समय की करवट (भाग ४५) – रशियन सिविल वॉर

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इस का अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इस में फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उस के आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

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‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर
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इसमें फिलहाल हम पूर्व एवं पश्चिम ऐसी दोनों जर्मनियों के विभाजन का तथा एकत्रीकरण का अध्ययन कर रहे हैं। यह अध्ययन करते करते ही सोव्हिएत युनियन के विघटन का अध्ययन भी शुरू हो चुका है। क्योंकि सोव्हिएत युनियन के विघटन की प्रक्रिया में ही जर्मनी के एकीकरण के बीज छिपे हुए हैं, अतः उन दोनों का अलग से अध्ययन नहीं किया जा सकता।

अक्तूबर १९१७ की रशियन राज्यक्रांति के बाद रशिया में स्थापितों की सत्ता का त़ख्ता पलट गया और श्रमिकों की पहली सरकार स्थापित सोने का मार्ग खुला हो गया यह बात हालाँकि सच है, लेकिन स्थापित पूँजीपति शान्त नहीं बैठे थे। वे लेनिन के बोल्शेविकों को मात देने का मौका ढूँढ़ ही रहे थे। तब सत्तासंपादन हेतु इन दोनों में जो लड़ाई हुई, उसे ‘रशियन सिव्हिल वॉर’ कहा जाता है।

सत्ता में आते ही लेनिन ने सर्वप्रथम रशिया में बोल्शेविकों की (यानी खुद की) एकाधिकारशाही लाने की दृष्टि से कोशिशें शुरू कीं। लेकिन पहले की अस्थायी सरकार ने, उस महीने के अन्त तक रशिया में चुनाव लेने का जो अभिवचन दिया था, उसे लेनिन ने निभाया और नियोजित समयसारिणी के अनुसार चुनाव होने दिये। बोल्शेविकों ने हालाँकि तब तक झार के साम्राज्य का लगभग पूरे प्रदेश पर पना कब्ज़ा कर लिया था, वह था ख़ौफ़ के बलबूते पर; उसका मतलब यह नहीं था कि संपूर्ण रशियन जनता ही बोल्शेविक हो चुकी है और लेनिन यह भली-भाँति जानता था। फिर भी उसने चुनाव होने दिए।

रशिया के ९०० साल के इतिहास में पहली ही बार लोग चुनावों का अनुभव कर रहे थे। अपने ही देश के ज़ुल्मी सम्राट को क्रांति के द्वारा हटाकर, रशियन जनता ने झारशाही को मिटा दिया था। लेकिन उसके बदले में शासनपद्धति कैसे होनी चाहिए, इसके बारे में रशियन जनता अनभिज्ञ थी।

चुनावों के नतीजे? बोल्शेविकों को केवल २५ प्रतिशत वोट और अन्य समाजवादी पार्टियों को मिलाकर ६२ प्रतिशत वोट मिले थे। मॉस्को, पेट्रोग्राड जैसे शहरी भाग ने बोल्शेविकों के पक्ष में मतदान किया था; वहीं, ग्रामीण भाग हालाँकि बोल्शेविकों के कब्ज़े में रहे हों, मग़र फिर भी इन ग्रामीण भागों ने उस दूसरे समाजवादी गठबंधन को वोट दिये थे।

इन नतीजों का परिणाम? लेनिन ने हालाँकि ये आँकड़ें अधिकृत रूप में स्वीकृत किये; लेकिन फिर भी ‘प्रगत शहरी भाग ने समर्थन दिया हुआ बोल्शेविझम यही प्रतिनिधिक स्वरूप की समाजव्यवस्था है’ ऐसा घोषित करके, सीधे एक अध्यादेश (डिक्री) के द्वारा विधिमंडल बरखास्त कर दिया और ‘सोव्हिएत’ यही सर्वोच्च विधिमंडल तथा सर्वोच्च प्रशासक होने की घोषणा करके, खुद के हाथों में सारी सत्ता एकत्रित की।

उस दौर में, रशिया के पीछे पीछे सारी दुनिया में ही श्रमिक क्रांति होकर पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की धज्जियाँ उड़ेंगी, ऐसा लेनिन के साथ साथ लगभग सभी बोल्शेविकों को यक़ीन था। इस कारण, रशिया इस क्रांति में किसी मार्गदर्शक दीप की तरह सबसे आगे ही होना चाहिए और यदि ऐसा होना चाहिए, तो जल्द से जल्द पूरे रशिया में यह बोल्शेविक समाजव्यवस्था जारी करनी होगी, ऐसा लेनिन ने ठान लिया। चुनावों के नतीजें भला कुछ भी होने दो, एक बार यदि रशियन जनता के खानेपीने की समस्या हल हो गयी, तो फिर वे अन्यत्र कहीं झाँककर देखेंगे भी नहीं, यह लेनिन जानता था; और यह समस्या बोल्शेविक समाजव्यवस्था से ही हल हो सकती है, इसका उसे यक़ीन था। इस कारण उसने शीघ्रगति से रशियन समाजव्यवस्था का ‘बोल्शेव्हायझेशन’ करने का कार्यक्रम अपनी पद्धति से हाथ में लिया….

….अर्थात् बोल्शेविकविरोधकों को उसने नामशेष कर देना शुरू किया। सभी स्थानीय प्रशासनसंस्थाओं से और कारखानों के कर्मचारीमंडलों से उसने बोल्शेविकविरोधकों को निकाल बाहर कर दिया और उनके पीछे अपने आदमी लगा दिए। उसके लिए उसने गोपनीय पुलीसयंत्रणा का निर्माण कर, उन्हें बिना पूछताछ किये, महज़ शक़ की बिनाह पर किसी को भी गिरफ़्तार करने के और उन्हें जान से मार डालने के भी अधिकार प्रदान किये। उसके बाद उसने रशिया की पूरी ज़मीन पर की निजी मालिक़ियत को बरख़ास्त कर, वह ज़मीन सरकारी मालिक़ियत की बना दी। उसीके साथ, दस से अधिक कर्मचारी होनेवाले उद्योगव्यवसायों की भी निजी मालिक़ियत ख़ारिज़ कर, उन्हें सरकारी मालिक़ियत का बना दिया। और तो और, उसने ‘हड़ताल’ इस बात को ही ग़ैरक़ानूनी क़रार दिया।

उसीके साथ, जैसा उसने क्रान्ति से पहले घोषित किया था, उसके अनुसार विश्‍वयुद्ध से बाहर निकलने के लिए उसने गतिविधि शुरू कर दी, यानी जर्मनी एवं ऑस्ट्रिया-हंगेरी के साथ चर्चा शुरू की थी। लेकिन यह कदम उठाकर उसने कई दुश्मन निर्माण किये। झार के रशियन साम्राज्यस्थित बहुत सारा भाग यह मूल रशियन प्रदेश में नहीं था, बल्कि आक्रमण करके जीत लिया था। ब्रेस्त-लितोव्हस्की में हस्ताक्षर हुए इस समझौते के अनुसार युक्रेन प्रांत, बाल्टिक प्रदेश, ङ्गिनलंड और ऐसे कुछ प्रदेशों को रशिया को त्यागना पड़ा, जिन्हें जीतने के लिए झार के लाखों सैनिकों ने अपना खून बहाया था।

एक तरफ़ से दोस्तराष्ट्रों को, रशिया ने जर्मनी के साथ समझौते की चर्चा करना, यह अपना विश्‍वासघात प्रतीत हुआ; वहीं, दूसरी तरफ़ सेना के कई अधिकारियों को भी – उन्होंने इतनी कठिनाइयाँ झेलकर जीते हुए ये प्रदेश बोल्शेविकों द्वारा समझौते में इस तरह ख़ैरात किया जाना रास नहीं आया था। इस कारण अंतर्गत असन्तोष भी बढ़ने लगा, जिसके फलस्वरूप यह सिव्हिल वॉर हुआ।

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सन १९१८-२० के बीच हुए रशियन सिव्हिल वॉर में पूँजीपतियों द्वारा बनायी गयी ‘व्हाईट आर्मी’ के सैनिक

इन सेनाधिकारियों ने फिर ऐसे पूँजीवादी अमीर किसानों से सहयोग किया, जो उनकी ज़मीनें गरीब किसानों में बाँटना चाहनेवाले बोल्शेविकों के विरोध में गये थे और उनके सहयोग से इन सेनाधिकारियों ने अपनी ‘व्हाईट आर्मी’ स्थापित की। बोल्शेविकों को विरोध करनेवाले कई गुट उनसे आ मिले। साथ ही उन्हें अमरीका, ब्रिटन जैसे दोस्तराष्ट्रों से भी सहायता मिली। अब इन पूँजीवादियों की ‘व्हाईट आर्मी’ ने बोल्शेविकों की ‘रेड आर्मी’ के खिलाफ़ जगह जगह संघर्ष शुरू किया। इसमें यहाँ तक कि नौ-दस साल के बच्चों को भी सैनिक बनाया गया। यह महज़ दो सेनाओं में लड़ा गया युद्ध न होकर, इसमें नागरिक भी समान रूप में सहभागी हुए थे। (अतः ‘सिव्हिल वॉर’!) दोस्तराष्ट्रों की सहायता का हालाँकि व्हाईट आर्मी को कुछ ख़ास उपयोग नहीं हुआ, मग़र फिर भी दोस्तराष्ट्रों ने सन १९१८ में किये इस विरोध को – ‘पूँजीवादियों का श्रमिकों को होनेवाला विरोध’ ऐसा लेबल चिपकाकर सोव्हिएत ने अगले लगभग ७५ साल, अपनी अगली कम से कम तीन पीढ़ियों के दिल में पश्‍चिमी देशों के प्रति नफ़रत पैदा की।

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लेनिन का विश्‍वसनीय सहकर्मी लिऑन ट्रॉट्स्की

इस सिव्हिल वॉर को कुचलने के लिए लेनिन ने अपने विश्‍वसनीय सहकर्मी ‘लिऑन ट्रॉट्स्की’ को युद्धमंत्री बनाया। मूलतः ये सभी घटक ‘बोल्शेविकविरोध’ इस एक ही झंडे तले इकट्ठा हुए थे। बाकी उनके स्वार्थ अलग अलग ही थे। इस कारण इस सिव्हिल वॉर को कुचल देने में ट्रॉट्स्की हालाँकि क़ामयाब हो तो गया, लेकिन लेनिन ने इससे एक सबक सिखा – ‘किसी भी स्तर पर का विरोध उसे परवड़नेवाला नहीं है’; और फिर उसने सुसूत्रीकरण के नाम पर सोव्हिएत कम्युनिस्ट पार्टी के निर्णयाधिकार केंद्रीय समिती (‘पॉलिटब्यूरो’) के हाथ में और उसमें भी पॉलिटब्यूरो के अध्यक्ष के हाथ में, यानी ज़ाहिर है – लेनिन के हाथ में रहेंगे, यह सुनिश्‍चित किया।

कैसी मज़े की बात है ना! झार की तानाशाही का त़ख्ता पलटकर रशियन जनता उसके स्थान पर किसे ले आयी, तो एकाधिकारशाही होनेवाले लेनिन को!

सन १९१७ की रशियन राज्यक्रांति के बाद सन १९१८ में शुरू हुए यह ‘रशियन सिव्हिल वॉर’ ख़त्म हुआ सन १९२० में; और इस पूरे विरोध को कुचल देने के बाद ही लेनिन दुनिया के सबसे बड़े देश का – सोव्हिएत रशिया का सर्वार्थ से सर्वेसर्वा बन गया।

लेकिन कितने समय तक?

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