श्रीसाईसच्चरित अध्याय १ (भाग ४८)

श्रीसाईसच्चरित यह साईबाबा का चरित्र तो है ही, साथ ही यह उनके भक्तों का भी चरित्र है। श्रीसाईनाथ ने हर एक भक्त का जीवन-विकास कैसे करवाया, इस बात का विवेचन यह करता है। मेरे साईनाथ तो हर किसी का समग्र जीवनविकास करने में समर्थ तो हैं ही पर इसके लिए भक्तों की ‘तैयारी’ होनी चाहिए। मेरे साईनाथ अपनी भूमिका अचूक निभा रहे हैं, मुझे अपनी भूमिका ईमानदारी के साथ निभाने आनी चाहिए। ये साईनाथ ‘साक्षात् ईश्‍वर’ सगुण साकार रूप में अवतरित हुए हैं, उन्होंने मानवीय काया धारण की और उसी समय उन्होंने मुझे भी धरती पर बुला लिया (जन्म लेकर), साथ ही अपने पैरों तक खींच भी लिया है।

08l- साईबाबा

फिर मुझे इस मानव जन्म को यूँ ही ‘व्यर्थ’ नहीं जाने देना चाहिए। मुझे इस अवसर को सुवर्ण अवसर बनाना है, क्योंकि ऐसा मौका फिर से मिलेगा या नहीं, यह भला कौन जानता है! ‘कल’ किसने देखा है! ‘जो कुछ भी करना है वह आज और अब ही’ ऐसा होना चाहिए मेरा किरदार।

नि:स्वार्थ प्रेम के कारण ही मेरे साईनाथ यह मानव देह धारण करके आये हैं और यह सुवर्ण अवसर है, जो मुझे किसी भी कीमत पर गवाना नहीं हैं। इसके लिए मुझे अपनी भूमिका निश्‍चित कर उसे अचूक रीति से निभाना ही है। इस बात का दिग्दर्शन गेहूँ पीसनेवाली कथा के माध्यम से साईनाथ ने हमे किया है। सच्चे भक्त की भूमिका कैसी होनी चाहिए इसके बारे में हमने उन चारों स्त्रियों के आचरण से (भूमिका) जान लिया है । बाबा गेहूँ पीसने बैठे हैं, इस बात का पता चलते ही सच्चे भक्त को अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए, यह बात इस कथा के माध्यम से हेमाडपंत हमे बता रहे हैं।

ऐसे समय में एक सच्चा भक्त अपना कर्तव्य पूरी ईमानदारी से निभाते हुए अपने स्वयं के जीवन का समग्र विकास साध्य कर लेता है। जब सद्गुरु लीला करते हैं तब सच्चा भक्त प्रतिक्रिया (रिअ‍ॅक्ट) न करते हुए उन्हें प्रतिसाद (रिस्पाँज़) देता है। यही एक सच्चे भक्त की पहचान होती है। जब उन स्त्रियों को पता चलता है कि बाबा गेहूँ पीसने बैठे हैं, तो तुरन्त ही वे स्त्रियाँ प्रतिक्रिया न करते हुए उन्हें प्रतिसाद देती हैं और उनके इस कार्य में शामिल होकर अपना जीवनविकास साध्य कर लेती हैं, यही महत्त्वपूर्ण बात हमें इस कथा से सीखनी चाहिए। हमें प्रतिक्रिया को हावी न देने देते हुए साई को प्रतिसाद देना सीखना चाहिए। सद्गुरु जब कोई लीला करना आरंभ करते हैं तब हम उस लीला के संबंध में तर्क-कुतर्क करने लगते हैं, उसकी चिकित्सा कर उसका अर्थ ढूँढ़ने लगते हैं, दुनिया भर की आलोचना करने लगते हैं और अपने मन की अलग खिचड़ी पकाने लगते हैं, अपनी ही हाँकने लगते हैं। जैसे कि अब सद्गुरु ने ऐसा किया है तो अब वे वैसा करेंगे आदि………… । ‘बाबा ने आटा पीसा है तो अब उससे अनेक प्रकार के विशेष व्यंजन बनेंगे, हंडी पर पकाये जायेंगे’ अथवा ‘वह आटा वे हमें दे देंगे और हमसे कहेंगे- इसे अपने घर के आटे में मिलाकर रोटी बनाकार खाओगे तो महामारी का भय नहीं रहेगा’ आदि कल्पनाएँ हम करते हैं।

कैसे हैं हम? साई के पीसने बैठते ही कैसी-कैसी प्रतिक्रियाएँ हम व्यक्त करने लगते हैं! यह तो एक उदाहरण है। इससे भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ भी हो सकती हैं। कोई घर जाकर सूप, अथवा अन्य बरतन भी ला सकता है। हमें इस प्रकार की प्रतिक्रियाएँ न देते हुए बाबा को प्रतिसाद देना सीखना चाहिए अर्थात बाबा गेहूँ पीसने बैठे हैं यह सुनते ही हमें भी तुरंत ही उनके कार्य में शामिल हो जाना चाहिए। एक समय में चार से अधिक लोग तो यह पीसने का कार्य नहीं कर सकते हैं। तब मुझे बाबा का अन्य कोई कार्य करते हुए उनके कार्य का सहभागी बनना चाहिए। जैसे कि जब तक बाबा पीसने बैठे हैं तब तक अहोरात्र जलते रहनेवाले दीये की बाती ठीक करना, उसका ध्यान रखना, धुनी प्रज्वलित रखने के लिए धुनी की ओर ध्यान देना, द्वारकामाई की साफ़-सफाई का ध्यान रखना, बाबा को पंखे से हवा करना, देखनेवालों की भीड़ पर नियंत्रण रखना आदि अन्य काम उस समय हम कर सकते हैं। बाबा पीसने बैठे हैं अर्थात ज़रूर वे कोई परमेश्‍वरी कार्य कर रहे हैं, हमारे लिए ही तकलीफ उठा रहे हैं। ऐसे में हम शांति से बैठकर प्रार्थना आदि कर सकते हैं, उन चारों स्त्रियों की तरह गुणसंकीर्तन कर सकते हैं, मन ही मन नामस्मरण, स्तोत्र पाठ कर सकते हैं।

द्वारकामाई में ही हम यह कर सकते हैं, ऐसा भी नहीं है। बाबा के काम में वे मेरी चारों श्रद्धावान बहनें जो अपना काम अधूरा छोड़कर बाबा के कार्य में शामिल हो चुकी हैं. मैं उनके घर जाकर उनके उस अधूरे काम को पूरा कर सकता हूँ। क्योंकि वे बाबा के कार्य में शामिल हैं, तो मुझे उनका अधूरा काम पूरा करने में संकोच नहीं करना चाहिए। यह भी बाबा का पूरक कार्य ही कहलायेगा। यदि कोई श्रद्धावान भगवान के कार्य में अपना सर्वस्व लुटा रहा है तब मुझे भी अपनी ताकत के अनुसार उसकी सहायता करनी ही चाहिए।

१)द्वारकामाई में
२)श्रद्धावान बहनों के घर पर

इसके साथ ही तीसरे स्थान का भी महत्त्व उतना ही है और वहाँ पर हम जो करेंगे वह कार्य भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जो बाबा के कार्य का पूरक भी है और बाबा के कार्य को दिया जानेवाला प्रतिसाद भी। यह तीसरा स्थान है शिरडी गाँव एवं वहाँ का पर्यावरण। मान लो कि हमें उन चारों के घरों में एवं द्वारकामाई में काम करना नहीं आता है अथवा उतनी हमारी क्षमता नहीं है, तो बेवजह उसमें घुसकर उस काम को बिगाड़ने से कहीं अच्छा है कि उस तीसरे काम को ही चुने अर्थात ‘स्वच्छता’ करें. साफसफाई करें।

मेरे बाबा महामारी को दूर करने के लिए गेहूँ पीसने बैठे हैं। यह काम उनके लिए कोई मुश्किल नहीं हैं। जिनके पलक झपकाते ही संपूर्ण विश्‍व में प्रलय मच जाता है, उनके लिए कोई भी कार्य असंभव है ही नहीं, मग़र फिर मेरे बाबा मानवी देह की सभी मर्यादाओं का पालन करते हुए स्वयं गेहूँ पीसकर आटा तैयार करके ही महामारी को दूर करने के लिए क्रियाशील हैं। तब बाबा को प्रतिसाद देने हेतु यदि हम भी स्वच्छता का कार्य भी कर सकते हैं, तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। शिरडी गाँव के आस पास के पर्यावरण का ध्यान तो हम रख ही सकते हैं।

हमारी संस्था की ओर से चलाया जानेवाला ‘स्वच्छता अभियान’ कितने अच्छे प्रकार से चलाया जाता है, यह तो हम जानते ही हैं । तृतीय विश्‍वयुद्ध में यदि दुश्मन जैविक शस्त्रास्त्रों का उपयोग करते हैं, तो संक्रामक रोगों का प्रादुर्भाव होकर उपद्रव मच जायेगा। जिस गाँव में अथवा शहर में अस्वच्छता होगी वहाँ पर अधिक धोखा होगा। महायुद्ध ही क्यों वैसे भी आये दिन हमारे यहाँ अस्वच्छता बढ़ती ही जा रही है। इससे भी अनेक प्रकार की बीमारियों का जन्म हो सकता है, इस बात को भी नजरअंदाज करने से नहीं चलेगा। साईनाथ शिरडी को महामारी से मुक्ति दिलाने के लिए स्वयं गेहूँ पीसने बैठे हैं। तब मैं कम से कम शिरडी में साफ़-सफाई करने का काम करके बाबा की साद को प्रतिसाद दूँ तो कितना अच्छा होगा। उपर्युक्त तीनों में से जो भी कार्य मेरे योग्य है उसे मुझे करना है और अपनी इस ज़िम्मेदारी को भली-भाँति निभाना है। उनके कार्य के प्रति मुझे कभी भी प्रतिक्रियात्मक रवैया नहीं अपनाना चाहिए।

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