श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग-३३)

ना चाहूँ स्वपक्ष-स्थापन। ना चाहूँ परपक्ष-निवारण।
ना चाहूँ पक्षद्वयात्मक विवरण। निरर्थक हैं विवाद॥

साईबाबा कहते हैं कि वाद-विवाद का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। ‘अपना स्वयं का पक्ष ही सच्चा है’, इस बात का दुराग्रह करके अपनी ही राय प्रस्तुत करना और ‘सामनेवाले का पक्ष झूठा है’, यह साबित करने के लिए तर्क-कुतर्क द्वारा उसकी राय का खंडन करना, दलीलें देना आदि बातों से कुछ भी हासिल नहीं होता। दोनों पक्षों के बीच होनेवाला वाद-विवाद अकसर निरर्थक एवं कष्टदायी ही होता है।

बाबा कहते हैं कि इस चरित्र ग्रंथ में इस वाद-विवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। भक्तिमार्ग में सप्रयोजन प्रयास ही महत्त्वपूर्ण होता है, निरर्थक विवरण किसी काम का नहीं है। हेमाडपंत को चरित्र लिखने के लिए ‘वादविवाद से दूर रहकर शुद्ध प्रेमपूर्ण कथाओं का संग्रह करने का’ साई के द्वारा किया गया उपदेश हमारे लिए भी उतना ही महत्त्व रखता है। हमें भी अपने जीवन में ‘मैंने कहाँ पर जीत हासिल की है, किसे मात दी है, मेरा पलड़ा सदैव भारी रहा है’ आदि बातों को सोचने में समय गँवाने की अपेक्षा साईनाथ की प्रेमरसपूर्ण कथाओं का संग्रह करना चाहिए। कुतर्क, दुर्बुद्धि, वाद-विवाद इन सभी बातों में न फ़ॅंसकर, साईनाथ के प्रेमरसपूर्ण कथाओं का संग्रह करना चाहिए। कुतर्क, दुर्बुद्धि, वाद-विवाद जैसी बातों को स्थान न देते हुए साईनाथ के साथ ‘संवाद’ साध्य करते हुए ‘प्रेम-प्रवास’ करना चाहिए।

बाबा के मुख से निकले ‘ना चाहूँ पक्षद्वयात्मक विवरण’ ये शब्द सुनते ही हेमाडपंत को स्मरण हो जाता है कि ‘हेमाडपंत नामकरण कथा’ का विवरण अगले अध्याय में दिया जायेगा, ऐसा वचन उन्होंने श्रोताओं को प्रथम अध्याय के अंत में दिया था। बाबा ने ही इस वाद-विवाद की बुद्धि को दूर करके सद्बुद्धि प्रवाहित की थी, वह इसी हेमाडपंत नामकरण के ही माध्यम से इस बात का स्मरण हेमाडपंत को यहाँ पर होता है और वे कहते हैं कि अब मैं तुम्हें वहाँ पर बाबा ने मेरा ‘हेमाडपंत’ नामकरण करके इस वाद-विवाद से मुझे कैसे मुक्ति दिलवायी।

इस साईसच्चरित में अर्थात ‘साईलीला’ ग्रंथ में हर एक अध्याय के अंत में ‘भक्त-हेमाडपंत-विरचित’ इस प्रकार का जो उल्लेख किया गया है, उसमें उल्लेखित ‘हेमाडपंत कौन हैं’, यह प्रश्‍न मन में निर्माण होना स्वाभाविक है, आपकी इस जिज्ञासा का शमन करने के लिए ही इस ‘हेमाडपंत’ नामकरण की कथा मैं बतलाता हूँ, यह हेमाडपंत श्रोताओं से कहते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक देह पर सोलह संस्कार किए जाते हैं, यह बात तो सर्वविदित है। उनमें से ‘नामकरण’ संस्कार हर कोई जानता है। हम जिसे ‘नामकरण विधि’ कहते हैं, वही है यह संस्कार, जो किया जाता है, गुरुकुल में प्रवेश करने से पहले। उपनयन संस्कार के समय शिष्य का नामकरण उसके गुरु करते हैं। बाबा ने भी हेमाडपंत को अपने गुरुकुल में प्रवेश देते समय उनकी प्रथम शिरडी भेंट में इसी तरह नामकरण संस्कार किया। हेमाडपंत उसी कथा का विवरण कर रहे हैं।
सर्वप्रथम वे अपने बारे में बताते हैं कि मैं मूलत: नटखट, बातूनी स्वभाव का था। मैं तो सद्गुरु महिमा जानता तक नहीं था। कुबुद्धि एवं कुतर्कों का प्रभाव मन पर होने के कारण ‘मैं ही एक अ़क्लमंद हूँ’ यह मानकर वाद-विवाद करने का मेरा स्वभाव था। वादविवाद में प्रवृत्त रहनेवाला मैं इस साईनाथ के अकारण कारुण्य से ही साईचरणों में आन पड़ा। बाबा की कृपा से ही इन साईचरणों की प्राप्ति मुझे हुई। अन्यथा वाद-विवाद में निपुण मैं भला कैसे इन चरणों तक पहुँच पाता? बाबा ही मुझे जिस तरह चिड़ी के पैरों में डोर बाँधी जाती है उसी तरह बाँधकर स्वयं के चरणों में खींच लाये। उन्हें ही मेरी चिंता थी।

बाबा ने मेरा यह प्रवास कैसे करवाया, सर्वप्रथम वही बात मैं तुम्हें बताता हूँ। बाबा ने ही किस तरह से योजना बनायी और वे ही मुझे शिरडी में खींच कर ले गये, वही कथा में सर्वप्रथम आप लोगों को बताता हूँ। मुख्य कथा में यह एक गौण कथा लग सकती है, मग़र फ़िर भी वह भी पूरक ही है और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि यहाँ पर उस कथा का स्मरण होना यह भी मेरे साईनाथ की ही प्रेरणा है।

यहाँ पर हेमाडपंत का एक महत्त्वपूर्ण गुण हम सीखते हैं और वह है कि अपने स्वयं के दुर्गुणों को क़बूल करने की उनकी सादगी। अपने स्वयं के दुर्गुणों को, गलतियों को कबूल करने की सादगी जिस व्यक्ति में है, जिसे मन में अपनी गलती का पश्‍चाताप है, उसके पैरों में साईनाथ अपने प्यार की डोर बाँधते ही हैं। हेमाडपंत यहाँ पर खुले आम स्वयं के दुर्गुणों को सादगीपूर्वक बता रहे हैं। यह सच है कि हम हेमाडपंत के समान महान तो नहीं हैं, मग़र फ़िर भी हमें साईनाथ के सामने अपने दुर्गुणों एवं गलतियों को कबूल कर लेने में क्या हर्ज है? मुझ में कौन सा दुर्गुण है, मैं कहाँ पर गलती कर रहा हूँ, ये बातें तो हर कोई जानता ही है। परन्तु बाबा के सामने अपनी गलती कबूल कर लेने के बजाय हम कोई न कोई कारण देते हैं दूसरों को दोष देकर अपनी गलती छिपाने की कोशिश में लगे रहते हैं। ‘मेरे घर में होनेवाली यह सिर्फ़ तसवीर न होकर साक्षात मेरे साईनाथ ही हैं’, इस भाव के साथ यदि मैं बाबा के साथ संवाद करते हुए अपने गलतियों एवं दुर्गुणों को कबूल कर लेता हूँ, तब अवश्य ही साईनाथ मेरा उद्धार करेंगे ही, पर इसके लिए अपनी गलती मान लेना और अपने किये पर दिल से पश्‍चात्ताप (पछतावा) होना ज़रूरी है।

हम से जो गलती होती है उसके लिए स्वयं के दुर्गुण ही कारणीभूत हैं, यह मानने को हम तैयार ही नहीं रहते। सामनेवाले ने ऐसा व्यवहार किया, परिस्थिति ही कुछ ऐसी थी अथवा इसमें मेरा कोई दोष नहीं था आदि बहाने बनाकर मैं बाबा के समक्ष भी झूठ बोलता हूँ। फ़िर जहाँ पर मुझे मेरी गलती ही मान्य न होगी वहाँ पर पश्‍चाताप होने का तो सवाल ही नहीं उठता है। हर व्यक्ति स्वयं को मानो सद्गुणों का पुतला ही मानता रहता है। मैं हमेशा सही ही होता हूँ, मैं कभी गलत हो ही नहीं सकता, इस तरह का खोखला आत्मविश्‍वास अकसर हम अपने मन में पालकर रखते हैं और यहीं पर हम सबसे बड़ी गलती करते हैं।

हर कोई अपनी स्वयं की गलती का दोष दूसरों के सिर पर मढ़ते रहता है, कभी परिस्थिती को तो कभी भगवान को दोष देकर अपने आप को सही मान लेता है। ‘मैंने गलती की ही नहीं, मैंने वही किया जो योग्य था’, इस प्रकार की झूठी तसल्ली ही हमें दलदल में फ़ॅंसाती चली जाती है। यदि मुझे इस दलदल से बाहर निकलना है तो सर्वप्रथम मुझे स्वयं अपने मन में इस बात को दृढ़ कर लेना चाहिए कि मैं कोई संत पुरुष नहीं हूँ, मैं सामान्य मनुष्य हूँ। मुझ से गलती हो सकती है, मुझ में दुर्गुण भी हैं।

सर्वप्रथम इतना मान लेने पर अपनी गलतियों एवं दुर्गुणों का अहसास हमें होते रहता है और हमारा प्रवास भी काफ़ी आसान हो जाता है। फ़िर इस भूमिका के अनुसार विचार करने पर हमारी गलतियों एवं दुर्गुणों का पता हमें चलते रहता है और इसके प्रति पश्‍चात्ताप भी होता ही है। हमें अपनी गलतियों एवं दुर्गुणों को सबके सामने खुले आम ही कबूल करना चाहिए, ऐसा नहीं हैं।

लौकिक दृष्टि से जहाँ पर ज़रूरत है वहाँ पर सादगीपूर्वक अपनी गलती मान्य कर लेने में शरमाने की कोई बात नहीं होती। कम से कम अपने भगवान के समक्ष, अपने साई के समक्ष तो पूरी सादगी के साथ सर्वथा कबूल कर लेना ही चाहिए। इस प्रकार से पश्‍चात्तापपूर्वक अपनी गलती मान लेना काफ़ी महत्त्वपूर्ण होता है। साई के लिए नहीं, बल्कि खुद के लिए ही यह बात महत्त्वपूर्ण होती है। ये साईनाथ तो सबकुछ जानते ही हैं। चाहे तुम मानो या ना मानो, मग़र वे तो सब कुछ जानते ही हैं। परन्तु जब मैं दिल से पश्‍चात्ताप करता हूँ तब साईनाथ की डोर में मेरा पैरा फ़ॅंस जाता है।

जो अपनी गलतियों एवं दुर्गुणों को कबूल नहीं करता है और बाबा के साथ निरंतर झूठ बोलता रहता है, उसके पैर पाप की दलदल में फ़ॅंसते ही चले जाते हैं। बाबा ने हर किसी को, फ़िर चाहे किसीने कितनी भी गलतियाँ क्यों न की हो, कितने भी दुर्गुण उसमें क्यों न हो, चाहे वह महापापी भी क्यों न हो, मग़र हर एक का उद्धार करने के लिए उसे अपनी ओर खींचने के लिए अपने प्यार की डोर की हर किसी के समीप बिछाकर रखी ही होती है।

जब मैं पश्‍चात्तापपूर्वक अपनी गलतियों एवं दुर्गुणों को मान लेता हूँ, तब साईनाथ उस डोर को मेरे पैर में फँसाकर मुझे उनकी तरफ़ खींच लेने में ज़रा सा भी विलंब नहीं करते। परन्तु जब मैं अपनी गलती मानने से मना करता हूँ, तब मेरा पैर फ़िसलकर मैं दलदल में फ़ॅंस जाता हूँ। अब यह मुझे ही निश्‍चित करना है कि मेरे पैरों में बाबा के प्यार की डोर होनी चाहिए या पापों की दलदल के पाश!

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