समय की करवट (भाग ३९)- ‘बर्लिन वॉल’ : आशा की किरन

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इस का अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इस में फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उस के आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

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‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’
– हेन्री किसिंजर
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इस में फिलहाल हम पूर्व एवं पश्चिम ऐसी दोनों जर्मनियों के विभाजन का तथा एकत्रीकरण का अध्ययन कर रहे हैं।

आशा की किरन
बर्लिन वॉल की आकाश से खींची फोटो

पूर्व जर्मनी के लोगों की दुनिया को बंदीशाला बनानेवाली बर्लिन वॉल वहाँ के लोगों को धीरे धीरे अभेद्य ही प्रतीत होने लगी थी और अपना आक्रोश किसी को सुनायी दे रहा है या नहीं, इस विचार से वे निराशा की खाई में डूबते चले जा रहे थे। लेकिन १९८० के दशक की शुरुआत हुई और जल्द ही उनके लिए आशा की किरन दिखायी देने लगी।

अपने कम्युनिझम की फ़ौलादी पकड़ से युरोप के पोलंड, हंगेरी, पूर्व जर्मनी, झेकोस्लोव्हाकिया, बल्गेरिया, रोमानिया इन जैसे कई राष्ट्रों को अपना अंकित बनानेवाले स्वयं सोव्हिएत रशिया में ही अंतर्गत बदलाव होने के आसार दिखायी देने लगे। इन बदलावों का दृश्य और स्पष्ट स्वरूप; जब प्रागतिक विचारधारा के नेता मिखाईल गॉर्बोचेव्ह ने प्रथम सन १९८५ में सोव्हिएत रशिया की सबसे ‘पॉवरफुल’ (और एकमात्र) पार्टी – कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी के रूप में और उस के बाद सन १९८८ से सोव्हिएत रशिया के आख़िरी राष्ट्रप्रमुख के रूप में बागड़ोर सँभाली, उसके बाद दिखायी दिया।

लेकिन उस से पहले के कुछ साल सोव्हिएत कम्युनिस्ट पार्टी में सबकुछ ‘आलबेल’ नहीं था – चाळीस साल यह एक बड़ा कालखंड था। कार्यकर्ताओं की और पदाधिकारियों की एक संपूर्ण पीढ़ी रिटायर हुई होकर, नयी पीढ़ी ने बागड़ोर सँभाली थी। इन में से कुछ लोगों ने नौकरीधंधे के सिलसिले में पश्‍चिमी देशों में कुछ समय वास्तव्य किया होने के कारण वहाँ की ‘मुक्तता’ चखी थी। इस कारण ऐसे सभी लोगों का सोव्हिएत कम्युनिस्ट पार्टी में प्रवेश शुरू होने के कुछ समय बाद समविचारी लोगों के गुट बनते गये। विज्ञान, कृषि आदि कई क्षेत्रों में सोव्हिएत रशिया ने गत ६०-७० सालों में हालाँकि नेत्रदीपक प्रगती की थी, मग़र फिर भी वहाँ के नागरिक सुखी नहीं थे। उस से पहले की पीढ़ी ने स्वयं खून बहाकर, क्रांति करके स्थापित किये ‘कामगारों के राज्य’ की संकल्पना नागरिकों की नयी पीढ़ी को ‘ज़्यादतीपूर्ण’ तथा ‘आऊटडेटेड’ प्रतीत होने लगी थी और लोगों का यह मन्तव्य वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी की कार्यप्रणाली पर भी असर करने लगा। वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी का एकसन्ध रूप (‘मोनोलिथिक नेचर’) नष्ट होकर, वहाँ पर भी गुटबाज़ी फैलने लगी, विरोध की आवाज़ें धीरे धीरे बढ़ती गयीं।

इस के परिणामस्वरूप, दूसरे विश्‍वयुद्ध पश्‍चात् के समय में, विश्‍वयुद्ध से भी भयंकर ऐसे, ४० साल चल रहे कोल्ड वॉर के एक प्रतिद्वंद्वी सोव्हिएत रशिया की अपने अंकित राष्ट्रों पर होनेवाली पकड़ ढ़ीली पड़ने लगी। वहाँ पर सुधारवादियों के आंदोलनों की शुरुआत होने लगी।

आशा की किरन
पोलंड के मज़दूर नेता लेक वॉलेसा

इस की सबसे पहले शुरुआत हुई पोलंड में। वहाँ पर पहले कम्युनिस्टविरोधी संगठन ‘सॉलिडॅरिटी’ ने बग़ावत का निशान फहराया और आगे चलकर वह एक सामाजिक आन्दोलन बन गया। १९८० के दशक की शुरुआत में फ़ौलादी मुठ्ठी से सत्ता हाँकनेवाली पोलंड की सोव्हिएतपरस्त सरकार की ज़्यादतीपूर्ण नीतियों के विरोध में वहाँ के मज़दूरों द्वारा पहली राष्ट्रव्यापी हड़ताल का ऐलान किया गया। लेक वॉलेसा इस मज़दूर नेता ने इस हड़ताल का आयोजन किया था और उस के बाद एक के पीछे एक ऐसी हड़तालों की शृंखला ही शुरू हुई और पोलंड सरकार की नाक में दम आ गया। यह ‘सॉलिडॅरिटी’ आन्दोलन इतना मशहूर हुआ कि उसे समुदाय से समर्थन मिला और पोलंड की सरकार पर दबाव बढ़कर ‘सॉलिडॅरिटी’ को सन १९८० में अधिकृत रूप में मान्यता मिली। उस से ग़ुस्सा होकर सोव्हिएत राज्यकर्ताओं ने वहाँ की सरकार को इस आन्दोलन को कुचल डालने के आदेश दिये। उसके अनुसार हज़ारों मज़दूरों की, मज़दूर नेताओं की गिरफ़्तारी की गयी। इस से यह आन्दोलन ठण्ड़ा पड़ जायेगा, ऐसी वहाँ के राज्यकर्ताओं की धारणा थी। लेकिन हुआ उल्टा ही!

आशा की किरन

सोव्हिएत रशिया से हमें समर्थन मिलेगा, ऐसे भ्रम में रहकर वहाँ की सरकार ने इस सॉलिडॅरिटी आन्दोलन को कुचलने के प्रयास जारी ही रखे। इस कारण हालाँकि शुरुआती दौर में यह आन्दोलन कुछ रुक-सा गया था, मग़र अब सोव्हिएत रशिया में ही धीरे धीरे परिवर्तन की हवाएँ बहने लगी थीं, जिसके कारण इन सब बातों के लिए पोलंड की सरकार को मिलनेवाला उनका समर्थन बन्द पड़ गया।

यही बाद थोड़ेबहुत फ़र्क़ से हंगेरी, झेकोस्लोव्हाकिया, रुमानिया आदि सोव्हिएत-नियंत्रित देशों में घटित हुई। वहाँ के नागरिकों ने भी पोलंड के नक्शे-कदम पर चलते हुए अपने अपने देश में जनतंत्र लाने हेतु, शुरू शुरू में प्रदर्शनों के रूप में और बाद में अधिक व्यापक रूप में आन्दोलन शुरू किया।

अब आशा की किरन अधिक ही पल्लवित होने लगी थी।

क्योंकि इस से पहले बर्लिन वॉल को लाँघकर पश्चिम बर्लिन में प्रवेश करने के लोगों ने जो ‘उपाय’ अपनाये थे – यानी रस्सी फेंककर वॉल को लाँघना, सुरंगें खोदना, बहुत ही तेज़ रफ़्तार में गाड़ी लाकर धड़ाम से दीवार पर टकराकर छेद करना, गॅस-बलून्स का इस्तेमाल कर के दीवार को लाँघना – उनके अलावा शुरुआती दौर में पूर्व जर्मनी के लोगों ने, उन्हें अभी भी जिन में आसान प्रवेश था ऐसे ‘ईस्टर्न ब्लॉक’ के देशों में जाकर, वहाँ से अन्यत्र भागने के भी प्रयास किये थे। शुरू शुरू में कुछ केसेस में वह सफल भी हुए, लेकिन उतने में सोव्हिएत सरकार की नीन्द खुल गयी और उन्होंने ऐसे, इन देशों का इस्तेमाल करके पश्चिमी देशों में पलायन करनेवाले लोगों पर कड़ी नज़र रखने के आदेश इन देशों की सरकारों को दिये थे। इस कारण आगे चलकर ये प्रयास भी नाक़ाम होने लगे।

लेकिन अब इन देशों में बहनेवालीं सुधारवादी हवाओं के कारण आशाएँ पल्लवित होकर पुनः इस दिशा में प्रयास करने की शुरुआत पूर्व जर्मन नागरिकों ने की।

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