श्रीसाईसच्चरित : अध्याय- २ (भाग-२४)

ही वृत्ति उठाया अवसर। बाबांसी विचारूं नाही धीर।
आले माधवराव पायरीवर। तयांचे कानावर घातली।
तेचि वेळी माधवरावांनी। नाही तेथे दुसरें कोणी।
ऐसाचि प्रसंग साधुनी। बाबांलागूनि पुसियेलें॥

(मन में उठनेवाली वृत्ति को बाबा तक पहुँचाने के लिए अवसर ढूँढ़ रहा था। मन अधीर हो उठा था। इतने में माधवराव आ पहुँचते हैं। उनके सीढ़ी पर पहला कदम रखते ही, उनके कानों पर अपने मन की बात ड़ाल दी। माधवराव ने भी उसी समय कोई भी बाबा के पास न होने के कारण अच्छा अवसर देख बाबा से हेमाडपंत की इच्छा के बारे में पुछ ही लिया।)

इस कथा के आरंभ में ही हमने दो महत्त्वपूर्ण बातें सीखीं।
१) सद्गुरु ही श्रद्धावानों के समक्ष उनका विकास मार्ग ले आते हैं। श्रद्धावान को मार्ग ढूँढ़ते फ़िरना नहीं पड़ता है।

२) अपना ‘स्थान’ (अपनी हैसियत) पहचान कर ही उस ‘स्थान’ का ध्यान रखकर ही संभलकर वर्तन करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें तीसरी बात हम माधवराव से जो सीखते हैं, वह है हम पर डाली गई जिम्मेदारी को पूरे विश्‍वास के साथ पार करना।

मन में उठनेवाली वृत्तिबाबा का चरित्र लिखने की इच्छा हेमाडपंत के मन में प्रकट हुई। और उन्होंने पूरे विश्‍वास के साथ माधवराव पर बाबा से पुछने की ज़िम्मेदारी सौंप दी। श्रीसाईनाथ के चरित्र लेखन का कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य है एवं उसके प्रति बाबा से अनुमति लेना और अधिक महत्त्वपूर्ण है यह बात माधवराव भी जानते थे और इसीलिए हेमाडपंत ने यह ज़िम्मेदारी बड़े ही विश्‍वास के साथ मुझपर सौंपी हैं। इस बात का ध्यान उन्हें था यही कारण है कि हेमाडपंत के माधवराव से कहते ही उन्होंने तुरंत ही इसके बारे में बाबा से बात की। माधवराव अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करने में क्षणभर का विलंब नहीं करते हैं। वे हेमाडपंत से ऐसा नहीं कहते हैं कि आज रहने दो कल पूछ लूँगा। हो सकता है माधवराव द्वारकामाई में उस समय किसी अन्य महत्त्वपूर्ण काम से आये होंगे। परन्तु बाबा के चरित्र लेखन का कार्य और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है इस लिए किसी अन्य कार्य के प्रति पुछने से पहले वे हेमाडपंत की इच्छा बाबा के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। इससे हम समझ सकते हैं कि माधवराव अपनी ज़िम्मेदारी कितने अचूक तरीके से निभाते हैं। प्राधान्य किसे देना चाहिए यह वह श्रेष्ठ भक्त भली-भाँति जानता है। इसलिए उन्होंने अन्य किसी भी विषय की चर्चा न करते हुए साई का चरित्र लिखनेवाले विषय को सर्वोच्च स्थान दिया।

माधवराव पर अनेक कामों की ज़िम्मेदारियाँ थीं, परन्तु कौन से काम को किस समय प्राधान्य देना चाहिए इस बात का अहसास उन्हें था। और कौन से काम को प्राधान्य देना चाहिए इस बात का उन्हें पूरा ख्याल रहता था इसी कारण वे अपनी ज़िम्मेदारी अच्छी तरह से निभा सकते थे। साथ ही वे अपनी ज़िम्मेदारी को अनसुना कर हेमाडपंत से यह भी नहीं कहते हैं कि तुम खुद ही पुछ लो। वे भक्तों के मनोगत बड़े ही प्रेमभाव के साथ बाबा के समक्ष प्रस्तुत करते थे। उनके इस कार्य को हम साईसच्चरित में तो देखते ही हैं। श्रीसाईनाथ के सेवा का ही एक हिस्सा यह भी है और यही मान कर उन्होंने इस ज़िम्मेदारी का भार अपने ऊपर ले लिया है। वे अपना कार्य पूरे विश्‍वास के साथ करते ही हैं। इसमें वे टाल-मटोल नहीं करते।

इसके साथ ही हेमाडपंत द्वारा सौंपे गए कार्य को, विश्‍वास को, वे सार्थक करते हैं। किसी भक्त ने मुझपर यह जिम्मेदारी बड़े ही आत्मविश्‍वास के साथ सौंपी है तो मुझे भी उसे उतने ही विश्‍वास के साथ पूरा करना है और यही मेरा कर्तव्य है। इसी एहसास के साथ माधवराव यहाँ पर अपना कार्य पूरे विश्‍वास के साथ करते हैं। केवल परमार्थ में ही नहीं तो व्यवहार में भी माधवराव के इस गुण को हमें आत्मसात करना चाहिए। यदि कोई विश्‍वास रखकर मुझ पर कोई कार्य सौंपता हैं तो मुझे भी अपनी क्षमता नुसार उस कार्य को पूरा करना चाहिए। मुझे अपने कर्तव्य को पूरा करने में विलंब नहीं करना चाहिए। यहाँ पर हम देखते हैं कि हेमाडपंत के मन में साईसच्चरित लिखने की और इसके लिए बाबा से अनुमति प्राप्त करने की इच्छा उप्तन्न होना यह भी साईनाथ के परमेश्‍वरी योजना का ही एक भाग है। यह योजना कार्यन्वित होने के लिए हेमाडपंत का माधवराव से बाबा से अनुज्ञा प्राप्त करने की बिनती करना यह भी इस ईश्‍वरी योजना का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। यहाँ पर यदि माधवराव ने यह बात बाबा से पूछने में विलंब किया होता या टाल-मटोल किया होता तब वह साई के ईश्‍वरी योजना में बाधक हुआ होता और ईश्‍वरी योजना में अवरोध उत्पन्न करना यही बहुत बड़ा प्रज्ञापराध है। माधवराव को साईलीलाओं का अनुभव भली-भाँति है और उनकी योजना का भी उन्हें ज्ञान है। इसीलिए जिस तरह हेमाडपंत के मन में यह इच्छा प्रकट हुई है और उन्होंने उसे आगे कार्यन्वित करने के लिए बाबा से अनुमति प्राप्त करने की ज़िम्मेदारी मुझ पर ड़ाली है, निश्‍चित ही यह भी बाबा के योजना का ही एक हिस्सा है और यहाँ पर मुझे अपनी भूमिका पूरे विश्‍वास के साथ निभानी है।

अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करते समय सावधानी बरतने में भी वे कोई कसर नहीं छोड़ते। हेमाडपंत ने जो अनुज्ञा प्राप्त करने को कहा है उसे तो प्राप्त करना ही है, साथ ही इस बात का ध्यान भी वे रखते ही हैं कि आस-पास में और कोई तो नहीं हैं? यह बात बाबा को अभी प्रकट नहीं करनी होगी और मैं यदि लोगों के सामने इस विषय को छेड़ता हूँ तो वह उचित नहीं होगा इस बात का अहसास भी उन्हें हैं। इसीलिए ‘नाही तेथे दूसरे कोणी’ (नहीं था वहाँ दूजा कोई) सावधानीपूर्वक यह देखकर ही वे बाबा के समक्ष हेमाडपंत का मनोगत व्यक्त करते हैं। हेमाडपंत ने जिम्मेदारी सौंपी हैं इसलिए उसे जल्द से जल्द बाबा से पुछकर अपने कर्तव्य से मुक्त हो जाऊँ ऐसा वे नहीं करते हैं। वे नहीं चाहते हैं कि कार्य भले ही महत्त्वपूर्ण है और उसकी जल्दी भी है फ़िर भी लोगों के समक्ष पूछने का कोई मतलब नहीं इस बात का ध्यान रखकर ही माधवराव अपनी हर ज़िम्मेदारी निभाते हैं। मान लो वहाँ पर अन्य लोग भी होते तो माधवरावने वहीं पर रुककर सभी लोगों के चले जाने तक राह भी देखी होती और इसके पश्‍चात् ही बाबा के समक्ष वह बात प्रस्तुत की होती। अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करते समय हमें किस तरह से सावधान रहना चाहिए यह बात भी हम यहाँ पर सीखते हैं। वहाँ पर अन्य कोई भी नहीं था ऐसे सुअवसर का लाभ उठाते हुए माधवराव ने बाबा के समक्ष हेमाडपंत के विचार प्रस्तुत किए। यह बात यहाँ पर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। हमें भक्ति सेवा में ही नहीं बल्कि व्यवहार में भी माधवराव को ज़िम्मेदारियों के प्रति सावधानी बरतने वाला विशेषगुण आत्मसात करना चाहिए। जिस बात को बाबा तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गई है। उस बात को प्रत्यक्ष रुप में बाबा तक पहुँचाने में, मैं कोई कसर नहीं छोडूँगा। यहाँ पर माधवराव का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण हमें यह दिखाई देता है कि माधवराव कहीं पर भी यह नहीं कहते हैं कि बाबा सबकुछ जानते हैं वे तुम्हारे मन की इच्छा भी जानते ही है, बाबा को हर बात का पता चल जाता है, फ़िर मैं स्वयं होकर उनसे यह बात क्यों कहूँ? यह बात अत्याधिक महत्त्वपूर्ण है। बाबा सब कुछ जानते हैं यह बात उन्हें विदित है फ़िर भी प्रत्यक्षरूप में स्वयं होकर कहना भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। मुझे अपना काम पूरी इमानदारी के साथ करना चाहिए। बाबा सर्वज्ञ हैं यह जानते हुए भी, मैं यदि प्रत्यक्ष रुप में बाबा से मिलकर कह सकता हूँ तो मुझे कहना ही चाहिए। हेमाडपंत द्वारा कही गई बात लौकिक रीति के अनुसार बाबा को प्रत्यक्षरूप में मिलकर कहना भी उतना ही ज़रूरी है।

बाबा सब कुछ जानते हैं इसलिए अपनी ज़िम्मेदारी को झूठलाकर मैं मुक्त हो जाऊँगा तो यह सर्वथा अनुचित ही है। जिस बात का पता मुझे चला है वह बात बाबा तक पहुँचना यह मेरी अपनी ज़िम्मेदारी है और इसके लिए प्रत्यक्षरूप में बाबा से कहने का कार्य माधवराव करते हैं। सचमुच माधवराव का यह गुण हम सब के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। माधवराव अपनी स्वयं की मर्यादा का ध्यान अच्छी तरह रखते हैं। इसी कारण उन्हें अपनी इस ज़िम्मेदारी का अहसास भली-भाँति है हमें इस बात का पता चलता है। साक्षात् ईश्‍वररुपी साईनाथ के साथ प्रत्यक्ष रुप में मौखिक तौर पर हर एक बात बतलाना, यही उचित आचरण इस कथा में घटित होता है यह तो हमने देखा। हमें भी माधवराव के ही समान हर कदम पर इस बात का ध्यान तो रखना ही चाहिए।

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