श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ५१

बाबा ने हेमाडपंत से जो कुछ भी कहा, वह हम सभी के लिए भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। हमें कोई भी नौकरी-व्यवसाय आदि करते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखना है कि हम साईनाथ के चाकर हैं। इसी लिए कहीं पर भी नौकरी करते समय वहाँ पर पवित्रता है या नहीं, वहाँ पर परमेश्‍वरी नियम अर्थात पवित्रताधिष्ठित सत्य, प्रेम, एवं आनंद के अनुरूप कार्य हो रहा है या नहीं, इस बात का ध्यान रखना है। जहाँ पर मेरे साईनाथ के प्रति सम्मान की भावना नहीं है, जहाँ पर साईनाथ के द्वारा बनाये गए नियमों का आदर नहीं है, पालन नहीं है, ऐसे स्थान पर नौकरी करने से क्या लाभ? क्योंकि न्यायनीतिमर्यादा का पालन किए बगैर जहाँ पर काम चलता है, ऐसे स्थान पर उनके साथ पाप का भागीदार मुझे नहीं बनना है। यह मुझे निश्‍चित कर लेना चाहिए। साईनाथ की चाकरी करनेवालों को अपनी नौकरी-व्यवसाय आदि करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए। यही बात स्वयं साईनाथ प्रस्तुत पंक्तियों द्वारा स्पष्ट कर रहे हैं।

(कांहीं केलें काय झालें। म्हणती जन ते समजा चळले। धर्माचरण जयांनीं वर्जिलें। तयांस पहिलें वर्जावे॥
समोर येता बाजूसी जावें। महाभयंकर ते समजावे। त्यांच्या छायेसही न रहावें। पडल्या सहावे कष्टही॥
आचारहीन शीलभ्रष्ट। विचारहीन कर्मनष्ट। देखेना जो इष्टानिष्ट। केवीं तो अभीष्ट पावेल॥

हम चाहे जो भी करें तो क्या होता है। जो स्वैराचारी लोग ऐसा कहते हैं।
धर्माचरण जिन्होंने व्यर्ज्य किया है। सर्वप्रथम उनका ही त्याग कर देना चाहिए॥
सामने आते देख उन्हें एक ओर से निकल जाना है। ऐसे लोगों को खतरनाक समझना चाहिए।
उनकी परछाई से भी दूर रहना है। जरूरत पड़ने पर कष्ट सहकर भी॥
आचारहीन शीलभ्रष्ट। विचारहीन कर्मनष्ट।
देखे ना जो इष्ट-अनिष्ट। उसे कैसे अभीष्ट की प्राप्ति होगी॥

इन पंक्तियों का सरलार्थ स्पष्ट ही है कि हमें बाबा के कहेनुसार ही आचरण करना चाहिए। इनमें से सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि मर्यादाबाह्य आचरण करने वालों से हमेशा दूर रहना चाहिए। ‘हम चाहें जो भी करें तो क्या होता है। जो स्वैराचारी लोग ऐसा कहते हैं। धर्माचरण को जिन्होंने वर्ज्य कर दिया है। सबसे पहले उन्हें वर्ज्य कर देना चाहिए।’’

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईबाबा सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात इस पंक्ति के माध्यम से हमें समझा रहे हैं। ‘सर्वप्रथम किसे वर्ज्य करना चाहिए’ यही बात बाबा हमें बता रहे हैं। ‘चाहे जो भी करें क्या होता है’ ऐसा कहनेवाले जो लोग हैं, उन अधर्मचारियों का, दुराचारियों का सर्वप्रथम त्याग कर देना चाहिए, यही बात बाबा बता रहे हैं। ‘चाहे जो भी करें क्या होता है’ यह कहनेवाले मर्यादाभंग करने वाले ही स्वयं पथभ्रष्ट होकर दूसरों को भी पथभ्रष्ट करते हैं। कर्म के अटल सिद्धांत को नकारनेवाले लोग ऐसा कहते हैं कि किए कर्म के अनुसार ङ्गल की प्राप्ति तो होती नहीं, कर्मानुसार ङ्गल प्राप्त होता दिखाई नहीं देता अर्थात कर्म का अटलसिद्धांत व्यर्थ है। ऐसे पाखंड़ियों का त्याग तो सर्वप्रथम कर देना चाहिए।

कर्म का अटल सिद्धांत यह भगवान का नियम है अर्थात भगवान जब स्वयं भी मानव देह धारण करते हैं, तब वे भी स्वयं इस नियम का पालन करते ही हैं। ‘जो जो जैसा जैसा करेगा, वह वह वैसा वैसा भरेगा’ यह बात साईनाथ स्वयं ही कहते हैं।

परन्तु भगवान पर होनेवाला लोगों का विश्‍वास खंडित हो जाए ऐसी इच्छा रखकर कार्य करनेवाले दुराचारी पाखंडी हमारा घात करने के लिए गलत युक्तिवाद करते हैं, इसीलिए सर्वप्रथम उनका ही त्याग कर देना चाहिए ऐसा बाबा कहते हैं।

ये बुद्धिभेद करनेवाले दुराचारी, नास्तिक हमसे कहते हैं –

‘देखो तुम इस भगवान की इतनी भक्ति करते हो, सेवा करते हो, उनका नाम लेते हो, उनके चरित्र का गायन करते हो, तो फिर तुम्हारे जीवन में इन संकटों की शृंखला कैसे चलती रहती है?

तुम लोग इतना अधिक सत्कर्म करते हो, परन्तु उसका अच्छा परिणाम, पुण्यप्रसाद तुम्हें मिलता दिखाई नहीं देता। वहीं, जो दुराचारी हैं वे नित्यप्रति अपराध करके भी ठाट-बाट के साथ घूमते-फिरते दिखाई देते हैं। फिर तुम्हारी इस भक्ति-सेवा का क्या उपयोग?

क्या करने चला था और क्या हो गया? अर्थात जो कर्म किया, उसके अनुसार तो ङ्गल प्राप्त नहीं हुआ। इतना सब कुछ ठीक-ठाक करने पर भी दु:ख ही नसीब हुआ। दूसरे लोगों का व्यवहार साई के नियम के विरुद्ध होने पर भी उन्हें बरकत ही मिलती है। ऐसा क्यों?

कहाँ गया तुम्हारे कर्म का अटल सिद्धांत? कहाँ गया तुम्हारे परमेश्‍वर का न्याय?’

इस तरह से ‘चाहे जो भी करें क्या होता है’ कहनेवाले अपनी बीन बजाते ही रहते हैं और साथ ही गलत झूठे दावें करके भक्तिमार्ग पर चलनेवालों का बुद्धिभेद करते रहते हैं। ऐसे लोग श्रद्धावान की श्रद्धा में ही छेद उत्पन्न करते रहते हैं।

कर्म का अटल सिद्धांत भी पूर्ण रूप से सत्य है और मेरे भगवान भी न्यायी हैं ही यह बात भी १०८% सत्य ही है, यह हमें ऐसे लोगों को कडे शब्दों में बताना ही चाहिए और ऐसे लोगों से सदैव दूर ही रहना चाहिए।

ऐसे लोगों के साथ हमें बिलकुल भी संबंध नहीं रखना चाहिए। जिन लोगों का भगवान पर एवं उनकी न्यायव्यवस्था पर विश्‍वास है ही नहीं और वे दूसरों के विश्‍वास को भी तोड़ने की कोशिश में लगे रहते हैं, ऐसे लोगों को उपेक्षित कर देना ही श्रेयस्कर है।

हर किसी के प्रारब्ध में अच्छे-बुरे कर्म होते ही हैं और इसी के अनुसार सब को अपने-अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। इस जन्म में भले ही मैं भक्तिमार्ग पर चल रहा हूँ, अच्छे कर्म भी कर रहा हूँ परन्तु पिछले अनेक जन्मों का क्या? उनमें किए गए बुरे कर्मों का फल तो मुझे भुगतना ही है। यह भी मैं जानता हूँ कि श्रद्धावानों के पक्षपाती होनेवाले भगवान मेरे बुरे प्रारब्ध को भी बिलकुल सौम्य करके मुझे दे रहे हैं और यह केवल वे ही कर सकते हैं। मेरे प्रारब्ध के अनुसार मुझे बिलकुल तीखी मिरची खानी थी, वह इस साईनाथ की कृपा से सिमला मिरची खाने को मिली। अर्थात् सौम्य रूप में मुझे अपने प्रारब्ध को भुगतना पड़ रहा है। ना जाने कितने ही दुष्प्रारब्ध भोगों का नाश साईनाथ ने कर ही दिया है।

जो इस जन्म में बुरा आचरण करनेवाले हैं, उनका सब अच्छा होता दिखायी दे रहा है तो हो सकता है कि यह उनके पिछले जन्मों के कुछ अच्छे कर्मों का फल उन्हें मिल रहा है। इसीलिए उन्हें हम ऐशोआराम की ज़िंदगी बिताते हुए देख रहे हैं, आज नहीं तो कल उन्हें अपने बुरे कर्मों का ङ्गल भी भुगतना ही है।

मेरे भगवान न्यायी हैं इसीलिए वे हर किसी को उसके अपने कर्मानुसार फल दे रहे हैं। वह व्यक्ति इस जन्ममें बुरा बर्ताव कर रहा है, मग़र इस कारण उसके पिछले जन्म के अच्छे कर्मों के फल से उसे वंचित नहीं रखा जायेगा, यह भगवान का न्याय है।

अत एव ऊपरी तौर पर देखनेवालों को यह विरोधाभास दिखाई देता है। परंतु सच पूछा जाए तो बुद्धिभेद करनेवाले लोग हमें जो उदाहरण, गलत बातों के समर्थन हेतु दे रहे होते हैं, वही उदाहरण सच में देखा जाए तो परमात्मा के न्यायी होने एवं कर्म के अटल सिद्धांत के सच्चाई से ही संबंधित है।

‘चाहे जो भी करें क्या होता है’ ऐसा तो कभी हो ही नहीं सकता है। जो ऐसा कहता है वह परमेश्‍वरी श्रद्धा से दूर हो चुका होता है और वह दूसरों का बुद्धिभेद करता है। ऐसा स्वैर, दुराचारी फिर न्यायनीति को ठुकराकर अधर्म का आचरण करने वाला बन जाता है। उसकी नजरों में नैतिक मूल्य, परमेश्‍वरी नियम, न्यायनीति आदि का कोई महत्त्व नहीं होता है।

इसी लिए साईनाथ कहते हैं कि ऐसे लोगों का सर्वप्रथम त्याग कर दो। ज़रूरत पड़ने पर तकलीङ्ग उठानी पडे तो उठा लो, परन्तु ऐसे लोगों के साथ किसी भी प्रकार का संबंध मत रखो। ये लोग स्वयं तो दलदल में फँसे होते ही हैं, साथ ही हमें भी दलदल में खींचने के लिए प्रयासरत रहते हैं। इसीलिए भगवान की और उनके न्यायी होने की निंदा करनेवालों को तुरंत ही त्याग देना चाहिए, यही श्रीसाईनाथ हम से कहते हैं।

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