समय की करवट (भाग ४९) – ‘कलेक्टिव फार्मिंग’ – सोविएत स्टाईल!

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इस का अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इस में फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उस के आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

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‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर
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इसमें फिलहाल हम पूर्व एवं पश्चिम ऐसी दोनों जर्मनियों के विभाजन का तथा एकत्रीकरण का अध्ययन कर रहे हैं। यह अध्ययन करते करते ही सोव्हिएत युनियन के विघटन का अध्ययन भी शुरू हो चुका है। क्योंकि सोव्हिएत युनियन के विघटन की प्रक्रिया में ही जर्मनी के एकीकरण के बीज छिपे हुए हैं, अतः उन दोनों का अलग से अध्ययन नहीं किया जा सकता।

स्टॅलिन ने अपने पक्षांतर्गत विरोधकों को मार्ग से हटाते हुए सन १९२८ तक कम्युनिस्ट पार्टी पर अपनी पकड़ मज़बूत की। उसने पेट्रोग्रॅड सोव्हिएत के प्रमुख ग्रिगरी झीनोवीव्ह की सहायता से ट्रॉट्स्की को रास्ते से हटाया और उसके बाद झीनोवीव्ह का भी बन्दोबस्त किया!

इसी बीच बेलारुस, कॉकॅशियन राष्ट्र, युक्रेन आदि छोटेछोटे राज्यों ने, रशिया के साथ जुड़े रहकर सोव्हिएत संघराज्य तैयार करने की प्रक्रिया करारनामें आदि करके पूरी की थी। इस कारण नये से निर्माण हुए सोव्हिएत रशिया को अब जागतिक समुदाय से बतौर ‘एक देश’ स्वीकृति मिलें इसके लिए स्टॅलिन ने प्रयास शुरू किये। ब्रिटीश साम्राज्य ने सन १९२४ में सोव्हिएत रशिया को ‘एक देश’ के रूप में मान्यता दी। उसी साल सोव्हिएत रशिया का संविधान अस्तित्व में आया।

एक बार सुप्रीम सोव्हिएत पर अपना एकछत्री नियंत्रण स्थापित होने के बाद स्टॅलिन ने सन १९२८ में सोव्हिएत रशिया को ताकतवर समाजवादी सत्ता बनाने की दिशा में कदम उठाये। लेनिन के दौर में शुरू की गयी ‘न्यू इकॉनॉमिक पॉलिसी’ के बदले संपूर्ण केंद्राधिष्ठित ऐसी नयी नीति घोषित की। मुख्य रूप में उसने पंचवार्षिक विकास योजनाओं की शुरुआत की। उसका अच्छा नतीजा दिखायी देने लगा और सोव्हिएत रशिया के औद्योगिकीकरण की शीघ्रतापूर्वक शुरुआत हुई और कुछ ही अवधि में दुनिया की दूसरे नंबर की सत्ता बनने की दिशा में उनके कदम पड़ने लगे।

लेकिन जैसे जैसे औद्योगिक उत्पादन बढ़ने लगा, वैसे वैसे कर्मचारियों की संख्या भी बढ़ने लगी। उनके खानेपीने का इन्तज़ाम करने के लिए सरकार को अधिक अनाज की ज़रूरत महसूस होने लगी। उसीके साथ औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाने के लिए पश्‍चिमी राष्ट्रों से आधुनिक यंत्रसामग्री को आयात करना पड़ा; लेकिन यह आयात पश्‍चिमी राष्ट्रों को अनाज निर्यात करने के बदले में थी। अर्थात् सरकार के पास जनता का पेट पालने के अलावा भी अतिरिक्त अनाज की राशि का होने भी आवश्यक था। लेकिन खेती की ज़मीन की मालिक़ियत प्राइवेट किसानों के पास होने के कारण, उसके लिए सरकार को किसानों पर निर्भर रहना पड़ता था। साथ ही, वितरणव्यवस्था सदोष होने के कारण ग्रामीण भागों से शहरों तक अनाज पहुँचाने में कई तकली़फें आने लगीं।

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‘कलेक्टिव्ह फार्म’ पद्धति में किसानों को इस प्रकार कम्यून्स में इकट्ठा कर सरकार की ओर से खाने की आपूर्ति की जाती थी। ट्रॅक्टर्स दिए जाते थे। किसान सरकार की ओर से खेतों में ही बंधाकर दिये गये घर में ही रहते थे।

पहले ‘रशियन सिव्हिल वॉर’ के दौरान ‘वॉर कम्युनिझम’ अस्तित्व में था ही (सभी खेती और औद्योगिक उत्पादन सरकारी मालिक़ियत का वगैरा), लेकिन उससे किसानों में उत्पन्न होनेवाली नाराज़गी को दूर करने के लिए; और अनाज का उत्पादन कितना भी निकालने के बावजूद भी किसान को उसका फ़ायदा न मिलने के कारण खेती उत्पादन बढ़ाने को लेकर किसानों में होनेवाली उदासीनता को कम करने के लिए सिव्हिल वॉर के बाद, सरकारने अस्थायी रूप में ‘वॉर कम्युनिझम’ को स्थगित कर थोड़ेबहुत प्रमाण में व्यक्तिगत उत्पादन के लिए मान्यता दी। लेकिन इससे ‘मुनाफ़ा’ यह शब्द केंद्रस्थान में आया और ‘अधिक निवेश करें तो अधिक फ़ायदा’ यह पूँजीवाद का तत्त्व इसमें प्रविष्ट होकर उसमें नफ़ाख़ोरी, कालाबाज़ार जैसीं अनिष्ट बातों की शुरुआत हुई। अमीर किसान अधिक अमीर बन गये; वहीं, ग़रीब किसानों के घर उजड़कर वे इन अमीर किसानों के खेतों में खेत-मज़दूर बने। इस कारण, जिन उद्देशों के लिए ‘श्रमिकों की सरकार’ इस संकल्पना को इतनी भारी क़ीमत अदा कर मूर्तरूप में लाया गया, वे उद्देश्य ही फेल हो गया होने का दावा कट्टर रशिया के कट्टर कम्युनिस्ट नेता करने लगे।

साथ ही, नफ़ाखोरी के कारण कृत्रिम दुष्काळसदृश हालात पैदा हुए। इस कारण चीढ़कर सोव्हिएत सरकार ने अमीर किसानों के गोदामों पर छापें मारना शुरू किया। परिणामस्वरूप पुनः किसानों में नाराज़गी फैलकर, अधिक उत्पादन निकालने के मुद्दे पर उनमें उदासीनता छाने लगी। ज़ाहिर है, ‘श्रमिकों की अपनी सरकार’, ‘कोई ग़रीब नहीं, कोई अमीर नहीं, सभी एक ही स्तर पर ऐसी आदर्श समाजव्यवस्था’; ये सब बातें कागज़ पर ही रह गयीं। वास्तव में, मानवी मन की स्वार्थ, लालच आदि प्रवृत्तियों ने; मानवी भविष्य के लिए शायद अच्छी और आदर्श साबित होती, ऐसी एक जीवनपद्धति को नाक़ाम साबित किया।

दरअसल कम्युनिझम और पूँजीवाद इन दोनों पद्धतियों के तत्त्वतः अपने अपने कुछ फ़ायदे हैं, कुछ ख़ामियाँ हैं। इन दोनों पद्धतियों में होनेवालीं अनिष्ट बातें ज्यादा से ज़्यादा टालकर और अच्छीं बातें प्रॅक्टिकली विचार करके एकत्रित की होतीं, तो एक मध्यममार्गीय आदर्श पद्धति का जन्म हो सकता था। लेकिन ये दो एकदम विरुद्ध छोरों की पद्धतियाँ कभी भी एकसाथ नहीं आ सकीं। उन्होंने हमेशा आत्यंतिक भूमिकाएँ ही अपनायीं।

ख़ैर! इन वजहों के कारण जब सन १९२८ में सरकारी अनाज खरीदारी में २० लाख से भी अधिक टनों का घाटा दिखायी दिया, जब अमीर किसान अपना प्रचंड अतिरिक्त उत्पादन सरकार के हवाले करने के लिए राज़ी नहीं हुए, तब स्टॅलिन ने इस मामले में कड़ा रूख अपनाने का तय किया। उसने निजी उत्पादन, मुनाफ़ा आदि संकल्पनाओं को पुनः रशिया से निकाल बाहर कर देने का ़फैसला किया। सोव्हिएत रशिया की औद्योगिक मोरचे पर दौड़ शुरू होने के बाद, सन १९२८ से स्टॅलिन ने देशभर में ‘कलेक्टिव्ह फार्म’ की संकल्पना पर अमल करना शुरू किया, जिसमें ख़ेतज़मीन की व्यक्तिगत मालिक़ियत खारिज होकर सभी वेत एवं कारखाने पुनः सरकारी मालिक़ियत के बन गये। इसमें अलग अलग कम्यून्स (एकत्रित आने के केंद्र) का निर्माण किया गया। किसानों को सरकार की ओर से इन कम्यून्स में भोजन दिया जाता था। किसानों को ‘कलेक्टिव्ह फार्म’ में ही अस्थायी तौर पर कामचलाऊ घर बाँधकर दिया जाता था। तकरीबन ९० प्रतिशत से भी अधिक किसान इन घरों में रहते हैं।

यह नीति सन १९४० तक सोविएत सरकार ने अपनायी। उससे अनाज की समस्या अस्थायी रूप में तो हल हुई और धीरे धीरे सोव्हिएत रशिया यह नवजात देश युरोप के सत्तासमीकरण बदलने जितना ताकतवर बना; इतना ही नहीं, बल्कि जागतिक महासत्ता बनने के मार्ग पर उसने कदम रखा।

यह सफलता हालाँकि नेत्रदीपक प्रतीत होती हों, लेकिन इसमें वहाँ के नागरिकों का उत्स्फूर्त योगदान यक़ीनन ही नहीं था, बल्कि एक एकतांत्रिक राज्यपद्धति ने कड़े अनुशासन के नाम पर खींचकर ले लिया योगदान था।

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