श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ६२

जिसे हरिनाम का आलस। बाबा भी रहते उससे दूर।
कहते व्यर्थ ही रोहिले को क्यों परेशान करते हो। भजन की आदत जिसे॥
(जयासी हरिनामाचा कंटाळा। बाबा भीती तयाच्या विटाळा। म्हणती उगा कां रोहिल्यास पिटाळा। भजनीं चाळा जयातें॥)

रोहिले की कथा के संदर्भ में हमने पिछले भाग में नाम एवं नामस्मरण के संबंध में देखा।

परमात्मा का नाम चंचल मन को स्थिर करने का काम करता है। यह हमने पिछले लेख में देखा। परन्तु नाम एवं मन ये किस तरह से कार्य करते हैं अर्थात मन पर नाम किस तरह से अपना प्रभाव डालता है यह प्रश्‍न भी खड़ा हो सकता है।

भगवान का नाम एवं मनुष्य का मन यह मानवी दृष्टि को न दिखायी देनेवाले इस सृष्टि के तत्त्व हैं।

नाम अर्थात ध्वनिलहरें जिस मनुष्य के मुख की राह से बाहर निकलती हैं और मन यह अणुस्वरूप एवं एक है।

आयुर्वेद के अनुसार वायु अर्थात शरीर में होनेवाला वातदोष यह मन के लिए प्रेरणादायी है।

प्रणेता च मनस:।

अर्थात मनुष्य के शरीर में होनेवाली मन की हर एक गतिविधि अर्थात क्रिया जो वायुद्वारा ही होती हैं।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईध्वनि लहरें ये आँखों से दिखाई नहीं देती मात्र शब्दरूप में सुनकर हम ध्वनि लहरों का अनुभव ले सकते हैं। और ‘शब्द’ अर्थात वायु महाभूत का विशेषगुण। अर्थात मन का कार्य करनेवाला जो वायु है, वही वायु अर्थात ध्वनिलहरें। यह वायु ही जैसे मन की क्रिया करवाता है वैसे ही बिलकुल ये ध्वनिलहरें भी मन पर कार्य कर सकती हैं। अर्थात नाम मन पर कार्य करता हैं। और इसीलिए चंचल मन को स्थिर करने के लिए परमात्मा ने मनुष्य को नामरूपी साधन उपलब्ध करके दिया है। नाम ही नामी है। इसीलिए मनुष्य के चंचल मन को स्थिर करनेवाले एक मात्र केवल वे ‘परमात्मा’ ही हैं।

परमात्मा का नाम कोई भी, कहीं भी, कभी भी लेता है तो वह मनुष्य के मन पर अपना प्रभाव डालता ही हैं। परन्तु मन जब स्वयं ही परमात्मा का नाम लेता है, उस समय उसका वह कार्य और भी अधिक सुंदर तरीके से होता है, और जब सामूहिक रूप में परमात्मा के नाम का उच्चारण किया जाता है, उस वक्त तो वह केवल एक ही नहीं बल्कि वहाँ पर उपस्थित हर एक व्यक्ति के मन पर कार्य करता ही है।

नाम एवं मन का यह अति सुंदर संबंध हर एक मनुष्य के लिए होता है।

मात्र यह प्रश्‍न जरूर खड़ा हो सकता है कि नाम यह आखिर लेना कैसे है?

नाम लेने के संबंध में आदर्श के रूप में हम रामायण के दो भक्त श्रेष्ठों का उल्लेख कर सकते हैं। जानकीमाता एवं महाप्राण श्रीहनुमानजी।

जानकी माता तो साक्षात भक्ति ही हैं। परन्तु वे अशोकवन में निरंतर रामनाम ही ले रही थीं। रामनाम के अलावा जानकीमाता ने अशोकवन में और कुछ भी नहीं किया।

महाप्राण हनुमानजी तो सदैव रामनाम ही लेते रहते हैं। जब ये दोनों ही सतत रामनाम ही लेते रहते हैं। तो फिर सोचनेवाली बात यह है कि सामान्य मानव को स्वयं के लिए रामनाम की कितनी आवश्यकता है यह जानना जरूरी है।

वाल्मिकी ने भी रामनाम लिया। मात्र आरंभ में उन्होंने ‘राम’ नाम का उच्चारण करने के बजाय ‘मरा’ इसतरह से उलटा उच्चारण करना आरंभ कर दिया। पर फिर भी उसके दिल में रामनाम की तड़प उठ रही थी, उसके उस भाव को परमात्मा ने जान लिया और वही वाल्मिकी महर्षि वाल्मिकी बन गए। तात्पर्य यह है कि नाम लेने के पिछे हमारा भाव कैसा है। वह अधिक महत्त्वपूर्ण है। उसके उच्चारण की चिंता करेन के लिए वे परमात्मा समर्थ है ही।

फिर मनुष्य यदि रुक्षभाव रखकर नाम लेता है तो चलेगा क्या? इस प्रश्‍न का उत्तर श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज दे रहे हैं। नाम लेते रहने से प्रेम अपने-आप ही बढ़ते रहता है। और प्रेम जैसे-जैसे बढ़ता है प्रेम के साथ-साथ काम का प्रभाव भी स्पष्ट रूप में दिखाई देने लगता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि हम जब नाम का उच्चारण करते हैं और प्रेम हममें नहीं है, तो वे परमात्मा ही हममें प्रेम उत्पन्न करते हैं। क्योंकि इस विश्‍व में केवल ‘वे’ परमात्मा ही हममें प्रेम उत्पन्न करते हैं, क्योंकि इस संपूर्ण विश्‍व में केवल वे परमात्मा ही ‘अनन्यप्रेमस्वरूप’ है। और ‘बिनालाभ प्रिती’ करनेवाले हैं।

जो स्वयं ही प्रेम हैं वही दूसरों को प्यार दे सकते हैं और वे मनुष्यों से भी केवल प्रेम की ही अपेक्षा करते हैं। मात्र मनुष्य को चाहिए कि वह हमेशा ही नीति एवं मर्यादा के आधार पर होनेवाला शुद्ध एवं पवित्र प्रेम ही परमात्मा को दे।

परमात्मा पर प्रेम करना सिखाने के लिए श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराजने ‘रससाधना’ का मार्ग हर किसी को दिखाया है।

रससाधना में परमात्मा का नाम लेन यह किया तो है ही, परन्तु जैसे-जैसे यह नामस्मरण सतत होने लगता है वैसे-वैसे ही इस परमात्मा के प्रति होनेवाला प्यार भी बढ़ने लगता है।

भगवान की अपेक्षा यही होती है कि मनुष्य को दिन के चौबीस घंटे में से हर एक दिन चौबीस मिनट नाम तो लेना ही चाहिए। इस चौबीस मिनट का चौबीस घंटा होने के लिए प्रयास मात्र मनुष्य को ही करना पड़ता है।

नाम लेने से परमात्मा के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है, यह बात यदि हम समझ ले तो हमें पता चलेगा कि हेमाडपंतने आरंभिक पंक्ति में कहा है कि जो जान जायेगा हरि नाम की चाह वही बाबा को प्रिय होगा।

परमात्मा का नाम लेना और परमात्मा के प्रति प्रेम उत्पन्न होना ये ये समांतर रूप से घटित होनेवाली क्रियाएँ है। इससे हम समझ सकते हैं कि सच में देखा जाए तो हमें करना ही क्या है तो केवल मात्र लेने का प्रयास, नाम लेने की कोशिश।

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