वितीय अध्याय की पंक्ति का स्वानुभावात्मक स्पष्टीकरण है। साईनाथ जी ने हेमाडपंत के जीवन में जो अद्भुत कार्य किया था उसके बारे में, ‘जहाँ पर कुछ भी नमी नहीं थी, वहाँ पर सूखा था, फिर भी वहाँ की ज़मीन को हराभरा कर दिया’ इस पंक्ति के द्वारा हेमाडपंत स्वयं बता रहे हैं, स्वानुभव से बता रहे हैं। साईसच्चरित में ग्रंथरुपी पेड़ बाबा ने मेरे जीवन में हरा-भरा कर दिया, यही इस साईनाथ की अद्भुत लीला है, अन्यथा मुझ जैसे इन्सान के हाथों साईसच्चरित जैसे ग्रंथ की विरचना होना नामुकिन ही था।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईहेमाडपंत कहते हैं, साईबाबा का चरित लिखने के लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि दीर्घकाल तक शिरडी में रहकर, बाबा के सान्निध्य में रहकर, बाबा को करीब से देखना। जिनका चरित्र लिखना है उन्हें करीब से दीर्घकाल तक निहारना, उनकी दिनचर्या, आचरण, उनकी लीलाओं का स्वयं अनुभव लेकर बाबा का उच्चारण, कृति आदि का प्रत्यक्ष अनुभव लेना यह सब ज़रूरी है। परन्तु मैं तो शिरडी में थोडे समय तक ही रहा; मुझे तो बाबा का काफ़ी लम्बे समय तक सहवास भी प्राप्त नहीं हुआ, पर फिर भी बाबा ने मुझ से यह चरित्र लिखवा ही लिया। सच में देखा जाए तो हेमाडपंत शारीरिक रूप में शिरडी में उपस्थित नहीं थे, बस इतना ही, अन्यथा उनका मन तो कब का साई के साथ एकरूप हो चुका था और साईनाथ की कृपा उनके जीवन में प्रवाहित होने का यही विशेष कारण है।

साईसच्चरित में इस प्रकार के अनेक उदाहरण हम देखते हैं। भीमाजी पाटील जब शिरडी आए थे, तब उनके बचने की सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी थीं। सब कुछ कर चुके होने के बावजूद भी कोई लाभ होना तो दूर रहा, उलटे जानलेवा बीमारी अपने पैर पसारती चली जा रही थी। परन्तु सारी उम्मीदें खत्म हो जाने के बावजूद भी साई ने अद्भुत लीला दिखलायी और भीमाजी को जीवनदान प्राप्त हुआ। बिलकुल भी नमी न होनेवाली ज़मीन पर भी पेड खिल उठा यानी जीने की ज़रा सी भी उम्मीद न होने पर भी भीमाजी को पुन: जीवन प्राप्त हुआ और वह भी सुंदर, सुखमय और साईनाथ की भक्ति से ओतप्रोत।

उदी के इस प्रकार के अनगिनत अनुभव हम साईसच्चरित में तो देखते ही हैं। नानासाहब के पैरों तले की मिट्टी, वह भी उन्होंने अपनी स्वयं की पत्नी के माथे पर लगायी थी और उदी लगाने का भाव मन में रखकर लगायी गई वह मिट्टी दूर गाँव में रहनेवाली लड़की की बीमारी पर अपना प्रभाव दिखाती है। उसे वहाँ पर तुरन्त ही आराम मिल जाता है। यह अनुभव भी इसी तरह साईनाथ की अद्भुत लीला ही है। उस बीमार लड़की ने भले ही साईनाथ को नहीं देखा होगा, वह बाबा पर श्रद्धा रखती है या नहीं यह भी हम नहीं जानते, पर फिर भी बाबा ने उसके जीवन में स्वास्थ्य का वृक्ष हराभरा कर ही दिया।

औरंगाबाद के सखाराम की पत्नी को बच्चा नहीं हो रहा था। बाबा ने उसके आँचल में नारियल डाल दिया और एक वर्ष के अंदर ही वह अपने नवजात शिशु को लेकर शिरडी आ गयी। दामूअण्णा के मामले में भी ऐसा ही हुआ, आम के माध्यम से। सपटणेकर ने तो भगवान ने ही मेरे बच्चे को मार डाला ऐसा दोष लगाया, आगे चलकर पश्‍चातापपूर्वक साईनाथ की शरण में आनेवाले सपटणेकर को पुन: पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई।

आंबडेकर तो प्रारब्ध के दुष्चक्र में कुछ इस प्रकार से फँस चुके थे कि एक दिन आत्महत्या करने के लिए एक कुँए में कूदने का उन्होंने तय कर लिया, परन्तु वहाँ पर भी साईनाथ जी अपनी लीला से उन्हें पुन: उचित मार्ग पर ले आए। आगे चलकर उनके जीवन में भी अच्छे दिन लौट आए। आंबडेकर के जीवन में भी इसी तरह की अंधकारमय रात आयी थी, जहाँ पर पुन: कभी सूर्यप्रकाश होगा भी, इस बात की आशा तो उन्होंने बिलकुल ही छोड़ दी थी। अब तो बस इससे छुटकारा पाने के लिए मृत्यु को ही गले लगाना पड़ेगा। यह विचार मन में उन्होंने दृढ़ कर लिया था। परन्तु ऐसा कृत्य करने से कर्म से मुक्ति नहीं मिलती, उलटे आत्महत्या करने के विचार का पाप भी प्रारब्धभोग बनकर जीवन पर हावी हो जायेगा। चाहे जो भी हो जाये, जो भोग बाकी रह जाता है, उसे तो कहीं ना कहीं भुगतना ही है। इसके साथ ही प्रज्ञापराध के कारण वह और भी अधिक प्रखर हो उठता है। ऐसे में बिलकुल भी नमी न होनेवाले आंबडेकर के जीवन में साईनाथ ने सुख-शांति का पेड़ हराभरा किया है।

हमारे जीवन में भी कभी-कभी हमें ऐसा लगता है कि अब यह जीवन बिलकुल रेगिस्तान बन चुका है। सुख, शांति, तृप्ति, समाधान इनका वृक्ष कभी मेरे जीवन में हराभरा होगा ऐसा नहीं लगता है। परन्तु साईसच्चरित की यह पंक्ति, ऊपर दिए गए अनुभव और इसी प्रकार के अनुभवों के समान साईसच्चरित के अनेक अनुभव भी हम से यही कह रहे हैं कि इस प्रकार से निराश, हताश, उदास न होते हुए इस साईनाथ पर पूरा विश्‍वास रखिए। अनन्यभाव से इनकी शरण में जाइए। इस साईनाथ का गुणसंकीर्तन करते रहिए। यह गुणसंकीर्तन सब से अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि साईनाथ के गुणों का संकीर्तन करने से बाबा का एक-एक ऐश्‍वर्य हमारे जीवन में प्रवाहित होते रहता है। साईनाथ की कृपा ही प्रारब्ध का नाश करती है और भक्त के जीवन में घना हराभरा वृक्ष खिला देती है।

यहाँ पर पेड़ का रूपक दिया गया है, क्योंकि जैसे वृक्ष हमें छाया देता है, फल देता है, प्राणवायु देता है, बिलकुल वैसे ही साईनाथ की कृपा हमारे रूखे तपते थके-हारे जीवन में हमें छाया, तृप्ति, सन्तोष एवं शांति प्रदान करती है और यह कार्य केवल साईनाथ की कृपा ही कर सकती है।

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