श्रीसाईसच्चरित : अध्याय २ (भाग- ४८)

हमने बाबा के दर्शन से जो तीन महत्त्वपूर्ण बदलाव जो हमारे जीवन में आते हैं, उसका अध्ययन किया।

१) मन का पलट जाना

२) प्रारब्ध का नाश हो जाना

३) विषय-वासनाओं का नष्ट हो जाना

इसके साथ ही हेमाडपंत यहाँ पर हमें यही बताते हैं कि पूर्वजन्म में हम ने जो पाप किया होता है, उन पापों की राशियों का नाश भी साई-दर्शन से होता ही है। पापों का नाश पुण्य करने से नहीं होता, वह केवल हरिकृपा से हो सकता है। इसी बात को हेमाडपंत पुन: अच्छी तरह से समझाकर हमें बता रहे हैं।

साई-दर्शन

हमें ऐसा लगता है कि पुण्य करने से पापों का नाश हो जाता है। परन्तु ऐसा नहीं होता है। हमें ऐसा लगता है कि ‘क्ष’ ग्राम पुण्य करने से पापों की राशि में से ‘क्ष’ ग्राम पाप कम हो जायेगा। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता। पापों का प्रारब्ध एवं पुण्य का प्रारब्ध इन दोनों को भी भुगतना पड़ता है। पापों का नाश, प्रारब्ध का नाश केवल हरिकृपा ही कर सकती है। गत लेख में हमने बाबा का दर्शन करते समय जिन दो महत्त्वपूर्ण बातों का अध्ययन किया, उनका पालन हमें करना ही चाहिए। हमने इस बारे में विस्तारपूर्वक अध्ययन किया। अब इसके साथ ही आवश्यक होती है ‘अनन्यता’। मादा कछुए के बच्चे जिस तरह अपनी माँ की ओर ही देखते रहते हैं और अपनी माँ की ओर अनन्यता से देखते रहने से उन्हें प्यार की गरमाहट मिलती है, उनका पालन पोषण भी होता है। मादा कछुआ जिस तरह अपनी नज़र से अपने बच्चों को प्यार की गरमाहट एवं चारा देती है, उसी तरह ये साईनाथ भी अपनी कृपादृष्टि से हमारे प्रारब्ध का नाश करते हैं। वे हमारी ओर देखते ही रहते हैं, हमें ही कछुए के बच्चों के समान उनकी ओर अनन्यता से देखना चाहिए।

साई के दर्शन में ही हर किसी को, उसके लिए जो कुछ भी उचित है, वह सब कुछ प्राप्त करने का सामर्थ्य है, परन्तु क्या हम साई का ‘दर्शन’ कछुए के बच्चों की तरह अनन्यभाव से करते हैं, यह प्रश्‍न तो हमें ही अपने आप से पूछना चाहिए। हेमाडपंत कहते हैं कि इस प्रक्रिया से बाबा कौए को हंस बना देते हैं अर्थात कौए को हंस बनाने के लिए साईनाथजी पूर्ण समर्थ हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे जादू करके कौए को हंस बना देंगे। ऐसा कोई भी चमत्कार ये परमात्मा साईनाथ कभी भी नहीं करते हैं। मूर्गी को बकरा बना देना, कौए को हंस बना देना। इस प्रकार की हाथचलाक़ी अथवा जादू के लिए बाबा के पास कोई स्थान नहीं था। यहाँ पर कौए को हंस बनाने का तात्पर्य यह है कि भक्त की वृत्ति में परिवर्तन करना।

यहाँ पर कौए से तात्पर्य यह है कि चोंच मारने की प्रवृत्ति। कौआ यानी तर्क एवं चिकित्सा वृत्ति। कौसा अर्थात एक ही नज़रिया रखने की, अपने स्वार्थ से ही देखने की वृत्ति। कौआ यानी अपने स्वयं के अंडे कोयल के घोसले में चुपचाप रख देने की वृत्ति। कौआ यानी व्यर्थ ही काँव-काँव करने की वृत्ति, कौआ यानी दूसरे की परवाह न करते हुए अपना स्वार्थ साध्य करने की वृत्ति। कौआ यानी अच्छाई के बजाय बुराई फ़ैलाने की वृत्ति। कौआ यानी कहीं पर भी गिरा हुआ, यहाँ तक कि गंदगी में भी गिरा हुआ खाने की वृत्ति। कौआ यानी दूसरे के दोष दिखाने की वृत्ति। कौआ यानी दूसरे के मर्म स्थल पर चोंट करने की प्रवृत्ति।

यहाँ पर प्राणि-सृष्टि के कौए के गुणधर्म देखकर उसी के अनुसार मन की काकवृत्ति अर्थात कौए की वृत्ति को दर्शाया गया है। कौए की केवल एक आँख नहीं होती, वह एक ही ओर से देखता है ऐसा कुछ भी नहीं है, यह अब वैज्ञानिक दृष्टिकोन से पता चल चुका है; परन्तु यहाँ पर हेमाडपंत वर्णन कर रहे हैं, वह मन के कौए का गुणधर्म है और इसी कारण इसका अध्ययन इसी प्रकार करना ज़रूरी है। कौए के गुणधर्म इस प्रकार हैं :-

१) कौआ अवसर पाते ही चोंच मारने के लिए तत्पर रहता है।

२) कौए की नज़र छोटी से छोटी बातों पर भी बनी रहती है।

३) कौए की एक ही आँख काम कर सकने के कारण वह एक ही ओर से देख सकता है। (हालाँक़ि यह एक मान्यता है, वास्तविकता नहीं है)

४) कौआ अपने अंडे कोयल के घोंसले में चुपचाप रख देता है।

५) कौआ व्यर्थ ही काँव-काँव करके बेवजह अपनी आवाज से लोगों को परेशान करता है।

६) घर के छत पर कोई चीज़ रखने पर या गलती से कोई खाद्यपदार्थ खुला रह जाने पर वह उसे उठाकर ले जाता है।

७) चिड़िया-कौए की कहानियों में प्रसिद्ध है कि कौआ गोबर का घोंसला बनाता है।

८) कहीं पर भी गिरी हुई चीज़ या गंदगी में गिरा हुआ अनाज भी कौआ खा लेता है।

९) कौए को भगाने के बावजूद भी वह पुन: पुन: आते रहता है।

१०) कहानियों के कौए का गुणधर्म अर्थात उसे स्वयं के रंग-रूप अथवा दोषों का ध्यान नहीं रहता है। उसे केवल दूसरों के दोष ही दिखाई देते हैं।

हमारा मन भी इसी कौए की तरह होता है। ऊपर दिए गए कौए के सभी गुणधर्म हमारा मन भी धारण करने के कारण ही हमारी वृत्ति भी काकवृत्ति बन चुकी होती है, फ़िर मानस-सरोवर का शुद्ध स्वच्छ एवं निर्मल जल पीने की बुद्धि हमारे पास कहाँ से आयेगी? और वह मिलेगी भी कैसे? क्योंकि मानस-सरोवर का जल पीना यह कौए का नहीं बल्कि हंस का ही काम है। साईनाथ की कृपा ही कौआ बन चुके मन में परिवर्तन करके उसे हंस बना सकती है। हमारे पापों के कारण, दोषों के कारण, अहंकार-वृत्ति के कारण, षड्रिपुओं के कारण काला कलूटा बन चुका मन शुभ्रधवल, सुंदर राजहंस बन सकता है तो केवल इस साईनाथ की ही कृपादृष्टि के कारण।

भाग्य से पा लिया साईचरणरूपी मानस (मानससरोवर)। वायस (वायस=कौआ) का बन जाये हंस।साई महंत संतावतंस। परमहंस सद्योगी॥

हेमाडपंत हम से यही कर रहे हैं कि वायस का हंस बनाने का सामर्थ्य केवल साईनाथ में ही हैं। ‘अहं’ जप करते रहने वाला मन ही है ‘काँव-काँव’ करते रहने वाला कौआ। परन्तु यही मन साईनाथ का दर्शन पाते ही, बाबा की कृपादृष्टि होते ही ‘हंस: सोऽहम्’ इस वचन के अनुसार अहंभाव के बजाय ‘सोऽहम्’ भाव का जप करनेवाला ‘हंस’ बन जाता है। हमारे लिए ‘सोऽहम्’ अर्थात ‘स: अहम्’ अर्थात ‘वह मैं ही’ इसका अर्थ है- ‘मैं मेरे राम का, साईराम का दास ही हूँ’। मैंने अपनी जो गलत पहचान बना ली थी, उसे मिटाकर यह मेरी स्वयं की सत्य पहचान है। जो ‘हंस’ हो चुका, वह अपने स्व-स्वरूप को पहचान जाता है। कौआ रहने पर स्वयं की सच्ची पहचान हो ही नहीं सकती है और वहीं पर ‘हंस’ बन जाते ही स्वयं की असली पहचान तुरंत ही हो जाती है। केवल ये साईनाथ ही मुझे कौए से हंस बना सकते हैं और मुझे मेरी असली पहचान भी वे ही देते हैं।

यह कौए से हंस बनने की प्रक्रिया ही मेरी पापों की राशि को जलाकर मुझे ओज से परिपूर्ण कर देने की प्रक्रिया है और यह केवल साईनाथ ही कर सकते हैं। पाप, पापों का परिणाम एवं पाप करने की वृत्ति इन तीनों का नाश केवल बाबा की कृपा ही कर सकती है। इसीलिए हेमाडपंत इन दो तत्त्वों का उल्लेख बारंबार करते हैं कि साईदर्शन से ही पापों का समूल नाश हो सकता है।

पुन: वे इसी बात का उल्लेख करते हुए कह रहे हैं कि –

पूर्वजन्मों के पापसंचय का। साईकृपावलोकन से हो गया क्षय।पाप-ताप-दैन्य का विनाश। होता ही है इस साई के दर्शन से॥

वैसे देखा जाए तो पुण्य से पाप नष्ट नहीं होता और पाप से पुण्य भी। साईकृपा ही एकमात्र ऐसी चीज़ है, जिससे पापों का नाश तो होता ही है और साथ ही पुण्य की राशि भी मेरे खाते में जमा हो जाती है। इसलिए कौआ न बनकर हंस बनना चाहिए। इसके लिए कछुए के बच्चों की तरह साई को निहारते रहना चाहिए। बाबा तो कौए को हंस बनाने के लिए, मेरे मन का रूपांतर चित्त में करने के लिए समर्थ एवं तत्पर तो हैं ही, केवल कासवी के बच्चों की तरह दर्शन करना मेरे लिए आवश्यक है। मन का मानस-सरोवर बन जाना यानी मन का चित्त में रूपांतरित हो जाना। परन्तु इसके लिए काकवृत्ति को छोड़कर हंस वृत्ति को धारण करना चाहिए। निर्णय हमें ही लेना होता है कि अपने मन को ‘कौआ’ बनने देना है अथवा बाबा का ‘दर्शन’ करके उसे ‘हंस’ बनाना है।

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