समय की करवट (भाग ५२) – श्रमिकों की सरकार होनेवाला देश जागतिक महासत्ता

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इस का अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इस में फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उस के आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

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‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर
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इसमें फिलहाल हम पूर्व एवं पश्चिम ऐसी दोनों जर्मनियों के विभाजन का तथा एकत्रीकरण का अध्ययन कर रहे हैं। यह अध्ययन करते करते ही सोव्हिएत युनियन के विघटन का अध्ययन भी शुरू हो चुका है। क्योंकि सोव्हिएत युनियन के विघटन की प्रक्रिया में ही जर्मनी के एकीकरण के बीज छिपे हुए हैं, अतः उन दोनों का अलग से अध्ययन नहीं किया जा सकता।

यह दूसरा विश्‍वयुद्ध सोव्हिएत रशिया के लिए काफ़ी महत्त्वपूर्ण साबित हुआ| हालॉंकि पहले विश्‍वयुद्ध के समय सोव्हिएत रशिया अस्तित्व में नहीं आया था और रशिया में झारशाही अस्तित्व में थी, मग़र फिर भी दोनों युद्धों में झुलस जानेवाली तो आम रशियन जनता ही थी….सत्ताधारियों की ज़िद के कारण कुछ विकल्प ही शेष न बचनेवाली! जापान के साथ हुए युद्ध में रशिया हार जाने के बाद मिट्टी में मिली रशिया की आबरू को पुनः सँवरने के लिए, पहले विश्‍वयुद्ध को सत्ताधारियों द्वारा रशियन जनता के माथे पर थोंपा गया; वहीं, दूसरे विश्‍वयुद्ध में दरअसल सोव्हिएत रशिया, स्टॅलिन ने शुरू की हुई मेगा-औद्योगिकीकरण की योजना को भारी मात्रा में मिली सफलता के कारण, अपनी शर्तों पर युद्ध करने की अथवा युद्ध को नकारने की स्थिति में था|

फिर भी स्टॅलिन ने युद्ध में सहभागी होने का फ़ैसला किया| इस समय की जागतिक परिस्थिति को देखते हुए, यदि ऐसा कोई युद्ध हुआ ही, तो वह ‘दूसरा विश्‍वयुद्ध’ ही साबित होगा, यह पूरी तरह ज्ञात होकर भी स्टॅलिन युद्ध में सहभागी हुआ….उसके मन में होनेवाले – पूरे युरोप का कम्युनायझेशन अथवा सोव्हिएतीकरण करने के अंतःस्थ हेतु को पूरा करने का स्वर्णिम अवसर उसे युद्ध में दिखायी दिया इसलिए|

इंग्लैंड़-फ्रान्स इन, स्टॅलिन की नज़र में महज़ पूँजीवादी देश होनेवाले देशों का विनाश करने की ताक में बैठे हिटलर के साथ इसी कारण उसने अनाक्रमण का समझौता किया और उस समझौते में तो – युरोप का ‘विभाजन’, जर्मनी के नियंत्रण में पश्चिम युरोप और सोव्हिएत रशिया के नियंत्रण में पूर्व युरोप ऐसा किया और फिर हिटलर को उसकी साम्राज्यवादी मुहिमों में भरपूर सहायता की….क्योंकि वह कम्युनिझम के पक्के दुश्मन माने जानेवाले इंग्लैंड़-फ्रान्स को रास्ते से हटाना चाहता था|

लेकिन मूलतः ही जानी दुश्मन रहनेवाले देशों के बीच का, केवल मौकापरस्त सहूलियत के लिए किया गया यह सहयोग बहुत समय कर नहीं टिका और हिटलर ने उस समझौते को तोड़कर रशिया पर आक्रमण किया| अतः रशिया को इस युद्ध में सहभागी होना ही पड़ा|

विश्‍वयुद्ध में किये इस प्रवेश के बाद रशियन जनता अगले चार साल, दूसरे विश्‍वयुद्ध के इस सबसे बड़े मोरचे (‘ईटर्न फ्रन्ट’) पर हुए युद्ध में झुलस गयी|

शुरू शुरू में, अत्याधुनिक तंत्रज्ञान से सुसज्जित होनेवाली जर्मन फौज़ों ने रशियन फ़ौज़ों को एकदम मॉस्को-स्टॅलिनग्राड तक पीछे धकेल दिया| इस चुनौती का स्वीकार कर स्टॅलिन ने, ‘आदर्शों को’ बीच में न लाते हुए चर्चिल एवं रूझवेल्ट के साथ उचित समझौते करके रणधुरंधरता के साथ यह युद्ध खेला| बहुत ही स़ख्त माना जानेवाली रशियन ठण्ड का मौसम शुरू होने को था और वह शुरू होने की ही स्टॅलिन राह देख रहा था|

जर्मन फ़ौज़ों को भीतर खींचकर लाते हुए, उन्हें इतनी लंबी दूरी तक रसद की आपूर्ति होना स्टॅलिन ने नामुमक़िन कर दिया| पीछे जाते हुए भी रशियन फ़ौज़ों ने ‘दग्धभू’ नीति (बीच रास्ते के सभी खेत, पेड़-पौधे आदि जलाकर ज़मीन को दुश्मन के लिए निरुपयोगी बना देने की नीति) का स्वीकार किया|

समय की करवट, अध्ययन, युरोपीय महासंघ, विघटन की प्रक्रिया, महासत्ता, युरोप, भारतसमय की करवट, अध्ययन, युरोपीय महासंघ, विघटन की प्रक्रिया, महासत्ता, युरोप, भारतआख़िर स्टॅलिन की योजना का, वह ठण्ड का मौसम शुरू हुआ और उसकी उम्मीद के मुताबिक ही, युद्ध की तुलना में उस ठण्ड ने जर्मन फ़ौज़ों की नाक में दम कर दिया| लेकिन ऐसे ठण्ड की आदत होनेवालीं सोव्हिएत फ़ौज़ें ‘विंटर गीअर’ से सुसज्जित थीं|

स्टॅलिनग्राड और मॉस्को में अंतिम निर्णायक घमासान लड़ाइयॉं हुईं| स्टॅलिनग्राड की लड़ाई में अतिश्रमों के कारण, अतिठण्ड के कारण और बीमारियों से ग्रस्त हो चुके और दुर्बल तथा हतोत्साहित हो चुकीं जर्मन फ़ौज़ों को हराना रशियनों के लिए आसान बात थी| उन्होंने अब इस थकीमॉंदी जर्मन सेना को घेरकर, उनका बन्दोबस्त करके, आगे अप्रैल १९४५ में वे ठेंठ बर्लिन तक जा पहुँचे| ३० अप्रैल तक तो हिटलर जिस बेसमेंट में छिपकर बैठा था, वहॉं तक भी रशियन फ़ौज़ें पहुँच गयीं, लेकिन उनके हाथ लगने से पहले ही हिटलर ने आत्महत्या कर ली थी| दूसरे विश्‍वयुद्ध के जनक ने इस दुनिया से विदा ली थी|

और रशिया युद्ध में सहभागी होने से पहले दोस्तराष्ट्रों (‘ऍलीज़्’) की नाक में दम कर देनेवाले हिटलर का अन्त करने का श्रेय सोव्हिएत रशिया को मिलने के कारण जागतिक मंच पर का उसका स्थान ते रफ़्तार से ऊपर चला गया….यहॉं तक कि अमरीका को तुल्यबल साबित होनेवाली दूसरी जागतिक महासत्ता उसे माना जाने लगा!

पहले विश्‍वयुद्ध के बाद ‘श्रमिकों की सरकार’ इस संकल्पना में से जन्मा यह देश दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद ‘जागतिक महासत्ता’ बन चुका था!
क्या बात यहीं पर ख़त्म हुई थी? दो विश्‍वयुद्धों में झुलस चुकी दुनिया में चल रहा संघर्ष क्या यहीं पर ख़त्म हुआ था?

इसका जवाब केवल वक़्त ही दे सकता था!

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