श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग-३१)

अवश्य ही तुम बस्ता रख दो।
घर-बाहर चाहे जहाँ भी हो।
स्मरण रखना हर पल।
मन को विश्राम मिलेगा ॥

‘विश्राम’ की प्राप्ति करने के लिए भला इससे भी अधिक आसान रास्ता क्या हो सकता है? चाहे मैं घर में रहूँ या बाहर रहूँ, मग़र यदि ‘मैं इस साईनाथ का हूँ और मुझे यह कार्य करना है’ इस बात का मैं निरंतर स्मरण रखता हूँ, तो मन को विश्राम की प्राप्ति होती है। इसका कारण यह है कि निरंतर भक्ति-सेवा-कार्य के स्मरण के साथ साथ साईनाथ का स्मरण अपने आप ही होते रहता है और साई स्मरण से ही मन को आराम मिलता है।

भक्ति-सेवा कार्य का स्मरण

हम सामान्य मनुष्य हैं इसीलिए शुरू-शुरू में निरंतर सद्गुरु-स्मरण रखना यह शायद मुश्किल भी लगे। परन्तु मुझ पर होनेवाले कार्य की जिम्मेदारी का स्मरण रखना तो आसान है, क्योंकि एक बार यदि मन:पूर्वक जिम्मेदारी का स्वीकार कर लिया जाता है फ़िर अपने-आप ही उस कार्य का निरंतर स्मरण होते रहता है। अब हम सामान्य परिक्षा का उदाहरण लेते हैं। परीक्षा वर्ष में एक बार होती है फ़िर भी ‘मुझे इस परीक्षा में उत्तम अंक प्राप्त कर आगे अपनी इच्छानुसार विषय में महाविद्यालय में प्रवेश प्राप्त करना है’, इस बात का मन में अहसास रखकर, प्रथम दिन से ही जब मैं अपनी पढ़ाई अच्छी तरह से आरंभ हो जाती है और नियमित रुप में अपनी अपेक्षानुसार पढ़ाई पूरी कर लेने से परीक्षा का भय मन से दूर हो जाता है और मैं निर्भय होकर आनंदपूर्वक परीक्षा दे सकता हूँ।

साल भर अपनी जिम्मेदारी का स्मरण रहने के कारण होने वाली पढ़ाईरुपी कृति के कारण मन में कोई चिंता नहीं रह जाती है। उसी प्रकार भक्ति सेवा में भी जिस कार्य की जिम्मेदारी में मन:पूर्वक स्वीकारता हूँ, उसका ध्यान मुझे सदैव रहता है और इसी कारण मुझे मन के विश्राम की प्राप्ति होती है। अपने कार्य की जिम्मेदारी समझ कर उसका ध्यान रखकर जो सदैव कृति करते रहता है, वही भक्त निश्‍चिन्त रहता है क्योंकि मेरे साईनाथ मेरी हर कृति को देख ही रहे हैं। और वे मुझसे ये पवित्र कार्य करवाने ही वाले हैं यह विश्‍वास उसके मन में रहता है और इसी कारण उसे ‘विश्राम’ निरंतर मिलते ही रहता है।

स्मरण रखना हर पल। मन को विश्राम मिलेगा ॥ इसके माध्यम से बाबा हम से यही कह रहे हैं कि मेरी भूमिका का अर्थात मेरे किरदार का, बाबा का मेरे पास होनेवाले बस्ते का एवं साईनाथ का बारंबार स्मरण करने से ही मन को चैन मिलेगा। मान लीजिए कि मैं स्वच्छता यह सेवा-कार्य करता हूँ अर्थात मेरे पास बाबा के मन्दिर के स्वच्छता अभियान का बस्ता है। अत एव ‘मैं क्या-क्या काम कर सकता हूँ’ इस बात का ध्यान मुझे निरंतर रखना चाहिए। इस तरह से चाहे बस्ता किसी भी सेवाकार्य का, भक्तिकार्य का हो, पर मुझे अपने पास होने वाले बस्ते का ध्यान निरंतर रखना चाहिए। जिस किसी भी कार्य में मैं सहभागी होता हूँ, उन सभी कार्यों का बस्ता मेरे पास है। और बाबा ने मेरे विकास के लिए ही यह बस्ता रखने का अवसर मुझे प्रदान किया है। इसी कृतज्ञता के साथ निरंतर बाबा का स्मरण रखना ही विश्राम प्राप्त करने का उत्तम मार्ग है।

हम देखते हैं कि हमारे जीवन में यह विश्राम हमें कभी मिलता ही नहीं। संतोष भी कभी प्राप्त नहीं होता। एक मुसीबत खत्म हुई नहीं कि दूसरी मुसीबत आकर दस्तक देने लगती है। कुछ न कुछ पीछे लगा ही रहता है। कभी आर्थिक तो कभी पारीवारिक, कभी व्यावसायिक इस प्रकार की अनेक समस्याएँ घेरे रहती हैं। कुछ पल आराम से व्यतीत कर लूँ ऐसा कभी नहीं होता। विश्राम अर्थात पूर्णत: अखंडित आनंद। परन्तु हमारे हिस्से में यह आनंद कभी नहीं आता। सुख-दुख के सीसॉ पर हम ऊपर-नीचे होते रहते हैं। यह ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम यह विश्राम भौतिक चीज़ों में ढूँढ़ने की कोशिश में लगे रहते हैं। इसीलिए हमें विश्राम नहीं मिलता। यह विश्राम हमें ना तो पैसे देकर खरीदने से मिलता है और ना ही पांडित्य से मिलता है। विश्राम कर्मकांड करने पर भी नहीं मिलता; वह मिलता है केवल साईनाथ के कारण ही।

साईनाथ के द्वारा उठाये गए गोवर्धन के नीचे अपनी लाठी लगाने पर ही ‘विश्राम’ मिलता है और यही सत्य है। साईनाथ के भक्ति-सेवा कार्य का स्मरण रखकर पूर्ण क्षमता के साथ जो निरंतर क्रियाशील रहता है, उसका खयाल स्वयं साईनाथ रखते हैं, तो फिर सोचिए कि उसे क्या चिन्ता हो सकती है? ऐसे श्रद्धावान के जीवन में उसे ‘विश्राम’ मिलेगा।

सदैव सेवाकार्य, अपनी ज़िम्मेदारी, भक्ति इन सभी बातों का स्मरण बना रहे इसके लिए सबसे आसान रास्ता है- बारंबार उदी धारण करते रहना। विशुद्धचक्र के साथ साथ आज्ञाचक्र के स्थान पर भी उदी लगाना चाहिए। इसके साथ ही उदी का सेवन करना चाहिए। इस आचरण का पालन करते हुए हमें बारंबार कार्य एवं अपने कर्तव्य का स्मरण होता है और अपने आप ही यह सब करवानेवाले साईनाथ का स्मरण भी होते ही रहता है और हमें अपने जीवन में विश्राम मिलता है।

इसके साथ ही बाबा की कथाओं का श्रवण, वाचन, मनन, चिंतन एवं संकीर्तन करते रहने से हमें अपनी भूमिका का ध्यान तो रहता ही है और साथ ही साईनाथ का अविरत स्मरण रहने से अपने-आप ही विश्रांति प्राप्त हो जाती है। साईनाथ की कथाएँ सचमुच हमारे लिए विश्राम प्राप्त करने का राजमार्ग ही हैं। बाबा स्वयं हेमाडपंत को यही बताते हैं। बाबा ने स्वयं इन कथाओं की महिमा हमें बतलाई हैं, इससे हमें जीवन में होनेवाले इस साईसच्चरित का सर्वोच्च स्थान का पता चलता है।

इन कथाओं में इतना सामर्थ्य है कि पाषाणहृदयी रहनेवाले मनुष्य के हृदय में भी इन कथाओं को सुनने के कारण भक्ति-बीज अकुंरित हो जायेगा। जो साई का बनना चाहता है, उसके हाथों से चाहे कितनी भी गलतियाँ क्यों न हो जाये, मग़र फ़िर भी यदि वह अपनी गलती साई के समक्ष कबूल करके उसे सुधारने के लिए तत्पर है, तो उस भक्त को उसके सभी पापों से मुक्त करके अपने चरणों में स्थान देने के लिए यह साई पूर्ण-रूपेण समर्थ हैं ही।

कोई चाहे कितना भी पापी क्यों न हो, तब भी इस परमात्मा के भक्ति के बीज जन्म लेते समय हर एक मानव के अंत:करण में होते ही हैं। हम ही उस बीज की उपेक्षा करके उस में अंकुर फ़ूटने नहीं देते। जब से साई-कथा का पठन करने लगता हूँ, तब मेरे मन की भूमि चाहे जैसी भी हो, रूक्ष, मरुस्थल, प्रेम के पानी बिना शुष्क हो चुकी हो, फ़िर भी ये कथाएँ मन में होने वाले भक्ति-बीज को अकुंरित करती ही हैं। ये कथाएँ ही खाद बन जाती हैं, पानी बन जाती हैं, सूर्यप्रकाश बन जाती हैं, उस बीज से अंकुर फ़ूटने के लिए, उस अंकुर का पूर्ण विकसित वृक्ष बनने के लिए जिस पड़ाव पर जो कुछ भी आवश्यक होता है, उस आवश्यकता की पूर्ति ये कथाएँ करती हैं।

इन कथाओं से ही भक्ति-बीज अंकुरित होता है, इसके साथ ही अविद्या का भी नाश होता है, पाप को समूल नष्ट कर दिया जाता है। जहाँ पर भोला भाविक भक्त भक्तिश्रद्धा-पूर्वक इन कथाओं का श्रवण, मनन एवं कीर्तन आदि में मग्न होता है वहाँ पर प्रत्यक्ष साईनाथ सक्रिय रहते ही हैं।

साईनाथ केवल हर किसी को भक्ति से ही प्राप्त हो सकते हैं, अन्यथा नहीं। सद्भावसहित इन कथाओं का श्रवण करने से, मन पर अंकित करने से और आचरण में उतारते ही चित्त में निष्ठा उत्पन्न होती है और सहज ही स्वानुभव स्वानंद की प्राप्ति होती है। जीव एवं शिव का मिलन होता है। निजस्वरूप का बोध होता है, निर्गुण की प्राप्ति होती है एवं चैतन्य प्रकट होता है। बाबा स्वयं यह निश्‍चय के साथ बता रहे हैं। इससे अधिक और हमें क्या चाहिए? इन्हीं कथाओं के कारण हम सुखमय गृहस्थी एवं आनंदमय परमार्थ दोनों एक ही समय में साध्य कर सकते हैं।

इसीलिए ‘इस प्रकार की इन भक्तिश्रद्धान्वित कथाओं का ही संग्रह करो’ यह कहकर बाबा हेमाडपंत से कहते हैं, ‘ये कथाएँ ही सर्वथा श्रेयस्कर हैं, वादविवाद सदैव अहितकारी ही होते हैं। इसीलिए वादविवाद, बेकार की बकबक आदि को दूर रखकर प्रेमरसभरी कथाओं का ही संग्रह करो। इसी में सभी की ‘भलाई’ है। हमें भी बाबा के इस बोल को ध्यान में रखना चाहिए। वादविवाद, दूसरों को नीचा दिखाने की वृत्ति को दूर रखकर साई-प्रेम मार्ग से ही प्रवास करना चाहिए क्योंकि वादविवाद का रास्ता हमें ले जाता है पतन की दिशा में। स्व-हित करने के लिए साईबाबा के ये बोल हमारे लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं।

जहाँ पर वादविवाद का झमेला। वहाँ पर अविद्या माया की समृद्धि।
नहीं वहाँ पर स्वहितशुद्धि। सदैव दुर्बुद्धि तर्क-कुतर्क।

Leave a Reply

Your email address will not be published.