श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग- २९)

ठीक है अब कार्य शुरू हो जाने दो। उसे मेरा पूरा साथ है।
वह तो केवल निमित्त मात्र है। लिखना तो मेरा चरित्र मुझे ही है।
मेरी कथा मुझे ही कहनी है। भक्त की इच्छा भी मुझे ही पूरी करनी है।
उसमें अहम्-वृत्ति नहीं होनी चाहिए। अहम् को मेरे चरणों में विसर्जित कर देना है।

बाबा ने हेमाडपंत को साईसच्चरित लिखने की अनुमति प्रदान करते समय जो उपदेश दिया था, वह हम सब के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, इससे हमारे जीवन को उचित दिशा प्राप्त होगी। यहाँ पर बाबा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात बता रहे हैं। बाबा का प्रत्येक शब्द महत्त्वपूर्ण है। भक्त को क्या करना चाहिए, यह बात बाबा यहाँ पर हमें बता रहे हैं। इसके लिए भक्त की भूमिका कैसी होनी चाहिए, यह बतलाते समय बाबा अत्यन्त सुंदर एवं समुचित शब्दों में इस मर्म को उजागर कर बतला रहे हैं। ‘उसे अहंवृत्ति का त्याग करना होगा। अहं को मेरे चरणों में अर्पण कर देना होगा।’ बाबा ने यह बताते हुए सीधे-सीधे शब्दों में बहुत बड़ा गूढ़ अर्थ स्पष्ट किया है।

भक्तबाबा ने अहंवृत्ति को छोड़ देने के लिए स्पष्ट शब्दों में कहा है। जिस तरह जमीन में पानी समा जाता है, उसी तरह इस अहंवृत्ति को भी समा जाना चाहिए और वह भी कहाँ, किस भूमि में? तो साई चरणों में, साईचरण-भूमि में। जमीन में जो पानी समा जाता है, वह पानी चाहे जैसा भी हो, मग़र फिर भी जमीन में समा जाने पर उसमें होनेवाली अशुद्धता, गंदगी आदि अनुचितता अपने आप ही छन जाती है और वह शुद्ध होकर स्वच्छ, शुद्ध झरने के रूप में कुएँ में प्रकट होता है। मान लो मिट्टी से सना हुआ बिलकुल गंदा पानी यदि जमीन पर गिरता है तब भी जमीन में अनेक स्तरों से होता हुआ उसमें एकरूप होते हुए गहराई तक पहुँचते-पहुँचते उसमें होने वाली अनेक प्रकार की अनावश्यक अशुद्धियाँ छन जाती हैं। इसके साथ ही जमीन के अन्दर से प्रवाहित होते हुए पानी के साथ एकरूप होकर कुएँ की गहराई में, झरने के रूप में प्रकट होता है अथवा उस पानी को वृक्ष की जड़े सोख लेती हैं। फिर वह पुन: भाप बनकर शुद्ध वायु रूप में यानी बाष्प के रूप में आकाश में चला जाता है। अर्थात सोख लिया गया पानी जमीन में एकरुप होने से पहले यदि अनुपयोगी एवं गंदा भी रहा हो फिर भी जमीन के साथ एक रुप हो जाने पर उसका रुपांतरण स्वच्छ जल के रुप में हो जाता है और वह बाद में आसमाँ को छू लेता है। कहने का तात्पर्य यह है कि उस जल को उसका अपना मूल स्वरुप प्राप्त हो जाता है।

हमारी अहंवृत्ति भी इसी तरह मलीन होती है। उसे हम जब तक नष्ट करने की कोशिश नहीं करते हैं तब तक वह हमें अधिकाधिक मलीन करती रहती है। परन्तु जब हम इस अहंवृत्ति को अपने साई के चरणों में छोड़ देते हैं, उसी समय हमारे अहंकार का मैल छनने लगता है और मेरे अन्तर्मन की गहराई तक पहुँचकर ‘तत्त्वमसि’ इस झरने के रुप में शुद्धवृत्ति के रूप में अर्थात बोधवृत्ति के रुप में निर्मल-ज्ञान-निर्झर स्वरूप में वह प्रकट होता है। ‘तत्त्वमसि’ इस महावाक्य के अनेक अर्थ हैं। हमारे लिए यहाँ पर ‘तत्त्वमसि’ का अर्थ ‘तुम कर्ता स्वरूप हो, साईनाथ’ यही है। ‘अहंवृत्ति’ जब तक नष्ट नहीं होती है। तब तक ‘कर्तापुरुष मैं ही हूँ’ इस प्रकार के मलीन जल को मैं अपने मन में जमा करते रहता हूँ और इसी तरह मैं अपने मन को ‘ठहरे हुए पानी’ की तरह बना देता हूँ, गड़्ढे का पानी बना देता हूँ। परन्तु जब यह अहंवृत्ति साईचरणों में समा जाती है तब वह अन्तर्मन में प्रकट होती है, इस ‘तत्त्वमसि’ के बोधस्वरूप में। ‘साई ही कर्ता हैं’ यह बोध है। यह ज्ञान अपने-आप ही धीरे-धीरे अन्तर्मन में प्रकट होने लगता है। ‘साईनाथ ही कर्तापुरुष हैं’ यह केवल मुख से कहना यह और बात है और इस बात का एहसास अन्तर्मन में प्रकट होना यह और बात है। यहाँ पर अन्तर्वृत्ति का गंदा पानी साई-चरणों में विलीन हो जाता है और ‘तत्त्वमसि’रूपी झरने के रुप में शुद्ध, स्वच्छ, निर्मल यथार्थ बोध के रुप में हमारे अन्तर्मन में अपने आप ही प्रकट होता है। साईचरण यही एकमात्र ऐसी भूमि है, जिसमें इस अहंवृत्ति को छोड़ते ही उसमें होनेवाली सारी अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं और ‘तत्त्वमसि’ यानी ‘साईनाथ, तुम ही कर्ता हो’, यह एहसास उस झरने के समान प्रकट हो उठता है। इसीलिए यहाँ पर साईनाथ कहते हैं कि ‘अर्पण कर दो इस अहंभाव को मेरे चरणों में’।

इससे स्पष्ट होता है कि हमारी इस अहंवृत्ति को साईचरणों में ही अर्पण कर देने में ही हमारे नरजन्म की इतिकर्तव्यता है। ‘मैं कर्ता हूँ’ इस गंदले अशुद्ध पानी में रहकर सदैव कष्टदायी अवस्था में बीमार रहने की अपेक्षा ‘साईनाथ ही कर्ता है’ इस एहसास के साथ शाश्‍वत आनंददायी रहना ही अधिक श्रेयस्कर है। इसीलिए बाबा के कहेनुसार हमें अपनी अहंवृत्ति को बाबा के चरणों में छोड़ देना चाहिए। अहंवृत्ति का त्याग अर्थात कर्म करने से पूर्व, कर्म करते समय एवं कर्म करने के पश्‍चात् यानी कर्म के हर पडाव  पर ‘श्रीसाईनाथापर्णमस्तु’ भाव का स्मरण निरंतर करते हुए कृति करते रहना। हमारे मन में जब कभी भी ‘मैं ही कर्ता हूँ’  यह भाव सिर उठाता है, उसी व़क्त बाबा के चरणों का स्मरण करना चाहिए, ‘साईनाथ ही कर्ता है’ इस सच का मन को स्मरण कराना चाहिए। हम सामान्य मानव हैं, इसीलिए इस अहंभाव को तुरंत ही नष्ट करना हमारे लिए आसान बात नहीं है। इसीलिए आरंभ में मन को बारंबार ‘साईनाथ ही कर्ता है और मैं निमित्तमात्र हूँ’ इस बात का एहसास रखना जरूरी है। दूसरी बात यह है कि बाबा ही कर्ता हैं और वे सदैव अपना कार्य दृढ़विश्‍वास के साथ करते ही हैं। इसीलिए मैं निमित्त होने के कारण मुझे अपना काम पूरे विश्‍वास के साथ करने में दक्ष रहना ज़रूरी है। ‘बाबा कर्ता हैं, तो फिर मैं क्यों कुछ करूँ’ यह कहना अथवा मानना सर्वथा गलत है। यदि बाबा ही कर्ता करविता हैं और मैं निमित्तमात्र हूँ, तो फिर मुझसे कोई भी गलती न होने पाये इसके लिए मुझे और भी अधिक सावधान रहना चाहिए । क्योंकि इस कार्य में मैं निमित्तमात्र भी हूँ, फिर भी मैं इसमें सहभागी तो हूँ ही और मेरा सहभाग होना यह मेरी ज़रूरत है। मेरे विकास के लिए बाबा ने मुझे निमित्त बनने का अवसर प्रदान किया है, इसलिए मुझे मेरे कार्य में गलती करके नहीं चलने वाला है, बाबा की इच्छा है कि मैं इस कार्य में निमित्तमात्र बनकर इस कार्य में सहभागी बनूँ, तो फिर मुझे इस कार्य में सक्रिय रहना ही चाहिए कारण यदि मैं बगैर कुछ किए यूँ ही बैठा रहूँ तो मैं ही बाबा की इच्छा के आड़े आता हूँ और मुख्य तौर पर मैं स्वयं मेरे जीवन विकास के आड़े आता हूँ। इसीलिए एक सच्चा श्रद्धावान जब ‘साईनाथ यही कर्ता’ है और ‘मैं निमित्तमात्र हूँ’ इस बात को मानकर चलता है, साथ ही सावधानता बरतते हुए और भी अधिक कृतिशील रहता है, तभी वह अपना विकास कर पाता है।

भक्तिसेवा का ही कर्म नहीं, बल्कि दैनिक जीवन में आनेवाले हर एक कर्म को व्यावहारिक तौर पर परमेश्‍वरी नियमानुसार करते हुए उसे परमेश्‍वर के ही चरणों में समर्पित करते रहना यही एक श्रद्धावान का सच्चा पुरुषार्थ कहलाता है। ‘मैं साईनाथ का दास हूँ, सभी कर्म साई का ही है, जो मैं कर रहा हूँ’ इस निष्ठा से पुरुषार्थ करने वाले श्रद्धावान के घर स्वयं साईनाथ आकर उसकी ‘सेवा’ करते हैं। अर्थात दासों का भी दास बनकर साईनाथ अपने ऐसे श्रद्धावान की सेवा करते हैं। श्रद्धावान के घर साईनाथ का आकर सेवा करना ही साईनाथ का श्रद्धावान के जीवन में सक्रिय होना। जिसकी अहंवृत्ति साईचरणों में पूरी तरह झुक जाती है, समाप्त हो जाती है और साईनाथ ही स्वयं के ‘मैं’ रुप में अर्थात कर्ताभाव से उसके जीवन में क्रियाशील हो जाते हैं, यह बात बाबा स्वयं यहाँ पर बताते हैं। जब तक मेरे मन में मेरा अपना ‘मैं’ सिर उठाये खड़ा रहता है, तब तक इस साईनाथ का ‘कर्तापन’ मेरे मन में संचार कैसे कर पायेगा? हेमाडपंत पूर्णत: निरहंकारी भक्त थे इसीलिए बाबा कहते हैं कि हेमाडपंत अपने हाथों से साईसच्चरित नहीं लिखेंगे, बल्कि हेमाडपंत ही मेरा हाथ बन गए हैं और अब मेरे ही हाथों से मैं ही साईसच्चरित लिखने वाला हूँ। अति सुंदर! बाबा का वरदहस्त सिर पर पड़ते ही हेमाडपंत ही बाबा का ‘हस्त’ बन गए। क्यों? क्योंकि अहंकारी वृत्ति उनके जीवन से नष्ट हो चुकी थी। उनके जीवन का कर्ता अब साईनाथ बन चुके थे। हमें भी कोई कार्य करते समय यही भाव रखना चाहिए कि ‘मैं बाबा का साधन हूँ, निमित्तमात्र हूँ और कर्ता साईनाथ ही हैं। अपने हाथों से यदि कोई किसी व्यक्ति को दान करता है, तब हम जिस मनुष्य ने दान दिया है उसका नाम लेते हैं। उस व्यक्ति ने दान दिया ऐसा कहते हैं, उसके हाथों ने दान दिया ऐसा नहीं कहते। ‘क्ष’ ने ‘य’ को दान दिया ऐसे हम कहते हैं। ‘क्ष’ के हाथों ने ‘य’ के हाथों को दान दिया ऐसा हम नहीं कहते। यदि कोई काम हम करते हैं, तब यह काम किसने किया यह पूछे जाते ही हम ‘मैंने किया’ ऐसा कहते हैं। मेरे हाथों ने किया यह नहीं कहते हैं। क्योंकि करनेवाला हाथ ‘निमित्तमात्र’ है। उसी तरह हेमाडपंत भी श्रीसाईनाथ का ‘हाथ’ अर्थात उनका ‘कर’, ‘हस्त’ बन गए और अत एव साईनाथ ने अपने ही हाथों से चरित्र लिखा। चरित्र लिखना यह हाथों की कृति न होकर बाबा की ही कृति है। इस बात का एहसास भली भाँति हेमाडपंत को है। हमें भी इसी तरह पूरा अहसास रखकर अपना हर एक कर्म करते रहना चाहिए।

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