श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग-५२)

शिरडी आते ही उसी दिन हेमाडपंत का बालासाहेब भाटे के साथ विवाद छिड़ गया और विषय भी था- ‘गुरु की आवश्यकता ही क्या है?’ हेमाडपंत का पक्ष यह था कि जो स्वयं कुछ नहीं करता, उसकी सहायता भला गुरु क्या करेंगे? जिसका जो कर्तव्य होता है, वह उसे स्वयं ही पूरा करना होता है। ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ इस नियम के अनुसार हर मनुष्य को अपने-अपने कर्म का भोग भुगतना ही पड़ता है, इसी कारण सदसद्विवेकबुद्धि से अपना कर्तव्य पूरा करने के प्रति हमें जागृत रहना चाहिए। गुरु के पीछे पड़े रहने से क्या फायदा? बालासाहेब भाटे के मत के अनुसार चतुराई का कोई उपयोग नहीं होता। स्वयं के सामर्थ्य का उपयोग कर हम कर्म के चक्रव्यूह से निकल जायेंगे, ऐसा कहने वाले अच्छे-अच्छे इस चक्र में ङ्गँस चुके हैं। सद्गुरु की कृपा के बगैर इस व्यूह से बचने का अन्य कोई मार्ग ही नहीं है।

इस प्रकार का वाद-विवाद दो घंटों तक चलता रहा। दोनों ही अपने-अपने पक्ष को सिद्ध करने का अथक प्रयास करते रहे और साथ ही सामनेवाले के विरुद्ध पक्ष को झुठलाते रहे। ऐसे वाद-विवाद का कोई अंत ही नहीं होता।

इसी कारण दो घटिका तक यह बहस चलती रही।

वाद-विवाद चलता रहा ।
कोई भी रत्ती भर तक न थका।
इसी बहस में दो घटिकाएँ बीत गयीं।
तब जाकर कहीं वाद पर पूर्णविराम लग गया॥

अंतत: निष्कर्ष कुछ भी नहीं निकला। दो घटिकाओं के बाद यानी अड़तालिस मिनट (एक घटिका यानी २४ मिनट) के बाद यह वाद-विवाद खत्म हो गया। और जब हेमाडपंत साईबाबा के दर्शन करने के लिए द्वारकामाई पहुँचे तब बाबा ने काकासाहेब दीक्षित से पूछा, ‘‘साठेवाडा में क्या चल रहा था? किस बारे में वाद-विवाद चल रहा था।’’ फिर दाभोलकरजी की ओर देखते हुए साईनाथजी ने काका से कहा, ‘‘ये ‘हेमाडपंत’ क्या कह रहे थे?’’ यहीं पर सर्वप्रथम बाबा अण्णासाहब दाभोलकर को ‘हेमाडपंत’ इस नाम से संबोधित करते हैं।

बाबा का प्रश्‍न सुनते ही और ‘हेमाडपंत’ यह नाम यानी संबोधन सुनते ही दाभोलकर हैरान रह गए। साठेवाडा और द्वारकामाई में इतना अंतर होने के बावजूद भी बाबा को इस वाद-विवाद के बारे में कैसे पता चल गया? बाबा वाद-विवाद के बार में कैसे जानते हैं? यहीं पर हेमाडपंत को इस सच्चाई का पता चल जाता है कि बाबा से कुछ भी छिपा नहीं रहता, बाबा ‘सर्वविद्’ हैं अर्थात सब कुछ जानते हैं। ‘तुम्हारी हर एक कृति की जानकारी का पता मुझे निरंतर चलता रहता है’, यह साईनाथजी का वाक्य हम साईसच्चरित में पढते हैं। बाबा के इस सामर्थ्य का पता हेमाडपंत को चल जाता है।

किसी भी मनुष्य के लिए ‘साठेवाडा में क्या चल रहा है इस बात का पता द्वारकामाई में बैठकर करना’ यह नामुमकिन है। साठेवाडा और द्वारकामाई के बीच की दूरी देखी जाये तब भी साठेवाडा में यदि कितनी भी बड़ी आवाज़ में बहस चल रही हो, मग़र फिर भी द्वारकामाई तक वह आवाज़ पहुँच पाना संभव ही नहीं है। साथ ही, जब से यह विवाद शुरू हुआ था, उस समय से साईनाथ से मिलने तक वहाँ पर उपस्थित सभी लोग वाड़े में ही थे और बाबा को किसी ने भी साठेवाडा में होने वाले उस वाद-विवाद की जानकारी भी नहीं दी थी।

‘जैसी करनी वैसी भरनी’

सारांश, किसी भी मनुष्य को जिन साधनों से उस वाद-विवाद की जानकारी मिल सकती थी, उस में से कोई भी घटना यहाँ पर घटित नहीं हुई थी। ऐसा होते हुए भी यहाँ पर द्वारकामाई में पैर रखते ही बाबा ने इस विवाद के बारे में प्रश्‍न कैसे पूछा? साथ ही, इस विवाद को छेड़नेवाला ‘मैं’ था, इसी कारण मेरा ‘हेमाडपंत’ यह नामकरण करके साईनाथजी ने मुझे वाद-विवाद से दूर रहने का मार्गदर्शन किया है।

कहने का तात्पर्य यह है कि इस साईनाथ ने यदि मानवी देह धारण किया है फिर भी ये ‘साक्षात् ईश्‍वर’ ही हैं। साई = सा + ई = साक्षात् ईश्‍वर! यही प्रचिति हेमाडपंत को हुई। ‘जानते हैं वर्म सभी के’ इस उक्ति का अनुभव यहाँ पर उन्हें होता है। बाबा ने साठेवाडा के वाद-विवाद के बारे में पूछा इसका मतलब यह बिलकुल भी नहीं था कि वे स्वयं की ईश्‍वरी ताकत दिखाना चाहते थे। बल्कि हेमाडपंत सहित सभी को वाद-विवाद जैसे झमेलों से दूर रहने का महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन वे करना चाहते थे। बाबा के द्वारा की गई लीलाओं का वर्णन हम साईसच्चरित में देखते हैं। उस हर एक लीला में भक्तों के प्रेमवश उनका उचित मार्गदर्शन करना, यही बाबा का हेतु था। भक्त का संरक्षण करना, भक्त को अनुचित दिशा में जाने से रोककर उचित दिशा में ले जाना, यही उद्देश्य बाबा की हर एक लीला मैं है।

बाबा को भी कहीं पर भी स्वयं के सामर्थ्य का प्रदर्शन करने की अथवा किसी को प्रभावित करने की कतई इच्छा नहीं थी और ना ही उन्हें इन सभी चीजों की आवश्यकता थी। हम जिसे चमत्कार कहते हैं, वे सभी बाबा की लीलाएँ ही हैं और इन सभी लीलाओं के पीछे भक्तों का उद्धार करना यही उनकी आत्मीयता है। यहाँ पर भी बाबा के द्वारा वाद-विवाद के संदर्भ में दाभोलकरजी का हेमाडपंत यह नामकरण करना, इसके पीछे दाभोलकरजी को उचित बोध करना यही बाबा का उद्देश्य है। ‘हेमाडपंत’ यह नामकरण करके उन्होंने दाभोलकर को ‘वादावादी करना ठीक नहीं है’ यही बोध किया है।

स्वयं हेमाडपंत भी हमसे यही कह रहे हैं। बाबा के द्वारा ‘हेमाडपंत’ यह नामकरण होते ही दाभोलकरजी को ‘हेमाडपंत’ कहकर संबोधित करने के पीछे का बाबा का जो उद्देश्य था, वह समझ में आ जाते ही दाभोलकरजी को अपनी गलती का अहसास हो जाता है। शिरडी के प्रथम मुलाकात में ही उन्हें इस बात का अहसास हो जाता है कि मुझसे कितनी बड़ी भूल हुई है। वादविवाद करने की तरफ़ मेरा रुझान रहना, सद्गुरु के पास आकर ‘गुरु की आवश्यकता क्या’ इस बात पर वाद-विवाद करना यह मैंने बहुत बड़ी गलती की है, इस बात का उन्हें अहसास होता है।

साथ ही, यहाँ पर बाबा का अभिप्राय यह भी है कि भक्तिमार्ग पर से, देवयानपंथ पर से प्रवास करनेवाले श्रद्धावान को इस वाद-विवाद करने की कुमति का त्याग कर देना चाहिए। हेमाडपंत स्वयं के गलती से शर्मिंदा हो गए।

जो भी हो, ऐसा था मैं वाक्चतुर।
हो गया नि:शब्द लज्जावान।
पहली मुलाकात में ही यह अनुचित हुआ।
हुआ अनर्थ मुझ से॥

हेमाडपंत अंतर्मुख होकर विचार करने लगे और उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया और इससे उन्हें पश्‍चात्ताप भी हुआ। यह ‘हेमाडपंत’ नामकरण करने के पीछे सुबह ही शिरडी में आने पर साठेवाडा में भाटे के साथ मैंने जो बहस की, वही वजह साबित हुई। इसीलिए बाबा ने ‘हेमाडपंत’ इस नाम से मुझे संबोधित किया। देवगिरी के यादव राजघराने में ‘महादेव’ नामक राजा थे। इनके पश्‍चात् उसे सिंहासन पर उनके भतीजे ‘रामराजा’ बैठे थे। इन दोनों के ही मंत्री ‘हेमाद्रि’ थे। संस्कृत भाषा में ‘हेमाद्रि’ और मराठी में ‘हेमाडपंत’! प्राकृत भाषा के ‘हेमाद्रिपंत’ यह संबोधन भी है। ये हेमाद्रिपंत बहुत ही बुद्धिमान, ज्ञानी, कूटनीतिज्ञ, राजनीतिनिपुण एवं प्रकांडपंडित थे। ये हेमाद्रिपंत ज्ञानदेवजी के समकालीन थे। बाबा ने हेमाडपंत के अंदर होने वाली बुद्धिमानी को देखकर ही उनका ‘हेमाडपंत’ यह नामकरण किया।

यूँ ही नहीं किया इस पद का दान।
चतुराई का यह सम्मान।
वादविवाद पर यह अचूक निशान।
अभिमान का खंडन करने हेतु॥
अधिक ज्ञान न होने पर भी।
ज्ञान का अभिमान है मुझ में ॥
इसीलिए मेरी आँखें खोलने के लिए।
समय पर ही साईनाथ जी ने फटकार लगायी॥

हेमाडपंत दृढतापूर्वक कहते हैं- इस तरह बाबा ने ‘हेमाडपंत’ इस नामकरण के द्वारा सही समय पर फटकार लगाकर मेरी आँखें खोल दीं। अधजल गगरी छलकत जाये, इस तरह का मेरा बर्ताव यानी संपूर्ण ज्ञान न होने पर भी व्यर्थ ही ज्ञान का घमंड करके वाद-विवाद के लिए प्रवृत्त होना यह सर्वथा गलत है। इसी बात को दर्शाने के लिए बाबा ने ‘हेमाडपंत’ यह उपाधि दे दी। हेमाडपंत कहते हैं कि वाद-विवादरूपी असुरों का शक्तिस्थान होने वाले अभिमान को छेदने के लिए ही साईराम ने यह वाग्बाण छोड़ा और इस साईराम का वाग्बाण अमोघ ही है।

साईराम के इस बाण ने, वाग्बाण ने अपना काम अचूकता से किया, वह तीर बिलकुल निशाने पर जा लगा और ‘हेमाडपंत’ इस नामकरण ने दाभोलकर के अंदर उस व़क्त होनेवाली वादविवाद की प्रवृत्ति को एवं घमंड को चूर-चूर कर दिया।

हेमाडपंत के समान ही हमें अहंकार को, बहस करने की प्रवृत्ति को त्यागकर इस साईनाथ के प्रत्येक शब्द को ठीक से ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए। साथ ही इससे उचित बोध लेना चाहिए। बाबा की सिखाने की पद्धति कितनी अनोखी है, इस बात का पता हमें यहाँ पर चल जाता है। अहंकार, वाद-विवाद आदि छोड़ दो, यह कहने की या इन सब वाद-विवादों पर बड़े-बड़े शब्दों के बाण चलाकर उपदेश की घूँटी पिलाने की अपेक्षा साईनाथ ने ‘हेमाडपंत’ इस एक ही वाग्बाण में अपना कार्य सिद्ध कर दिया। यही है मेरे साईनाथ की अनोखी कला और यह कला केवल अकेले साईराम के पास ही है।

Leave a Reply

Your email address will not be published.