समय की करवट (भाग ५३) – ‘कोल्ड़ वॉर’ की नांदी!

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इस का अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इस में फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उस के आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

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‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर
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इसमें फिलहाल हम पूर्व एवं पश्चिम ऐसी दोनों जर्मनियों के विभाजन का तथा एकत्रीकरण का अध्ययन कर रहे हैं। यह अध्ययन करते करते ही सोव्हिएत युनियन के विघटन का अध्ययन भी शुरू हो चुका है। क्योंकि सोव्हिएत युनियन के विघटन की प्रक्रिया में ही जर्मनी के एकीकरण के बीज छिपे हुए हैं, अतः उन दोनों का अलग से अध्ययन नहीं किया जा सकता।

दूसरा विश्‍वयुद्ध ख़त्म होने तक, स्टॅलिन को सोव्हिएत रशिया की सत्ता में आकर लगभग दो दशक बीत चुके थे और सत्ता में आते ही उसने शुरू किये ‘पर्ज ऑपरेशन’ के ज़रिये अपने पक्षांतर्गत तथा देशांतर्गत विरोधकों को नामशेष कर देने के कारण पार्टी में और देश में उसका एकतंत्री अमल स्थापित हो ही चुका था। मुख्य रूप में, इतने अरसे में सोव्हिएत रशिया की पूरी पीढ़ी ही बदली होने के कारण और नयी पीढ़ी में जन्म से ही कम्युनिस्ट संस्कार हो रहे होने के कारण उसे भविष्य की उतनी फ़िक्र नहीं लग रही थी।

इस कारण स्टॅलिन ने अब रशिया को युरोप में अव्वल नंबर का स्थान दिलवा देने के लिए और ‘सारी दुनिया में कम्युनिझम का प्रसार’ यह अपना छिपा लक्ष्य साध्य करने के लिए आन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर ध्यान केंद्रित करने का तय किया। लेकिन उसके लिए उसने उसी – ‘सारी दुनिया में कम्युनिझम का प्रसार’ इस अपने अ‍ॅजेन्डा को पर्दे के पीछे छिपाते हुए; ‘पूँजीवादी सत्ताएँ’ होने के कारण पहले ही निषेध व्यक्त किये अमरीका, इंग्लैंड़ जैसे देशों के साथ सहयोग की नीति अपनायी। उसकी शुरुआत युद्ध के दौरान ही हो चुकी थी। जब हिटलर की सेनाएँ मॉस्को-स्टॅलिनग्राड तक पहुँचीं थीं, तब उस दौरान रशिया को अनाज, शस्त्र-अस्त्र आदि सामग्री की आपूर्ति अमरीका-ब्रिटन ने ही की थी। लेकिन इस सहयोग के पीछे किसी भी प्रकार का ‘मानवतावादी दृष्टिकोण’ वगैरा न होकर, केवल ‘हिटलर को ख़त्म करना’ यही उनका स्वार्थ था। लेकिन इस बात का फ़ायदा रशिया को अधिक हुआ।

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फ़रवरी १९४५ में आयोजित की गयी याल्टा परिषद में ‘बिग थ्री’ – ब्रिटीश प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल, अमरिकी राष्ट्राध्यक्ष फ्रँकलिन रूझवेल्ट तथा सोव्हिएत रशिया के सर्वेसर्वा जोसेफ स्टॅलिन

दूसरा विश्‍वयुद्ध ख़त्म हुआ और हिटलर की ‘रशिया मुहिम’ के कारण दूसरे विश्‍वयुद्ध की सर्वाधिक आँच पहुँचे देश के रूप में रशिया, युद्धपश्‍चात् की विजेता राष्ट्रों की बैठकों में सर्वाधिक मुआवज़े का दावेदार साबित हुआ। फ़रवरी १९४५ में याल्टा में और आगे जुलाई १९४५ में बर्लिन में हुईं इन बैठकों की चर्चाओं में तय कियेनुसार जर्मनी के और बर्लिन के भी चार टुकड़ें कर चार विजेता राष्ट्रों में बाँट दिये गये। जर्मनी को पूरी तरह ख़त्म ही करना है, यह विचार हावी हुए स्टॅलिन ने – जर्मनी ने रशिया मुहिम में किये रशिया के अपरिमित नुकसान का राग अलापते हुए – जर्मनी के उद्योगधंधे, खेती इनपर अपना हक़ जताया।

दोस्त राष्ट्रों की नाक में दम करनेवालीं जर्मन फौज़ों को धूल चटाकर दूसरे विश्‍वयुद्ध का पल्ड़ा निर्णायक रूप में दोस्त राष्ट्रों के पक्ष में मोड़नेवाला सोव्हिएत रशिया, विश्‍वयुद्ध जीता देने के कारण ‘शर्तें रखने की’ स्थिति में था। इस कारण अन्य विजेता देशों ने भी स्टॅलिन के अनुनय की नीति अपनाते हुए, थोड़ीबहुत खिटपीट करके ही सही, लेकिन स्टॅलिन की शर्तें मान लीं। लेकिन उसके बदले में, दूसरे विश्‍वयुद्ध में जीत लिये या सोव्हिएत के प्रभाव में होनेवाले पूर्व युरोपीय राष्ट्रों में जनतंत्र की मात्रा बढ़ानी चाहिए, यह बात स्टॅलिन को माननी पड़ी।

….लेकिन केवल कागज़ पर ही! क्योंकि दरअसल असके पश्‍चात् के समय में स्टॅलिन की पूर्व युरोपीय देशों के बारे में अपनायी नीति संपूर्ण रूप में इसके खिलाफ़ थी। स्टॅलिन ने इन सभी देशों में कम्युनिस्ट नेताओं का प्रभाव बढ़ाकर मॉस्को के इशारों पर कठपुतलियों की तरह नाचनेवालीं सोव्हिएतपरस्त सरकारें स्थापित कीं। चर्चिल ने ज़िक्र किये हुए अदृश्य ‘आयर्न कर्टन’ का निर्माण इसी कालावधि में हुआ। पूर्व जर्मनी पर होनेवाले पश्‍चिमियों के प्रभाव को मिटाने के लिए तो सोव्हिएत रशिया ने कई चालें खेलकर बर्लिन को पश्‍चिमी देशों के अलग करने की कोशिशें कीं। (‘बर्लिन ब्लॉकेड’ आदि – इस विषयसंबंधी विवरण इस लेखमाला में जर्मनी-एकत्रीकरण के भाग में आया ही है।

उसके आगे रशिया का आन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में वज़न दिनबदिन बढ़ता ही गया। जो देश विश्‍वयुद्ध से पहले सोव्हिएत रशिया के साथ सहयोग करने से इन्कार कर रहे थे, उनमें से लगभग सभी देशों के साथ सोव्हिएत रशिया के राजनैतिक संबंध विश्‍वयुद्ध के बाद के चार-पाँच सालों में ही स्थापित हुए; क्योंकि अब अमरीका के टक्कर की अव्वल नंबर की जागतिक महासत्ता के रूप में सोव्हिएत रशिया का भी डंका बजने लगा था। तानाशाही नीति से ही सही, लेकिन स्टॅलिन के कार्यकाल में सोव्हिएत रशिया की, खेती, उद्योग, विज्ञान-तंत्रज्ञान जैसे क्षेत्रों में प्रगति नेत्रदीपक थी। इसलिए बतौर ‘सहूलियत की राजनीति का हिस्सा’, सोव्हिएत रशिया के साथ होनेवालीं पुरानी दुश्मनियाँ भूलकर कई राष्ट्र सोव्हिएत रशिया के ‘गुडबुक्स’ में आने के लिए जानतोड़ कोशिशें कर रही थीं।

आन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में अब ध्रुवीकरण (पोलरायज़ेशन) तेज़ी से होने लगा था। पहले विश्‍वयुद्ध के बाद अस्तित्व में आयी, लेकिन दूसरे विश्‍वयुद्ध को टालने में असमर्थ रहा ‘लीग ऑफ नेशन्स’ यह आन्तर्राष्ट्रीय संगठन नामशेष हो चुका था। उसके स्थान पर दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद तुरन्त ही जो ‘संयुक्त राष्ट्र संगठन’ (‘युनो’) अस्तित्व में आया, उसके संस्थापक सदस्यों में से एक सोव्हिएत रशिया था। केवल संस्थापक सदस्यों में से ही एक नहीं, बल्कि विश्‍वयुद्ध के विजेता राष्ट्रों में से प्रमुख राष्ट्र साबित होने के कारण, युनो के केंद्रस्थान में होनेवाले और युनो के ध्येय-नीतियाँ निर्धारित करने में अहम हिस्सा होनेवाले अतिशक्तिशाली पाच-सदस्यीय (‘बिग-फाईव्ह’) सुरक्षामंडल (‘सिक्युरिटी कौन्सिल’) का भी वह सदस्य बना। उसे अमरीका, ब्रिटन, फ्रान्स एवं चीन इन अन्य चार सदस्यों की तरह ही नकाराधिकार (‘व्हेटो’) प्राप्त हुआ।

लेकिन इसी व्हेटो का कदम कदम पर इस्तेमाल करके सोव्हिएत रशिया, दुनिया को अण्वस्त्ररहित (‘डिसआर्मामेंट’) करने के आन्तर्राष्ट्रीय प्रयासों में समय समय पर रोड़ा बनकर खड़ा रहा और सोव्हिएत रशिया ने अफगानिस्तान आदि देशों में की घुसपैंठ के खिलाफ़ कार्रवाई करने का प्रस्ताव जब जब आन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के द्वारा लाया गया, तब तब उन प्रस्तावों को, इसी व्हेटो का इस्तेमाल करके सोव्हिएत रशिया ने कचरे के डिब्बे में डाल दिया।

लेकिन युनो में चल रही सोव्हिएत रशिया की इस मग़रूरी एवं घुसपैंठ की नीति को मात देने के लिए अप्रैल १९४९ में अमरीका की अगुआई में, प्रायः पश्‍चिमी देशों का समावेश होनेवाला ‘नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनायझेशन’ (‘नाटो’) यह संगठन अस्तित्व में आया। उसके किसी भी सदस्य राष्ट्र पर आक्रमण होने पर नाटो के सभी सदस्यों के द्वारा उस आक्रमण के विरोध में संयुक्त कार्रवाई की जायेगी, यह इस संगठन के चार्टर में होनेवाला मुख्य मुद्दा था।

इसी दौरान, जित जर्मनी के पुनर्वसन के लिए पश्‍चिमी देशों के प्रयास चल रहे थे। उसमें ऊपरी तौर पर हालाँकि मानवतावादी दृष्टिकोण जताया गया था, मग़र उन प्रयासों के पीछे का वास्तविक उद्देश्य, लगातार थोंपी जानेवाली अपमानजनक शर्तों के कारण जर्मनी में धधक रहे असन्तोष में से पुनः दूसरे हिटलर का निर्माण होकर वह दुनिया को बंधक न बनायें, यह था।

लेकिन हिटलर की साम्राज्यवादी योजनाओं से सबसे अधिक नुकसान हुए सोव्हिएत रशिया का इस पुनर्वसन को जमकर विरोध था।

….इसीमें से अमरीका-रशिया में जो मतभेद निर्माण हुए, वे आगे चलकर ‘कोल्ड वॉर’ में रूपान्तरित हुए!

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