समय की करवट (भाग ५६) – वक़्त वक़्त की बात!

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इस का अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इस में फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उस के आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

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‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर
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इसमें फिलहाल हम पूर्व एवं पश्चिम ऐसी दोनों जर्मनियों के विभाजन का तथा एकत्रीकरण का अध्ययन कर रहे हैं। यह अध्ययन करते करते ही सोव्हिएत युनियन के विघटन का अध्ययन भी शुरू हो चुका है। क्योंकि सोव्हिएत युनियन के विघटन की प्रक्रिया में ही जर्मनी के एकीकरण के बीज छिपे हुए हैं, अतः उन दोनों का अलग से अध्ययन नहीं किया जा सकता।

१ मार्च १९५३ के दिन देर रात को एक मीटिंग ख़त्म कर और उसके बाद रात को सबके साथ एक फिल्म देखकर, सबको ‘शुभरात्रि’ कर सोने गया स्टॅलिन दूसरे दिन की शाम तक बाहर नहीं आया, इसलिए जब उसका दरवाज़ा खोला गया, तब वह बेहोशी की हालत में पाया गया। उसी अवस्था में चार दिन बाद यानी ५ मार्च १९५३ को स्टॅलिन की मृत्यु हुई।

वह नैसर्गिक मृत्यु थी या घातपात, इसपर बहुत बहस हुई। लेकिन ‘मस्तिष्क में रक्तस्राव (ब्रेन हॅमरेज) होने के कारण नैसर्गिक मृत्यु’ यह उसकी मृत्यु का कारण डॉक्टरों ने बताया।

तब तक सत्ता के सोपान में (‘हायरार्की’ में) ऊपर से लेकर नीचे तक स्टॅलिन के ही समर्थक भरे होने के कारण स्वाभाविक रूप से अब स्टॅलिन का उदात्तीकरण शुरू हुआ।

मृत्यु के पश्‍चात् स्टॅलिन का शव रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा जतन कर रखा गया (‘एम्बाल्मिंग’); उसी जगह, जहाँ उसके पूर्वसुरी होनेवाले लेनिन का शव जतन किया गया था। लेनिन के शव के पास ही स्टॅलिन के शव के लिए जगह बनायी गयी। लेनिन की मृत्यु के बाद स्टॅलिन ने चलाये लेनिन के उदात्तीकरण के मुख्य भाग के रूप में – आधुनिक इतिहास में पहली ही बार ‘श्रमिकों का राज्य’ लानेवाला महान नेता, जो एक आदर्श (‘आयकॉन’) के रूप में मृत्यु के बाद भी भविष्यकालीन पीढ़ियों को स्फूर्ति प्रदान करता रहेगा, यह कारण बताकर लेनिन के शव को जतन किया गया था। नाझी जर्मनी ने आक्रमण करने पर, शायद जर्मन फौज़ें मॉस्को पर कब्ज़ा करेंगी ऐसा डर लगने के कारण अक्तूबर १९४१ में लेनिन का शव कुछ समय तक सायबेरिया में स्थलांतरित किया गया था। विश्‍वयुद्ध के ख़त्म होने पर उस शव को पुनः सम्मानपूर्वक उसके मूल स्थान पर मॉस्को में लाकर रख दिया गया। प्रभावी सोव्हिएत प्रसार-प्रचारतंत्र के परिणामस्वरूप लेनिन के शव के दर्शन करने वहाँ हररोज़ अक्षरशः सैंकड़ों लोगों की कतारें लगी रहती थीं। सन १९२४ से १९७४ इस दौरान तक़रीबन एक करोड़ से अधिक लोगों ने इस जतनस्थल की भेंट की थी।

अब तो स्टॅलिन भी समय के परदे के उस पास चला गया था….उसने युरोप में निर्माण किये अदृश्य ‘आयर्न कर्टन’ (फ़ौलादी परदे) की आड़ से वह जिस तरह कर्टन के उस पार के व्यक्तिओं पर तथा घटनाओं पर फ़ौलादी नियंत्रण रखता था, वैसा कुछ अब ‘इस’ परदे की आड़ से संभव होनेवाला नहीं था!

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स्टॅलिन के साथ मन्त्रणा करते हुए ख्रुश्‍चेव्ह

स्टॅलिन ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में किसी को भी नियुक्त नहीं किया होने के कारण सोव्हिएत की केंद्रीय समिति एकमत से प्रशासन चलायें ऐसा तय हुआ। लेकिन सुप्त सत्ताप्रतिस्पर्धा शुरू थी ही। इस सत्ताप्रतिस्पर्धा में आख़िरकार ५० वे दशक के मध्य तक स्टॅलिन के ही ट्रेनिंग में तैयार हुआ इसका विश्‍वसनीय सहकर्मी ‘निकिता ख्रुश्‍चेव्ह’ जीत गया और पाटी के नये संविधान के अनुसार सोव्हिएत कम्युनिस्ट पार्टी का जनरल सेक्रेटरी बन गया और आगे चलकर राष्ट्राध्यक्ष भी बन गया।

सन १९५५ तक ख्रुश्‍चेव्ह ने निर्णायक रूप में सोव्हिएत रशिया की सत्ता संपादन की थी।

लेकिन उसके बाद विपरित ही घटित हुआ….!

किसी ज़माने में स्टॅलिन के विश्‍वसनीय सहकर्मी होनेवाले इस ख्रुश्‍चेव्ह ने स्टॅलिन का तथा स्टॅलिनशाही का निषेध किया! सन १९५६ में आयोजित सोव्हिएत कम्युनिस्ट पार्टी के अधिवेशन में ख्रुश्‍चेव्ह ने सर्वप्रथम इस दृष्टि से सूतोवाच किया – ‘स्टॅलिन ने उसकी संवेदनहीनता तथा उसका क्रौर्य दर्शानेवाले और सत्ता का ग़लत इस्तेमाल करनेवाले कई कारनामें किये। दमनतन्त्र और विरोधकों को ख़त्म करना यह मार्ग उसने चुना था। उसमें केवल उसके वास्तविक शत्रु ही नहीं, बल्कि कई बेगुनाहों को भी अपनी जानें गँवानी पड़ीं।’

सोव्हिएत कम्युनिस्ट पार्टी के अधिवेशन में ‘ऐसी’ भाषा प्रतिनिधियों के लिए अपरिचित ही थी। सभी अवाक् होकर सुन रहे थे। ख्रुश्‍चेव्ह का यह भाषण ‘सीक्रेट स्पीच’ के नाम से जाना जाने लगा।

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‘डि-स्टॅलिनायझेशन’ के प्रणेता निकिता ख्रुश्‍चेव्ह

आगे चलकर उसने सेन्सॉरशिप पर जारी निर्बन्ध शिथिल करने के संकेत दिये। सोव्हिएत कम्युनिस्ट पार्टी के अन्तर्गत होनेवाला कड़े अनुशासन का रवैया उसने थोड़ा नर्म करने की शुरुआत की। ‘ईस्टर्न ब्लॉक’ (पूर्व युरोप स्थित कम्युनिस्ट शासनप्रणाली का स्वीकार किये हुए सोव्हिएतपरस्त राष्ट्र) को क़ायम रखते हुए भी, पश्‍चिमी देशों के साथ संबंध सुधारने की शुरुआत करने के संकेत दिए।

इसी कार्यक्रम को ‘डि-स्टॅलिनायझेशन’ कार्यक्रम कहा गया।

इसे कहते हैं ‘वक़्त वक़्त की बात’! जहाँ अजिंक्य स्टॅलिन अनभिषिक्त सम्राट ही माना जाता था और अक्षरशः एकहत्था सत्ता भोग रहा था, उसकी मृत्यु के कुछ ही दिनों में उसकी स्मृति तक मिटाने का उपक्रम उसका विश्‍वसनीय सहकर्मी माने गये और पहले के स्टॅलिन के दमनतन्त्र के सभी उपक्रमों में सहभागी होनेवाले ख्रुश्‍चेव्ह से ही शुरू किया गया।

अब ऐसा सवाल उठ सकता है कि खुश्‍चेव्ह को यदि स्टॅलिनशाही पसंद नहीं थी और सत्ता सँभालते ही उसने यदि स्टॅलिनशाही का निषेध किया, तो फिर यह विरोध उसने स्टॅलिन के जीवित होते समय क्यों नहीं दर्शाया?

इस बारे में एक मज़ेदार क़िस्सा बताया जाता है –

ख्रुश्‍चेव्ह से यही सवाल एक बार एक संवाददाता ने पत्रकार परिषद में पूछा। उसपर ख्रुश्‍चेव्ह ने एकदम खौलकर ‘किसने पूछा यह सवाल?’ ऐसा प्रश्‍न संतप्त स्वर में पूछा। उसके उस क्रोधित अवतार को देखकर, ज़ाहिर है, प्रश्‍न पूछनेवाले की हाथ उठाने की हिम्मत ही नहीं हुई। सभागृह में एकदम सन्नाटा फैल गया। थोड़ी देर कोई भी कुछ भी बोल नहीं रहा है, यह देखकर ख्रुश्‍चेव्ह हँस पड़ा और उसने कहा – ‘हमारी भी स्टॅलिन के सामने ऐसी ही बोलती बन्द हो चुकी होती थी!’

यह घटना तानाशाह और उनके आसपास के उनके ‘विश्‍वसनीय’ सहकर्मी, इनके परस्परसंबंधों को अच्छाख़ासा उजागर करती है।

तो ऐसे इस, स्टॅलिन का दमनतन्त्र दिल से मान्य न होनेवाले, लेकिन उसके ख़ौफ के कारण मजबूरन उस दमनतन्त्र के रवैये का पुरस्कार करना पड़ रहे ख्रुश्‍चेव्ह ने, दमनतन्त्र का रवैया मृदु करने के संकेत दिये और स्टॅलिनशाही के सारे लक्षण मिटा देने की नीति शुरू की। उद्योगों का आधुनिकीकरण, अंतरिक्ष विज्ञान-तंत्रज्ञान में सोव्हिएत रशिया की गगनभेदी उड़ान, इन सारी बातों के परिणास्वरूप रशियन जनता का सुधरा हुआ रहनसहन, इन सभी की शुरुआत ख्रुश्‍चेव्ह के ही दौर में हुई। इतना ही नहीं, बल्कि उसने सोव्हिएत सेना में कटौति की, लेकिन उसका कारण यह था कि वह अब पारंपरिक सेना पर निर्भर रहने के बजाय ‘मिसाईल प्रोग्रॅम’ का विस्तार करना चाहता था।

इन सबके सकारात्मक संकेत पश्‍चिमी देशों तक पहुँच रहे थे। दरअसल उसके लिए ही यह सबकुछ किया जा रहा था….!

लेकिन क्या इससे तो कोल्ड वॉर नियन्त्रण में आया?

बिलकुल नहीं। क्योंकि चाहे जो भी हो, पश्‍चिमी देशों से दोस्ती यह सोव्हिएत रशिया का केवल मुखौटा था….और पूँजीवाद को ज़मीन में गाड़कर पूरी दुनिया में कम्युनिस्ट शासनप्रणाली लाने की आकांक्षा यह असली चेहरा!!

इसी विभाजन में से लड़े गये – कई ‘प्रॉक्सी वॉर्स’!

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