श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ५२

‘‘जिन लोगों का भगवान पर विश्‍वास नहीं, भगवान के न्यायी होने पर विश्‍वास नहीं, जिन्हें कर्म का अटल सिद्धांत मान्य नहीं, ऐसे नीति-न्याय-नियमों की परवाह न करनेवाले दुराचारियों से सर्वप्रथम दूर रहो।’’

‘जिनका भगवान पर विश्‍वास न हो, जिन्हें कर्म का अटल सिद्धांत मान्य न हो ऐसे नीतिनियमों को ठुकराकर अपनी मनमानी करनेवाले दुराचारियों का सर्वप्रथम त्याग कर देना चाहिए’ इस साईनाथ के मौलिक वचन को हमें अपने जीवन में उतारना चाहिए। क्योंकि ऐसे ये नास्तिक दुराचारी हमारे जीवन में विष घोलते रहते हैं। बिच्छू के केवल डंक में ही विष होता है, साँप के केवल दाँतों में ही विष होता है, परन्तु इन दुष्ट-दुर्जनों के सर्वांग में ही विष भरा रहता है। ऐसे लोग सामने से आते हुए भी यदि दिखाई दें तो हमें तुरंत ही अपना मार्ग बदल देना चाहिए। ऐसे लोग जानबूझकर हमारी दिशा में आते ही रहते हैं, क्योंकि इन्हें हमें दलदल में ङ्गँसाने में ही खुशी मिलती है। इसी लिए ऐसे लोग जब भी हमें हमारी तरफ आते दिखायी दें तो हमें तुरंत ही मार्ग बदल देना चाहिए। ऐसे लोगों की ओर पलटकर देखना भी नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसे लोगों की परछाई भी हम पर पड़ना घातक ही होता है।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईसुंदरकाण्ड में सीतामैया का आचरण हमारे लिए मार्गदर्शक है। सीतामैया श्रद्धावानों की आद्य आचार्या हैं। अशोकवन में रावण के बंदीवास में कष्ट सहते हुए सीतामैया रावण के डराने-धमकाने से ज़रा सी भी भयभीत न होकर, रावण जब भी उनके समक्ष उनका बुद्धिभेद करने की कोशिश करने के लिए आता है, उस वक्त वे रावण की ओर देखे बगैर ही उसे स्पष्ट उत्तर देती हैं। हमें भी ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए।

सीतामैया की बुद्धिभेद करने के लिए रावण ‘क्या किया, क्या हुआ’ यही रट लगाये रहता है। रावण सीतामैया को यही बताना चाहता है कि राम की भक्ति करने के बावजूद भी आज तुम्हें इतना दुख भुगतना पड़ रहा है, मैंने तुम्हें बंदी बनाकर यहाँ पर रखा है। तुम्हारे पति को मारिच के द्वारा फँसाकर उसके पीछे जाने पर मजबूर कर दिया, तुम्हारा पति तुम्हारी रक्षा भी न कर सका, उसे अभी तक तुम्हारे यहाँ होने का पता भी नहीं चला है, वह वनवास में अपने भाई के साथ अकेला पड़ गया है, वह लंका तक पहुँचेगा भी कैसे और मान लो पहुँच भी गया तो इतनी बड़ी राक्षसीसेना के सामने कर भी क्या सकता है? इस प्रकार से रावण सीतामैय्या का बुद्धिभेद करने के विधान रच रहा था। परन्तु सीतामैया उसकी ओर भूल से कभी पलटकर देखती भी नहीं थीं। यही है, ‘सर्वप्रथम उन्हें वर्ज्य करो।’

‘क्या किया, क्या हुआ’ यह रावण का बुद्धिभेद करनेवाला विधान है। श्रद्धावानों को यह रावणवृत्ति हमेशा ही तकलीफ पहुँचाती रहती है। ‘तुम इतनी राम की भक्ति करते रहते हो, सेवाकार्य में सहभागी होते रहते हो, राम का नाम स्मरण करते रहते हो फिर भी तुम्हें यह सब क्यों भुगतना पड़ता है। तुम्हारे राम तुम्हें इस तरह से प्रारब्ध के बंदीवास में कैसे रहने देते हैं? क्या तुम्हारी इस स्थिति से तुम्हारे राम परिचित भी हैं? इतनी भक्ति करने के बाद भी तुम्हें क्या प्राप्त हुआ? इस प्रकार से बुद्धिभेद करनेवाली रावणवृत्ति हमारा घात करने के लिए तत्पर रहती है। इसी लिए इस प्रकार के रावण को ‘सर्वप्रथम वर्ज्य कर देना चाहिए’। सीतामैय्या जिस तरह से उसकी ओर भूल से भी नहीं देखती हैं, बिलकुल उसी तरह से इन नास्तिक, दुराचारियों की रावणवृत्ति की हमें हमेशा उपेक्षा करनी चाहिए।

यह रावण सीतामैया का बुद्धीभेद करने के लिए बारंबार आता रहता है। परन्तु सीतामैया एक बार भी उसकी ओर नहीं देखती हैं। रावण जाते समय अन्य राक्षसियों से कहता है कि सीता को जितना हो सके कष्ट पहुँचाओ। फिर भी सीतामैया विचलित नहीं होती। यही उदाहरण है, हेमाडपंत के द्वारा इस ओवी में लिखे गये ‘पड़े सहने कष्ट भी’ इन शब्दों का। सीतामैया ने स्वयं कितने कष्ट सहे, राम का विरह सहन किया, बंदीवास सहन किया, सीतामैया के समान कष्ट-तकलीफ किसी ने भी नहीं उठायी है। फिर हमें थोड़ी सी भी तकलीफ उठानी पड़ी तो हम क्यों झटपटाने लगते हैं?

हमें सीतामैया का आदर्श सदैव सामने रखते हुए दुष्ट-दुर्जनों को सर्वप्रथम वर्ज्य करना चाहिए, उनकी परछाईं भी अपने ऊपर नहीं पड़ने देनी चाहिए। चाहे भले ही कितनी भी तकलीफ क्यों न उठानी पड़े कोई परवाह नहीं, परन्तु दुराचारी दुर्जनों की परछाई से भी सावधान रहें। जो स्वयं ही आचारहीन, शीलभ्रष्ट है, जिसके विचार भी अच्छे नहीं हैं, जिसका कर्म भी स्वैर है, जो इष्ट-अनिष्ट का विचार किए बगैर यथेच्छ वर्तन करता है, गलत बोल बोलता है, वैसा ही व्यवहार भी करता है ऐसा मनुष्य स्वयं का हित साध्य करेगा भी तो कैसे? फिर ऐसे व्यक्ति की छत्रछाया में अर्थात आश्रय में रहकर हम भी अपना हित कैसे साध्य कर सकते हैं? इसी लिए ऐसे लोगों को वर्ज्य कर देना ही उत्तम।

मैं यदि सक्षम हूँ तो ऐसे लोगों को मुँहतोड़ जवाब देना चाहिए, कानूनी तौर पर ऐसे दुराचारियों का बंदोबस्त भी करना चाहिए। परन्तु हम सामान्य मनुष्य होने के कारण हमारा बल भी अल्प होता है। फिर ऐसे में हमारे समक्ष एक ही मार्ग होता है और वह है उपेक्षा करने का, वर्जन करने का। यह तो हम निश्‍चित ही कर सकते हैं। ऐसे दुराचारियों से सदैव दूर रहना, उनकी परछाई भी अपने ऊपर न पड़ने देना इस मामले में हमें दक्ष रहना चाहिए। यदि वे हमारे आस-पास आ ही गए तो हमें ही चुपचाप वहाँ से हटकर अपने मार्ग पर चल पड़ना चाहिए।

श्रद्धाहीनों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए यह तो साईनाथ ने यहाँ पर सुस्पष्ट रूप में बता दिया है। परन्तु जो श्रद्धाहीन नहीं हैं उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इसके संबंध में मार्गदर्शन करते समय साईनाथ हमसे क्या कह रहे हैं, आइए देखते हैं –

लाग्याबांध्यावीण विशेषीं। कोणी न येई आपुलेपाशीं।
श्‍वान सूकर कां माशीं। हडहड कुणासी करुं नये॥
(कुछ कर्मसूत्र रहता है तभी कोई हमारे पास आता है, इसलिए किसी को भी अपमानित नहीं चाहिए, दुतकारना नहीं चाहिए, फिर चाहे वे कुत्ता, सुअर या मक्खी जैसे प्राणि भी क्यों न हों।)

श्रद्धाहीन न होनेवाले, परन्तु हमारे संपर्क में आनेवाले ऐसे भी कुछ लोग होते हैं। व्यावहारिक तौर पर हमें उनके साथ कैसा आचरण करना चाहिए, यह मार्गदर्शन बाबा कर रहे हैं। बगैर किसी कर्मसूत्र के, किसी संबंध के कोई भी किसी के भी पास नहीं जाता। अर्थात प्रारब्धानुसार, पूर्वजन्म के किसी न किसी कर्मानुसार मेरा जिन लोगों के साथ कोई ना कोई संबंध है, वे ही इस जन्म में पुन: मेरे संपर्क में आयेंगे, यह बात कर्म के अटल सिद्धांतानुसार स्वाभाविक है।

पिछले जन्म में मुझे ज़रूरत थी इसीलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया था और उसका कुछ ऋण मुझ पर है। अब इस जन्म में मुझे उस ऋण को उतारना है। यदि मैं साईनाथ की भक्ति में हूँ तो साईनाथ जल्द से जल्द मुझे इस ऋण से मुक्त करेंगे ही और इसी खातिर जिनका मुझपर कुछ ऋण है वह उतर जाए इसलिए साईनाथ ईश्‍वरी योजनानुसार उन सभी लोगों को मेरे पास भेजते हैं। इसी लिए हमारे पास आनेवाला, हमारे संपर्क में आनेवाला हर कोई हमारे साथ उसका कोई ना कोई मेल-जोल है और वह हम तक आता है, इस बात को ध्यान में रखकर हमें किसी से भी तुच्छतापूर्वक बर्ताव नहीं करना चाहिए, ऐसा बाबा हमसे कहते हैं।

अर्थात् हमें किसी के भी साथ अपमानजनक वर्तन नहीं करना चाहिए, क्योंकि कुछ ना कुछ संबंध है इसीलिए वह मनुष्य मेरे पास आया है और इसमें भी मेरे ही उद्धार की कोई ना कोई ईश्‍वरीय योजना हो सकती है। इस बात को ध्यान में रखकर हमें किसी से भी तुच्छतापूर्वक बर्ताव नहीं करना चाहिए, अच्छा व्यवहार करना चाहिए, मिठे बोल बोलने चाहिए, किसी के भी दिल को चोट पहुँचे ऐसे बोल नहीं बोलने चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई हमारे यहाँ डाका डालने आये या झूठ बोलकर हमें फँसाने आये, हमारा सर्वनाश करने आये तब ‘उसे कैसे दुखायें’ यह हम सोचें तो वह गलत है। यह साई के वचन का अर्थ बिलकुल भी नहीं है। ऐसे समय पर भगवान का स्मरण करके हमें अपना पुरुषार्थ करना ही है, दुर्जनों को तो जबाब देना ही है, परन्तु यूँ ही किसी के भी साथ बेरूखी से पेश नहीं आना चाहिए, यही इसका भावार्थ है।

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