समय की करवट (भाग ३८)- ‘बर्लिन वॉल’ : दुनिया एक कारागृह….

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इस में फिलहाल हम, १९९० के दशक के, पूर्व एवं पश्चिम जर्मनियों के एकत्रीकरण के बाद, बुज़ुर्ग अमरिकी राजनयिक हेन्री किसिंजर ने जो यह निम्नलिखित वक्तव्य किया था, उसके आधार पर दुनिया की गतिविधियों का अध्ययन कर रहे हैं।

—————————————————————————————————————————————————

‘यह दोनों जर्मनियों का पुनः एक हो जाना, यह युरोपीय महासंघ के माध्यम से युरोप एक होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। सोव्हिएत युनियन के टुकड़े होना यह जर्मनी के एकत्रीकरण से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है; वहीं, भारत तथा चीन का, महासत्ता बनने की दिशा में मार्गक्रमण यह सोव्हिएत युनियन के टुकड़ें होने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।’

हेन्री किसिंजर

————————————————————————————————————————————————–

इस में फिलहाल हम पूर्व एवं पश्चिम ऐसी दोनों जर्मनियों के विभाजन का तथा एकत्रीकरण का अध्ययन कर रहे हैं।

पूर्व बर्लिन के लोगों ने, ‘बर्लिन वॉल’ यह अपनी व्यक्तिस्वतंत्रता पर आखिरी प्रहार है ऐसा मानते हुए; अपने हिसाब से उसका प्रतिकार करने के, अर्थात् प्रदर्शन आदि के साथ ही उस वॉल को लाँघकर पश्चिम बर्लिन में जाने के प्रयासों की शुरुआत की थी। इस वॉल के २८ सालों के अस्तित्व में तक़रीबन पाँच हज़ार लोग सफल हो भी गये; लेकिन इस वॉल को लाँधने की कोशिश करते हुए लगभग १००-२०० लोगों को अपनी जानें गँवानी पड़ीं थीं। सोव्हिएतपरस्त पूर्व जर्मन सरकार ने वहाँ इतना ख़ौफ़ पैदा किया था कि पश्चिम बर्लिन के ज़रिये पूर्व बर्लिन में प्रवेश करनेवाले पश्‍चिमी नागरिकों को खतरे की चेतावनी जैसी सूचना देने हेतु (और सोव्हिएत के विरोध में किये जानेवाले प्रचार के एक भाग के तौर पर); अमरिकी सरकार ने वॉल के पश्चिम बर्लिन की साईड में एक जगह ‘यू आर लीव्हींग अमेरिकन सेक्टर’ ऐसा एक ख़ास बड़ा बोर्ड खड़ा किया था, जो आगे चलकर बहुत मशहूर हो गया।

 ‘बर्लिन वॉल’
अमरिकी सरकार द्वारा वॉल के पश्चिम बर्लिन की साईड में खड़ा किया ‘यू आर लीव्हींग अमेरिकन सेक्टर’ यह एक ख़ास बड़ा बोर्ड

जैसे जैसे इस वॉल के उस पार जाने की कोशिशें बढ़ने लगीं, वैसे वैसे सोव्हिएत रशिया ने भी पूर्व जर्मन सरकार के माध्यम से नागरिकों पर की अपनी फ़ौलादी पकड़ अधिक से अधिक मज़बूत करना शुरू किया। इस वॉल के निर्माण के बाद के २-३ साल तो पूर्व एवं पश्चिम बर्लिन के नागरिकों के लिए पूर्व बर्लिन में आने या जाने पर पूरी तरह पाबंदी लगायी गयी थी। स़िर्फ दोस्तराष्ट्रों की सेना के लिए यह नियम लागू नहीं था। अतः इस वॉल को पूरी तरह बन्द न करते हुए वहाँ निर्धारित दूरी पर ‘चेकपॉईंट्स’ रखने पड़े थे। ऐसे कुल मिलाकर नौ चेकपॉईंट्स थे। उसमें भी, अमरीका, इंग्लैंड़ एवं फ़्रान्स इन अन्य दोस्तराष्ट्रों ने ऐसी भूमिका अपनायी कि ‘बर्लिनविषयक हमारा समझौता यह सोव्हिएत रशिया के साथ हुआ है, पूर्व जर्मनी से नहीं। अत एव, हमारी सेना एवं नागरिकों के सन्दर्भ में किसी भी प्रकार की पाबंदियाँ हम नहीं मानेंगे। हम केवल सोव्हिएत रशिया के साथ ही व्यवहार करेंगे।’ इसलिए ऐसे सेनाप्रवेश के ख़ास केसेस के लिए इन चेकपॉईंट्स पर पूर्व जर्मन सुरक्षारक्षकों के साथ ही सोव्हिएत सुरक्षारक्षक भी तैनात किये गए थे।

अगले दो साल पूर्व तथा पश्चिम जर्मनी की सरकारों में चलीं चर्चाओं को अंशतः सफलता मिली और सन १९६३ के ख्रिसमस में पश्चिम जर्मनी के नागरिकों के लिए पूर्व बर्लिन में आना मुमक़िन हों, इसलिए प्रवेशबंदी ख्रिसमस की कालावधि के लिए शिथिल कर दी गयी। आगे चलकर सन १९६४, ६५ और ६७ के ख्रिसमस के दौरान भी इसी प्रकार का कदम उठाया गया। लेकिन यह प्रवेशबंदी में दी गयी शिथिलता केवल बाहर के लोगों को पूर्व जर्मनी में आने के लिए थी। पूर्व जर्मन के लोगों को अपना देश छोड़ने की अनुमति थी ही नहीं। यह परिस्थिति सर्वसाधारणतः आगे चलकर दोनों देशों का एकीकरण होने तक कायम रही। लेकिन सन १९६५ के बाद इस नीति में मामूली बदलाव किये गए और कुछ वर्गों को (‘कॅटेगरीज्’) मर्यादित कालावधि के लिए पश्चिम बर्लिन जाने की अनुमति दी जाने लगी – उदा. वरिष्ठ नागरिक, वैसे ही, पश्चिम भाग में नज़दीकी रिश्तेदार होनेवालों को केवल अतिमहत्त्वपूर्ण पारिवारिक वजह के लिए और तीसरा वर्ग था – जिन्हें व्यवसायिक कारणों के लिए बाहर जाना पड़ता था ऐसे डॉक्टर, इंजिनियर, कलाकार आदि। लेकिन उनका यह बाहर जाना बहुत ही मर्यादित समय के लिए होगा इसके पूरे एहतियात सरकार अपने हिसाब से बरतती ही थी। एक तो हर एक प्रवास के लिए स्वतंत्र रूप से आवेदन देना पड़ता था, जिसे बिना किसी कारण के नकारने का प्रावधान क़ानून में था। दूसरी बात – सीमा पर उनके वहाँ के खर्चे के लिए बहुत ही कम पश्चिम जर्मन मार्क्स उन्हें दिए जाते थे, ताकि ज़्यादा दिन वहाँ रहने के बारे में वे सोचें तक नहीं। लेकिन इसपर पश्चिम जर्मन सरकार ने तरक़ीब निकाली – पूर्व बर्लिन के जो नागरिक पश्चिम बर्लिन में कदम रखेंगे, उन्हें ‘वेलकम मनी’ के नाम पर थोड़ीबहुत सहायता वहाँ की सरकार की ओर से दी जाने लगी।

इस वॉल का मनोवैज्ञानिक प्रभाव इतना था कि मानो हमारी आत्मा ही हम खो चुके हैं ऐसा हमें लगता है, ऐसी स्वीकृति उस समय कई पूर्वी जर्मन नागरिक देते थे। ज़ाहिर है, परतंत्रता में होने के कारण, ऐसी स्वीकृति देने से अधिक वे कुछ कर भी नहीं पाते थे। यह वॉल दमनतंत्र का और उससे छुटकारा पाने की बेसब्री का प्रतीक बन चुकी थी।

पश्‍चिमी देशों में यात्रा करने की पाबंदी केवल पूर्वी जर्मन नागरिकों के लिए ही थी ऐसी बात नहीं है; बल्कि कुल मिलाकर सोव्हिएत प्रभाव में होनेवाले हर एक पूर्वी युरोपीय देशों में कम-अधिक प्रमाण में इस तरह की पाबंदी अस्तित्व में थी।

इस दौरान पश्चिम जर्मनी में भी कई बदलाव आते गये। एक के बाद एक दुर्बल सरकारें आकर जा रही थीं। दुर्बल सरकारों की वजह से, शुरुआती दौर में आर्थिक प्रगति ने पकड़ी रफ़्तार थोड़ी कम हुई दिखायी दे रही थी। लेकिन इसके बावजूद भी वह पूर्वी जर्मनी से कई गुना अधिक थी। अर्थात् सरकारें भले ही अस्थिर हों, मग़र जर्मनी की गर्दन पर सवार भूतकाल के भूतों को प्रयासपूर्वक दूर करने का कार्य इन सभी सरकारों नें अखंडित रूप में जारी रखा था। द्वितीय विश्‍वयुद्धकाल में हिटलर ने निगले हुए अन्य देशों के प्रदेश उस उस देश को वापस लौटाने की प्रक्रिया शुरू हुई थी; वहीं, जर्मनी के ‘सार’ जैसे खानों तथा अन्य संसाधनों से प्रचुर प्रदेश, जिन्हें युद्धपश्चात् के नियंत्रण के नाम पर फ़्रान्स निगलना चाहता था, उस प्रक्रिया का संयुक्त राष्ट्रसंघ की मदद से जमकर विरोध करने की प्रक्रिया भी शुरू थी।

पश्चिम जर्मनी में ये बदलाव आ रहे थे, लेकिन पूर्वी जर्मनी के नागरिकों का सोव्हिएतप्रणित सरकार की फ़ौलादी पकड़ में दम घुटता जा रहा था। इतना कि पश्चिम बर्लिन में से प्रसारित होनेवाले टीव्ही चॅनल्स जो पूर्वी जर्मनी के टीव्हियों पर आसानी से दिखायी दे सकते थे, उनके भी सिग्नल्स – उनपर दिखाये जानेवाले कार्यक्रमों को ‘पूँजीवादी पश्‍चिमी देशों के बुरे संस्कार करनेवाले’ क़रार देकर – पूर्वी जर्मन सरकार ने जॅम कर दिए थे। इस कारण देश के बाहर की दुनिया धीरे धीरे भूलते जा रहे और पूरा देश ही मानो एक बड़ा कारागृह बन चुके पूर्वी जर्मन नागरिकों पर ‘दुनिया एक कारागृह’ यह कहने की ही नौबत आयी थी।

कहाँ तक चलनेवाला था यह सब? पश्चिम जर्मनी के लोग मुक्त आज़ादी में साँस ले रहे होते समय, पूर्वी जर्मनी के लोग ऐसे और कितने दिनों तक फ़ौलादी पकड़ की परतंत्रता में घूटघूटकर मरनेवाले थे?

Leave a Reply

Your email address will not be published.