समय की करवट (भाग ४४) – अक्तूबर क्रान्ति

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इस का अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इस में फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उस के आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

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‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर
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इसमें फिलहाल हम पूर्व एवं पश्चिम ऐसी दोनों जर्मनियों के विभाजन का तथा एकत्रीकरण का अध्ययन कर रहे हैं। यह अध्ययन करते करते ही सोव्हिएत युनियन के विघटन का अध्ययन भी शुरू हो चुका है। क्योंकि सोव्हिएत युनियन के विघटन की प्रक्रिया में ही जर्मनी के एकीकरण के बीज छिपे हुए हैं, अतः उन दोनों का अलग से अध्ययन नहीं किया जा सकता।

सन १९१७ की फरवरी में रशिया में हुई क्रान्ति को ‘फ़रवरी क्रान्ति’ इस नाम से संबोधित किया जाता है। यह कोई एक रात में घटित हुई घटना न होकर, वह रशिया में उससे पहले की पूरी सदी में घटित घटनाक्रमों का, असंतोष का, बदलते हालातों का परिपाक था। झारशाही के ज़मीनदारों द्वारा उनकी ज़मीनों पर मेहनत मज़दूरी करनेवाले खेतमज़दूरों से पीढ़ी दर पीढ़ी किया जानेवाला अमानुष सुलूक; ढ़हते औद्योगिक उत्पादन के कारण कर्मचारियों के साथ मालिकों से किया जानेवाला सौतेलेपन का बर्ताव; युरोप में हुई राज्यक्रान्तियों के कारण वहाँ पर बह रहीं जनतन्त्र की नयी हवाएँ झारशाही होनेवाले रशिया में पहुँच चुकीं होने के कारण वहाँ के शोषितवर्ग में हो रही जागृती; सन १९०५ के रशिया-जापान युद्ध में रशिया को छोटे से जापान के हाथों झेलनी पड़ी शर्मनाक हार और इस युद्ध के विरोध में प्रदर्शन करनेवालों पर झार की सेना ने की हुई अँधाधुंद गोलीबारी इन जैसी बातों के कारण झारशाही के प्रति लोगों के दिलों में उत्पन्न हुई तीव्र नफ़रत की भावना ऐसे कई घटक उसके लिए ज़िम्मेदार थे। उसीके साथ मुख्य तात्कालिक कारण यानी झार ने बिना किसी वजह के पहले विश्‍वयुद्ध में लिया हुआ सहभाग और उससे रशियन जनता की हुई दयनीय हालत ऐसी कई बातों से हालात अधिक से अधिक बिगड़ते गये और सन १९१७ की पहली फ़रवरी क्रान्ति हुई।

इस पहली क्रान्ति के बाद झार को सत्ता त्यागनी पड़ी और अस्थायी सरकार की स्थापना हुई। यह जनता की विजय ही थी, लेकिन उसकी खुशी ज़्यादा देर तक नहीं टिक पायी। क्योंकि रशिया में कई सदियों से होनेवाली राजेशाही से ऊब चुके लोगों के सामने ‘झारशाही मिटाओ’ यही एककलमी कार्यक्रम था; लेकिन उसके बाद आनेवाले जनतन्त्र के लिए तत्कालीन रशियन नेतृत्व परिपक्व नहीं था। राजेशाही ख़त्म होने के पश्‍चात् उसके बाद की राज्यप्रणाली कैसे होनी चाहिए, इस बारे में अलग अलग नेताओं के मन में अलग अलग संकल्पनाएँ थीं और अपने अपने प्रभावक्षेत्रों का और दबावक्षेत्रों का इस्तेमाल कर ये नेता अपनी अपनी संकल्पनाओं को आगे घसीट रहे थे। किसी भी बात पर एकमत न होने के कारण अस्थायी सरकार किसी भी कार्यक्रम को प्रभावी रूप में चला नहीं सक रही थी और इस कारण कई बातें ‘पिछले पन्ने से अगले पन्ने पर’ ज्यों कि त्यों जारी रहीं।

अस्थायी सरकार भी पिछले शासन की ही नीतियाँ आगे चला रही हैं और अपने गिरे हुए जीवनमान में अंशमात्र भी बदलाव नहीं हो रहा है, यह देखने के बाद पुनः रशिया में असंतोष फैलने लगा।

इस असन्तोष को मार्ग दिखाने का महत्त्वपूर्ण काम किया रशियन नेता लेनिन ने। ‘विश्‍वयुद्ध में रशिया ने सहभागी नहीं होना चाहिए’ इस भूमिका के पुरस्कर्ता होनेवाले लेनिन पर झारशाही की वक्रदृष्टि थी। सरकारी नीतियों का ज़ाहिर रूप में विरोध कर रहा होने के कारण झार का प्रशासन हाथ धोकर उसके पीछे पड़ गया था। इस कारण जान को खतरा होने के कारण उसने पहले ही देश छोड़कर स्वित्झर्लंड में आश्रय लिया था। झारशाही का हुआ अन्त, यह अपने देश में लौटने का स्वर्णिम मौका उसे दिखायी दिया और अस्थायी सरकार के स्थापन होने के बाद अप्रैल १९१७ में वह रशिया लौट आया।

आते ही उसने बोल्शेविकों के मुखपत्र ‘प्रावदा’ के ज़रिये अस्थायी सरकार की नीतियों की और सोव्हिएत में होनेवाले मध्यममार्गी लोगों की आलोचना करते हुए, अपनीं कट्टर बायीं नीतियों का पुरस्कार करना शुरू किया। प्रधानमंत्री केरेन्स्की ने सरकारी प्रचारयंत्रणा का इस्तेमाल करके लेनिन की आलोचना को प्रत्युत्तर देना शुरू किया। उसने लेनिन पर, उसका जर्मनी के साथ संगनमत होने का आरोप किया।

दरअसल रशिया युद्ध से बाहर निकलें, इस भूमिका का लेनिन ज़ाहिर रूप में पुरस्कार कर रहा होने के कारण जर्मनी को उसके बारे में ‘सॉफ्ट कॉर्नर’ था ही और इसी कारण उन्होंने रशिया लौटने में लेनिन की मदद की थी। लेकिन आगे चलकर हालाँकि लेनिन पर जर्मनी का एजंट होने का आरोप होता रहा, मग़र फिर भी सत्ता में आने के बाद उसने यही कोशिशें कीं कि जर्मनी में कम्युनिस्ट सरकार कैसे लायी जाये।

ख़ैर! इस सरकारी प्रचारतंत्र की सहायता से शुरू शुरू में लेनिन एवं बोल्शेविक इन्हें बदनाम करने में केरेन्स्की को हालाँकि सफलता ज़रूर मिली, लेकिन धीरे धीरे लेनिन की – ‘सबके लिए शान्ति, ख़ेतज़मीन, रोटी’ यह घोषणा, युद्ध तथा ग़रीबी से ऊब चुके रशियन लोगों पर बढ़ता प्रभाव डालने लगी। इतना कि सेना एवं पुलीसदल के सिपाहियों पर भी उसका असर होने लगा। विभिन्न स्थानों पर प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई करने से सैनिक इन्कार करने लगे और सत्ता को सोव्हिएत के पास हस्तांतरित किया जाये, इस माँग के लिए वे केरेन्स्की पर दबाव डालने लगे।

इसके परिणामस्वरूप, ‘न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी’ इस विचार से, लेनिन को ही गिरफ़्तार करने का अध्यादेश केरेन्स्की ने जुलाई में जारी किया। इस कारण लेनिन ने पुनः भूमिगत होकर फिनलंड में पनाह ली। वह गुप्त रूप में रशिया में लौटा, वह अक्तूबर में। अकार्यक्षम एवं प्रभावहीन सरकार और लोगों में चरमसीमा तक पहुँचा असंतोष….बग़ावत के लिए यही अच्छा समय था!
१० अक्तूबर को उसकी, बोल्शेविक गुट के बारह नेताओं के साथ वह बहुचर्चित मीटिंग हुई, जिसमें बग़ावत करने का फ़ैसला किया गया। ‘वह’ दिन तय किया गया था – २४ अक्तूबर।

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रशियन राज्यक्रान्ति के दौरान बोल्शेविकों के साथ एकनिष्ठ होनेवाले सैनिक अपनी अपनी जगह पर जाते हुए

नियोजित दिन, तय कियेनुसार सेना के, बोल्शेविकों को अनुकूल रहनेवाले सैनिकों ने सेंट पीटर्सबर्ग इस राजधानी के शहर में रेल्वे स्टेशन्स, पोस्ट ऑफिसेस, बँक ऐसे सभी ‘अहम’ स्थान अपने कब्ज़े में कर लिये थे। इस साज़िश की भनक लगते ही, अस्थायी सरकार ने नियुक्त किये हुए गार्ड्स या तो भाग गये या फिर विद्रोहियों के सामने उन्होंने घुटने टेक दिये थे। केरेन्स्की का मंत्रिमंडल ‘विंटर पॅलेस’ (ठण्ड के मौसम में होनेवाले राजमहल) में उनके साथ एकनिष्ठ होनेवाली सेना की छोटीसी टुकड़ी के संरक्षण में खुद को बन्द करके बैठा था।

२७ तारीख़ की सुबह तक सेंट पीटर्सबर्ग का अधिकांश भाग बोल्शेविकों के नियंत्रण में आया था और बोल्शेविकों से एकनिष्ठ होनेवाली सेना – ‘लालसेना’ – ‘विंटर पॅलेस’ की दिशा में आगे बढ़ रही थी। यह जानते ही केरेन्स्की दूसरे दूर के रास्ते से भाग गया। आगे चलकर उसने रशिया के बाहर ही पलायन किया और वह कभी भी रशिया में नहीं लौटा।

इस प्रकार दुनिया की सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण राज्यक्रान्तियों में से एक होनेवाली रशियन (‘अक्तूबर’) राज्यक्रान्ति बंदूक की एक भी गोली न बरसाते हुए, खून का एक भी कतरा न बहाते हुए (‘ब्लडलेस कूप’) सफल हुई थी। दुनिया की पहली श्रमिकों की सरकार सत्ता में आने का मार्ग खुला हो गया था।

….लेकिन क्या यहीं पर सबकुछ ‘आलबेल’ हुआ था?

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