श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ४९)

हमने भक्तों की भूमिका के बारे में अध्ययन किया। सद्गुरु साईनाथ की लीला को प्रतिक्रिया (रीअ‍ॅक्ट) न देते हुए, उन्हें प्रतिसाद (रिस्पाँझ) देनेवाले भक्तों की भूमिका हमने देखी। गेहूँ पीसनेवाली कथा का अध्ययन करने के पश्‍चात्, ‘एक भक्त के रूप में मैं साईनाथ को प्रतिसाद कैसे दे सकता हूँ’, इस संदर्भ में तीन स्थानों पर तीन प्रकार के कार्य मैं कैसे कर सकता हूँ, इससे संबंधित विचार हमने किया। हमने यह भी देखा कि प्रतिसाद देने के लिए कोई ज़रूरी नहीं है कि मुझे शिरडी में ही होना चाहिए, द्वारकामाई में होना चाहिए, बल्कि कहीं भी रहकर हम बाबा की लीला को प्रतिसाद दे सकते हैं।

saisatcharitra- सद्गुरु साईनाथ

‘बाबा! देखो मैं तुम्हारे लिए काम कर रहा हूँ।’ यह बाबा के सामने बाबा से द्वारकामाई में कहना या उनके सामने-सामने रहकर ही काम करने का दिखावा करना यह काम नहीं कहलाता बल्कि प्रतिसाद के स्थान पर दिखावा कहलाता है। कोई कितना भी दिखावा करें कि मैं कितना काम करता हूँ, कितनी सेवा करता हूँ, कितनी भक्ति करता हूँ आदि, लेकिन इस ढ़ोंग-ढकोसले से लोग चाहे भले ही फँस जाये परन्तु बाबा को कोई भी फँसा नहीं सकता है।

हम यदि लोगों को दिखाने के लिए ‘अगुआई’ करते हैं, तो इससे बाबा प्रभावित नहीं होते। ये साईनाथ हर किसी का ‘वर्म-मर्म जानते ही हैं।’ इसी लिए कौन दिल से उन्हें प्रतिसाद दे रहा है और कौन ‘मुखौटा’ लगाता है, यह बाबा भली भाँति जानते ही हैं। इसीलिए मैं जैसा हूँ उसी रूप में बाबा की साद को प्रतिसाद दूँगा। उनकी कृति को प्रतिसाद दूँगा। और इसके के लिए द्वारकामाई में ही कुछ करना चाहिए ऐसा बिलकुल नहीं।
तुमच्या कृतिच्या इत्थंभूत खबरा। मज निरन्तरा लागती॥

(अर्थात : तुम जो कुछ भी करते हो उसकी सारी जानकारी निरंतर मुझे मिलती ही रहती है।)

बाबा के इस बोल को मन पर रेखांकित करके रखना चाहिए। मैं यदि द्वारकामाई के स्थान पर शिरडी में साफ़-सफाई का काम करता हूँ, तो बाबा स्थूल रूप से भले ही मेरे सामने न भी हों, लेकिन मेरा जो भाव है, उसका पता बाबा को होता ही है। बाबा के सामने अर्थात केवल द्वारकामाई में ही नहीं, इस विश्‍व के किसी भी कोने में हम रहते हैं, यहाँ तक कि सात समुद्र पार भी, तब भी हम बाबा के सामने ही रहते हैं। क्योंकि बाबा से कोई भी बात छिपी नहीं रह सकती हैं, वे सब कुछ जानते हैं। सब कुछ देखते रहते हैं। हर किसी को, हर पल। इसीलिए मुझे अपना कर्तव्य बखूबी निभाना है।

सद्गुरु प्रेम के लिए, उनकी कृति को, साद को प्रतिसाद देते समय मैं जैसा हूँ वैसा ही रहूँगा, किसी भी प्रकार का मुखौटा नहीं लगाऊँगा। हम अपना काम बिलकुल ईमानदारी के साथ बिना किसी दिखावे के करते हैं, तो गलती से यदि हम प्रतिक्रिया देने के मार्ग पर चले भी जाते हैं, तब भी वहाँ से खींचकर वापस लाने का काम बाबा करते हैं। सच्चे भक्तों के लिए उनकी ओर से निरंतर उचित राह पर ले आने का कार्य चलता ही रहता है। वे अपने भक्तों को प्रतिसाद के मार्ग से प्रतिक्रिया के मार्ग पर कभी नहीं जाने देते।

गेहूँ पीसनेवाली कथा में हमें इस बात का पता चलता है। बाबा के प्रेम को, उनकी कृति को ‘प्रतिसाद’ देते हुए वे चारों महिलाएँ दौडते हुए द्वारकामाई में आती हैं और बाबा के उस कार्य में शामिल हो जाती हैं। पीसते-पीसते वे बाबा की लीलाओं का वर्णन करनेवाले गीत गाने लगती और यहीं पर वे अपनी भक्ति के शिखर पर पहुँचती हैं। परन्तु गेहूँ पीसने का काम पूरा हो जाने पर वे प्रतिसाद के बजाय प्रतिक्रिया की ओर झुक जाती हैं। बाबा को इतने आटे का क्या करना है? हमारे लिए ही बाबा ने यह किया है। अब इसके चार हिस्सा करके घर ले जाते हैं। बाबा हमें ही दे देंगे। यह सोचकर वे जल्दी से उस आटे को चार हिस्सों में बाँट भी देती हैं। और यहीं पर वे प्रतिसाद के मार्ग से बहक कर प्रतिक्रिया के मार्ग पर कदम रख देती हैं।

और ऐसे में सद्गुरु अपने सच्चे भक्त के लिए तुरंत कार्यरत हो जाते हैं। वे तुरंत ही उन्हें रोककर प्रतिसाद के मार्ग पर ले आते हैं। यहाँ पर भी कुछ ऐसा ही होता है। बाबा उन चारों के प्रतिक्रिया देने के कर्म पर नाराज हो जाते हैं और उन्हें उस आटे को ले जाकर गाँव की सीमा पर डालने का आदेश देते हैं। वे चारों मन ही मन शरमिंदा हो जाती हैं और तुरंत ही बाबा की आज्ञा का पालन करती हैं । उन्हें इस बात का ज़रा सा भी दु:ख नहीं हैं कि बाबा ने उन्हें डाँटा, बल्कि उनके मन में तो खुशी है कि हम गलती करने जा रहे थे परन्तु बाबा ने हमें रोक लिया और हमारी गलती को सुधरवाकर हमें उचित मार्ग पर ले आये।

बाबा गुस्सा हो गए हैं फिर भी वे प्रतिक्रिया नहीं देती, बल्कि बाबा की नाराज़गी को भी वे प्रतिसाद देती हैं, प्रतिक्रिया नहीं देतीं। कितना सुंदर है उनका विश्‍वास! बाबा का गुस्सा भी हमारी भलाई ही करेगा। बाबा ने हमें हमारी गलती को सुधारने का कितना सुंदर अवसर प्रदान किया है। इसी विश्‍वास के साथ वे उस आटे को, तुरंत ही ले जाकर गाँव की सीमा पर डाल देती हैं।

बाबा पीसने बैठने हैं यह सुनते ही वे दौड़ती-भागती आकर, ‘बाबा खूँटा नहीं देंगे’ इसलिए ‘प्रतिसाद’ के रूप में वे बाबा के हाथों से खूंटा छिनकर ले लेती हैं और बाबा को गालों ही गालों में मुस्कराते देख अपना काम और भी ज़ोरदार रूप में करने लगती हैं। साथ ही बाबा की लीलाओं के प्रेम भरे गीत भी गाने लगती हैं। उस आटे को चार हिस्सों में बाँटने पर जब बाबा क्रोधित हो उठते हैं, तब भी वे इस बात का बुरा न मानते हुए बाबा की आज्ञा के अनुसार उस आटे को गाँव की सीमा पर ले जाकर डाल देती हैं।

इन चारों के आचरण से हम सच्ची भक्ति के प्रतिसाद देनेवाले आचरण का पता चलता है। साथ ही प्रतिक्रिया के गलत रास्ते पर कदम पड़ते ही और उस गलती को बाबा के द्वारा दिखाए जाते ही वे साई की आज्ञानुसार तुरंत ही उसे सुधार लेती हैं। हमें भी अपनी गलती छिपाने की कोशिश करने के बजाय उसे कबूल कर तुरंत ही उसे सुधारने के लिए तैयार रहना चाहिए। यह बात ज़्यादा महत्त्व रखती है। यही ‘प्रतिसाद’ हमें अपने सद्गुरु को देते रहना चाहिए। मैं जैसा हूँ वैसा हूँ और इसीलिए मुझसे गलतियाँ होती रहती हैं। अपनी गलती के बारे में बातें बनाने से या इसका इल्ज़ाम किसी अन्य पर थोपना यह सर्वथा अनुचित ही है।

वे चारों जैसी थीं वैसी ही थीं और वे कोई भी मुखौटा न पहनते हुए बाबा के प्रेम को प्रतिसाद देती रहती हैं। और इसीलिए बाबा उन्हें ‘प्रतिसाद’ के मार्ग से भटकने नहीं देते। उचित मार्ग से फिसलने नहीं देते। जो भक्त स्वयं की भूमिका निभाते समय इन चारों की तरह कोई भी मुखौटा न चढ़ाते हुए बाबा के प्रेम को प्रतिसाद देता है, बाबा कभी भी उसकी उपेक्षा नहीं करते, उसका त्याग कभी नहीं करते। ‘मैं कदापि तुम्हारा त्याग नहीं करूँगा’ यह सद्गुरुतत्त्व का भक्तों को दिया गया ‘अभिवचन’ है। परन्तु किसके लिए? तो किसी भी प्रकार का मुखौटा न लगाते हुए अपनी क्षमतानुसार अपनी भूमिका को निभाने का प्रयत्न करते रहनेवाले भक्त के लिए।

तो ऐसे भक्त का ध्यान साईनाथजी रखते ही हैं। जब तक हम अपने अहंकार को नहीं छोड़ते, अपनी गलती को दूसरों के सिर मढ़ते रहते हैं, तब तक बाबा से हम स्वयं ही अपने आप को दूर करते रहते हैं।

वहीं, लौकिक दृष्टिकोन से मैं शारीरिक तौर पर बाबा से कितना भी दूर क्यों न रहूँ, परन्तु अपनी गलती कबूल कर उसे सुधारने की कोशिश जब करता हूँ, तब बाबा के उतने ही करीब रहता हूँ और बाबा भी सदैव मेरा ध्यान रखते ही हैं।

हेमाडपंत स्वयं अपनी भूमिका इसी अध्याय में कितनी ईमानदारी के साथ निभाते हैं। साईनाथ की इस लीला को देखते समय उस लीला को ‘प्रतिसाद’ के रूप में उनके मन में तुरंत यह विचार उत्पन्न होता है कि साईबाबा की लीलाओं का संग्रह करके बाबा का चरित्र लिखना चाहिए। ऐसा विचार मन में आते ही वे बाबा की लीलाओं को निरंतर निहारते रहते हैं, उनका निरीक्षण करके अपने पास संग्रह कर लेते थे। अर्थात साईनाथ के बस्ते को संभालते हैं।

साई अवतार में हर एक भक्त की अपनी अलग ही भूमिका है । हेमाडपंत पूर्णत: एकरूप होकर बाबा की शरण में चले जाते हैं और अपनी भूमिका बिलकुल ईमानदारी के साथ निभाते हैं। १०८% उन्हें पूर्णत्व प्रदान करने के लिए बाबा समर्थ हैं ही।

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