श्री साई सच्चरित अध्याय १ (भाग २०)

sainath_mauliसाई बाबा की गेहूँ पीसनेवाली लीला यानी भोले-भाले भक्तों के लिए परमार्थ सहज सामान्य करके दिखा देने की क्रिया । जाते के दोनों तह और खूंटा इनके एकत्र आजे से जैसे गेहूँ पीसने की क्रिया होती है इसी के साथ गेहूँ का रूपांतर आटे में होता है, उसी प्रकार श्रद्धा और सबुरी एवं अनन्यता इन तीनों बातों के एकत्रित आ जानेसे भक्ति मार्ग पर चलना आसान हो जाता है, और परमार्थ सहजता से साध्य किया जा सकता है ।

ये साईमाऊली विठुमाऊली ही हैं, यह हेमाडपंत हमें इस गेहूँ पीसनेवाली कथा के माध्यम से बता रहे हैं, इससे संबंधित अध्ययन हम कर चुके हैं। ‘पर पीसनेवाला यही एक’ इस पंक्ति के एक चरण में वे साई बाबा के विठ्ठल स्वरूप को स्पष्ट करते हैं । ईंट पर समचरण खड़ा रहनेवाला, अठ्ठाईस युगों से भक्तों की राह देखते पंढरपुर में पुंडलिक को दिए वचनानुसार कमर पर हाथ रखे खड़ा रहनेवाला पांडुरंग ही शिरडी में अवतरित हुए हैं । कारण भक्तों के लिए कष्ट उठानेवाला सिर्फ़ यही एक है । भक्तों के लिए स्वयं देह धारण करके अपार परिश्रम करनेवाली सिर्फ़ यही एक विठुमाऊली, साईमाऊली है । तीर्थयात्रा के लिए लगातार पैदलयात्रा करनेवाले संतो के अनेक कथाओं में यह कथा हमें वारंवार दिखाई देती है ।

देखा जाये तो गेहूँ पीसनेवाली क्रिया की क्या ज़रूरत थी? यदि हम थोड़ा सा भी सोचते है तब हमें यह बात अपने आप स्पष्ट हो जाती है कि गेहूँ का रूपांतर आटे में करने के लिए पीसने की आवश्यकता है । गेहूँ को आटा क्यों बनाना चाहिए?  यानी गेहूँ को यूँ तो हम खा नहीं सकते और यदि उसे हम ऐसे ही कच्चा ही खा लेते है तब उसे हज़म कर पाना मुश्किल है दूसरे खाते समय उसे चबाना भी कठिन है । यानी चपाती (रोटी) यह मेरी ज़रूरत है उसे पुरा करने के लिए पीसने की क्रिया सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण एवं मूलभूत तत्त्व है । पीसने के कारण ही, पहले खाने के लिए सख्त – कठिन रहनेवाला गेहूँ अब आटे के रूप में परिवर्तित हो जाने से मुझे खाने के लिए सहज सरल (आसान) हो गया । ‘पर पीसनेवाला यही एक’ इस वाक्य में हेमाडपंत इस साईनाथ के एकमेव अद्वितीयत्व को स्पष्ट कर रहे हैं ।

माँ जैसे अपने बच्चे के लिए दूध-भात भी और अधिक मुलायम करके, उसे मसलकर (उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़कर) उसे खाने को देती है, उसी प्रकार ये साईनाथ, ये साईमाऊली अपने बच्चों के लिए गेहूँ  पीसने बैठी है । गेहूँ को वैसे ही खाना यानी ज्ञानमार्ग द्वारा, योगमार्ग से अथवा अन्य किसी भी कठिन मार्ग से परमार्थ साध्य करना । इस तरह से गेहूँ खाना और उसे हज़म करना बहुत ही कठिन है यानी सर्व सामान्य के लिए ज्ञान, योग आदि कठिन / (मुश्किल तरीकेसे) मार्ग से परमार्थ साध्य करना बहुत ही मुश्किल है । परन्तु ये गेहूँ तो पोषक तत्त्व है, इसे खाये बगैर सामर्थ्य प्राप्त नहीं होगा । जीवन सुखपूर्वक निरोगी बनकर जीना मुश्किल होगा । फिर सामान्य भोले-भाले (भाविकों को ) भक्तों को ये गेहूँ खाना कैसे स्वाभाविक होगा इस बात की चिंता इस साईमाऊली को है । गेहूँ के सभी पोषकतत्त्व, उत्कृष्ट गुणधर्म तो मेरे बच्चों को मिलना ही चाहिए, परन्तु इसके लिए सीधे गेहूँ खाने के बजाय अन्य सहज सरल तरीके से इसका सेवन वे भी कर सके, इसके लिए मेरी यह साई माऊली स्वयं गेहूँ पीसने बैठी है ।

साई बाबा की गेहूँ पीसने की लीला यानी परमार्थ को सहज सरल बनाकर, भक्तों के लिए सहजसुंदर रास्ता निर्माण करने की लीला । साईनाथ का अवतार जिस समय में हुआ था, उस समय का विचार करने पर पता चला है कि, उस समर्थ में सच्चे भक्ति मार्ग का तकरीबन हर किसी को विस्मरण हो चला था । उसके स्थान पर अनुचित प्रथा, वृत्ति और आडंबर इन सब का बोलबाला सिर्फ हुआ ही नहीं था, बल्कि, इन सबने मजबूती के साथ अपने कदम जमा लिए थे । भक्ति के नाम पर लोगों की भोली-भाली जनता को बहला-फुसला कर (अपनी जेब भरनेवाले) अपने आपको सर्वोत्तम कहलानेवाले ‘सद्‌गुरु’ संपूर्ण समाज को अनुचित दिशा की ओर ले जा रहे थे ।

ऐसे इस प्रतिकूल परिस्थिती में सच्चा भक्तिमार्ग, सच्चा सद्‌गुरु, सच्चा भक्त आदि हर प्रकार से सुस्पष्ट रूप में सबके सामने (लाना) प्रस्तुत करने के लिए तथा इस भारतभूमि का मुकुटमणि होनेवाले मर्यादाशील भक्तिमार्ग को उज्ज्वल करने के लिए इस परमात्मा ने, इस सावरे ने, इस विठ्ठलने, साईरूप में अवतार लिया । परमार्थ साध्य करने के लिए नाक दबाकर, ब्रह्ममाया की चर्चा करके कर्मकांड का आहार बनकर कोई न कोई ढोंग-ढकोसला करना आवश्यक नहीं है, श्रद्धा-सबुरी एवं अनन्य सद्‍गुरु निष्ठा इस सहज-सरल मार्ग से परमार्थ आसानी से हर-कोई साध्य कर सकता है । किंबहुना गेहूँ पूर्णत: पाचक एवं पौष्टिक तत्त्व से बनता है, उसका आटा बनाने पर ही, यानी सही मायने में भक्ति मार्ग पर चलते हुए ही सच्चा परमार्थ साध्य किया जा सकता है । इस परमात्मा का सामीप्य प्राप्त होता है सिर्फ़ भक्तिमार्ग से ही । इसी सच्चाई को पुन: एक बार सबको  समझाकर बताने के लिए ही साईनाथ माऊली ने अवतार लिया था – ‘भक्त्याऽ हमे कथा ग्राह्य:।’

गेहूँ आदि पीसने का कार्य अपने भारत देश में पहले से ही (आदिकाल) स्त्रियाँ ही करते आई हैं । पुरूषों के लिए ये काम नहीं ऐसी कोई बात नहीं थी, परन्तु जाते पर पीसने के लिए बैठनेवाली गृहिणी (महिला) का दृश्य इस भारतवर्ष के ग्रामीण क्षेत्रों में अकसर प्रात: समय में दिखाई देता था, बिलकुल कुछ वर्षों में गेहूँ पीसने बैठे हैं । अपने बच्चों के लिए परमार्थ सहज, सरल, सुंदर बनाकर देनेवाला यह भक्तिमार्ग का अद्‍भुत ऐसा आटा है । संपूर्ण शिरडी में महामारी का संकट आन पड़ा था । यानि सच्चा भक्ति मार्ग पराया बन जाने के कारण इस भारत देश के हर एक को अन्तर्बाह्य प्रारब्ध भोग से उठनेवाले दु:ख-तकलीफ़ के महामारी न परास्त कर दिया था । इस प्रारब्ध भोग का नाश केवल और केवल हरि कृपासे ही होता है । यह संत एकनाथ द्वारा कहा गया सर्वोच्च मर्म इस साईमाऊली ने ही भोले-भाले भक्तों को बताया । प्रारब्ध का नाश करनेवाली हरिकृपा को प्राप्त करना यानी परमार्थ साध्य करना यह बिलकुल भी कठिन न होकर बिलकुल सहज साध्य हैं ।  और उसके लिए हरिभक्ति यही सर्वांग सुंदर और सहज सरल मार्ग है ।

इस भक्ति मार्ग का आचरण कैसे करना चाहिए यह सभी को दिखाने के लिए ही बाबा यह गेहूँ पीसने की लीला करते हैं ।
जाते के नीचेवाला तल (चक्का) = श्रद्धा
जाते के ऊपरवाला तल (चक्का) = सबुरी
जाते का मज़बूती से ठोका गया (मज़बूत किया) खूंटा = अनन्यता

सच्चा भक्तिमार्ग यानी बाबा का यह आटा । बाबा ने सिर नीचे झुकाकर यहाँ पर गेहूँ पीसने की लीला की इसका कारण यही है कि हम मनुष्यों को इस पवित्र भक्तिमार्ग को अपने तुच्छ स्वार्थ हेतु, (छोटे-मोटे स्वार्थ के लिए) अहंकार हेतु, कितना भ्रष्ट स्वरूप दिया था । जो मूलत: शुद्ध आल्हादिनी भक्ति है, उसके मूल स्वरूप को नज़र अंदाज करके हमारे अपने द्वारा ही निर्माण किए गए विकृत प्रथाओं को ही भक्ति का लेबल लगा दिया । बाबा को इस गलत आडंबरों का ही निर्दलन करना था । यह वर्तुलाकार घुमनेवाला जाता कोरा ‘जाता’ न होकर वह साक्षात इस साईनाथ महाविष्णु का सुदर्शन चक्र ही है । दुष्टों का निर्दलन करनेवाले सुदर्शन चक्र यानी दुष्ट प्रथा एवं वृत्तियों को रगड़ कर पीसनेवाला यह, इस साईनाथ के हाथों का जाता है ।

बाबा की यह पीसनेवाली लीला यानी भोले-भाले भक्तों के लिए परमार्थ सहज की सरल करके दिखानेवाली क्रिया । जाते के दोन चक्के (तह) और खूंटा, इनके एक साथ मिलने पर जैसे गेहूँ पीसने की क्रिया होती है और इसी से गेहूँ का रूपांतर आटे में होता है, उसी प्रकार श्रद्धा-सबुरी एवं अनन्यता इन तीनों के एक साथ आने पर भक्तिमार्ग का प्रवास किया जा सकता है, परमार्थ भी सहजता से साध्य किया जाता है । हमारे लिए गेहूँ का आटा बनाकर देनेवाली ऐसी यह हमारे लिए निरपेक्ष प्रेम से (नि:स्वार्थ) पीसनेवाली है, अपनी यह साईमाऊली । बाबाने पीसनेवाली इस लीला से हमारे लिए परमार्थ इस प्रकार सहज सरल बनाया । जो परमात्मा से प्रेम करनेवाला सच्चा एकनिष्ठ भोला भाविक है उसके लिए भक्ति की पैदल राह आसान कर दि । आगे भिमाजी पाटील के कथा के अन्त में हेमाडपंत हमें यही रहस्य और अधिक स्पष्ट करके बतला रहे हैं ।

दो हाथ एक माथा । स्थैर्य श्रद्धा अनन्यता । ना चाहे कुछ और साई । बस कृतज्ञतापूर्वक अर्पण हो ॥

श्रद्धा और सबुरी ये दो हाथ और अनन्यता रूपी माथा सिवाय इसके और कुछ ना चाहे साई, इसी लिए कृतज्ञतापूर्वक इन तीनों को एक साथ साईचरणों में अर्पण करना इतना ही है बस अपना काम ! इतनी सहज और सरल है यह परमार्थ की भक्तिरूपी राह !

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