समय की करवट (भाग २) – ‘इंडिया’ या ‘भारत’?

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….तो समय करवट बदल रहा है!

खूब….बहुत खूब! इस सारे घटनाक्रम में डेढ़सौ वर्ष की गुलामी और पच्चास-साठ वर्ष की गरीबी सहन करनेवाला भारत, समय की करवट के नीचे से मुक्त होते हुए दिखायी दे रहा है।

यह हुई ‘मॅक्रो लेव्हल’। लेकिन ‘मायक्रो लेव्हल’ का क्या?

जैसे कहावत है – ‘दूर के ढोल सुहावने’ (‘दुरून डोंगर साजरे), कुछ वैसा ही इस मामले में भी है। बाहर से देखनेवाले को भारत विज्ञान-तंत्रज्ञान में विकास करते हुए यकीनन ही दिखायी दे रहा है (मॅक्रो लेव्हल), लेकिन क्या इस विकास का लाभ भारत के देहातों के आखिरी इन्सान तक (मायक्रो लेव्हल) पहुँच रहा है?

वैश्विकीकरण (‘ग्लोबलाईजेशन’) का ढिंढ़ोरा पीटनेवाले जो लोग अपने एअरकंडिशन्ड ऑफिसों में बैठकर ‘ग्लोबल व्हिलेज’ की चर्चाएँ करते हैं, उनमें से हर किसी को ऑफिस के बाहर रहनेवाली वीरान दाहकता का एहसास हुआ ही होगा, यह जरूरी नहीं है। फिर कई विश्लेषक इसे ‘भारत बनाम इंडिया’ ऐसा सलोना नाम दे डालते हैं। (विश्लेषकों का का काम ही आखिर – हर बात पर कुछ न कुछ स्पष्टीकरण देकर उस बात को किसी न किसी वर्गीकरण (कॅटॅगरी) में बिठाना, यही होता है ना! खैर।) चमकनेवाला शहरी भारत यानी ‘इंडिया’ और ग्रामीण भारत यानी ‘भारत’ इस प्रकार वर्गीकरण कर दिया और – ‘इन दोनों में रहनेवाली खाई बढ़ती ही जा रही है’ ऐसा वक्तव्य किया कि बस्स, हो गया।

फिर इसपर उपाय क्या है? तो सिंहावलोकन तथा आत्मपरीक्षण करना यही उपाय है। पहले ‘इंडिया’ के बारे में थोड़ा जान लेते हैं।

तक़रीबन 1990 के दशक में भारत ने नया रूप धारण करना शुरू किया। उस समय प्राकृतिक घटक भी हमें अनुकूल थे। बरसात का प्रमाण भारत में अच्छाख़ासा था। ‘कॉम्प्युटर’ इस चीज ने भारत में अपनी जड़ें अच्छीख़ासी फैला दी थीं। गणित और विज्ञान पर ज़ोर देनेवाली हमारी स्कूली शिक्षापद्धति को कोई चाहे कितने भी तानें मारें, मगर उसीकी बदौलत हमारे छात्र इस क्षेत्र में, दुनिया के किसी भी कोने में चमकने लगे थे। उनके हाथ में पैसा आने लगा था। वैश्विकीकरण के मार्ग पर भारत ने कदम रखा हुआ होने के कारण, तब तक मध्यमवर्गीयों को अप्राप्य प्रतीत होनेवाले आन्तर्राष्ट्रीय ब्रँड्स अब खुद चलकर हमारे दरवाजे तक आने लगे थे। ऐसे उच्च-मध्यमवर्गियों के या नव-अमीरों के घर में पैदा होनेवाले बच्चें, ख़ासकर जिनका जन्म 1980-90 के दशक में हुआ था, उन्हें खाने-पीने की कमी मालूम ही नहीं थी; या फिर कुछ साल पहले तक, ‘रेशनिंग’ नाम की कोई चीज अस्तित्व में थी, इस बात की खबर, ऍड्रेस-प्रूफ़ के तौर पर कदम कदम पर जिसकी जरूरत पड़ती है उस एक राशनकार्ड के अलावा, उन्हें थी ही नहीं।

अर्थात् आज यह पीढ़ी उम्र में तक़रीबन 30-35 साल की है, जिसका बचपन भी खाते-पीते सुखपूर्वक बिता और अब अपने ज्ञान के बलबूते पर वह अच्छाखासा पैसा कमा रही है। ‘जिन्दगी भर सेव्हिंग वगैरा करके रिटायर होने के बाद खुद की मालिकियत का घर बनाना’ यह संकल्पना इन्हें कुछ ख़ास मंजूर नहीं है, क्योंकि यह पीढ़ी ‘कल’ की अपेक्षा ‘आज’ में जीना चाहती है। और यही वह मानसिकता है, जिसके बलबूते पर बड़े बड़े विदेशी ब्रँड्स अपनी दूकानें भारत में खोलना चाहते हैं। क्योंकि इस पीढ़ी के लोगों को घर, गाड़ी, विदेशयात्रा, ऊँची वस्तुएँ यह सब ‘आज’ – उनकी युवा उम्र में ही चाहिए। इस कारण, ‘आज’ पैसों की बचत करके ‘कल’ बूढ़ापे में उसका लुफ़्त उठाने से अच्छा है कि ‘आज’ ही कर्ज लेकर इच्छित वस्तु ख़रीदना, यह सर्वसाधारणतः इस पीढ़ी का मानना है। पिछली पीढ़ी में ‘कर्ज लेना’ यह ‘आख़िरी विकल्प’ माना जाता था और वह विकल्प भी, जिन्दगी में शायद एक ही बार – किश्त (ई.एम.आय.) कितने की होगी वगैरा सारे कॅलक्युलेशन्स ठीक से करके, रिटायरमेंट को दस-पंद्रह साल बाक़ी रहते हुए यानी लगभग चालीस की उम्र में अपनाया जाता था।

अब ग्लोबलाइजेशन के कारण कुशल तंत्रज्ञों को रोज़गार के अधिक अवसर उपलब्ध हुए हैं, इस वास्तव को नकारा नहीं जा सकता।

लेकिन विदेश से यहाँ पर आयी हुईं इन कंपनियों का कल्चर अलग था, ‘आऊटपुट-रिलेटेड’ था। इसलिए विदेशी तंत्रज्ञों की अपेक्षा सस्ते में उपलब्ध होनेवाले और ‘डॉलर’ की अपेक्षा ‘रुपयों’ में अपनी तऩख्वाह की अन्यों के साथ तुलना करनेवाले भारतीय तंत्रज्ञों को उन्होंने आकर्षित करना शुरू किया। ये भारतीय तंत्रज्ञ हालाँकि विदेशी तंत्रज्ञों की अपेक्षा सस्ते में मिलते थे, लेकिन भारत में प्रचलित तनख्वाहों की तुलना में उन्हें ज्यादा तनख्वाह मिलती थी।

भारतीयों की ‘अमीर-गरीब’ की संकल्पना में – ‘महीना पच्चास हज़ार रुपये तनख्वाह’ यानी आम मध्यमवर्गीयों की भाषा में ‘खूब पैसा कमा रहा है’ इस तरह बतायी जाती है। लेकिन वही पच्चास हज़ार रुपये यदि डॉलर्स में रूपांतरित करने जाओ, तो आज की तुलना में हजार डॉलर्स जितने भी नहीं होते। उसी नौकरी पर यदि किसी विदेशी तंत्रज्ञ को रखने जाओ, तो उसे वहाँ की जीवनशैली के अनुसार तीन-चार हजार डॉलर्स तो देने ही पड़ेंगे। इसलिए भारतीय तंत्रज्ञ को नौकरी पर रखें, तो कंपनी भी खुश, वह भारतीय तंत्रज्ञ भी खुश।

लेकिन यह दौर भी धीरे धीरे गुज़र गया। अब भारतीय तंत्रज्ञों को भी अपनी ताकत का अँदाजा आने लगा है। गत काल में, एक नौकरी पकड़ ली, तो वह टिकेगी कैसे, इसी बात की फिक्र लोगों को रहती थी; और ‘नोकरी कैसे पायें’ इसके साथ ही ‘नौकरी टिकायेंगे कैसे’ इसपर भी लोगों ने किताबें लिखी हैं। लेकिन इस नयी पीढ़ी को यदि ऐसी कोई किताब पढ़ने को दे दें, तो वह तो हमें ‘पागल’ ही करार देगी। ‘यहाँ नौकरी टिकानी किसे है? एक नौकरी यदि चली जाती है, तो दूसरी हज़ार मिलेंगी’, इस आत्मविश्‍वास के साथ यह पीढ़ी जी रही है। दरअसल इस तरह के कुशल तंत्रज्ञों के मामले में, उन्हें नौकरी से निकाले जाने की संभावना कम होती है, उनके द्वारा नौकरी छोड़ी जाने के वाकया ही बार बार घटित होते हैं। खैर!

तो यह है हमारी नयी पीढ़ी। अपनी बुद्धिमत्ता के बल पर दुनिया में चमकती है, जल्द ही नौकरी पर लग जाती है, सटासट हर समय पिछली कंपनी से अधिक तऩख्वाह देनेवालीं नौकरियाँ बदलती रहती हैं। लेकिन बदलती हुई सामाजिक परिस्थिति में, आर्थिक मंदी के दौर में, गत पीढ़ियों की अपेक्षा हालाँकि कई गुना ज़्यादा पैसा कमा रही है, मगर फिर भी – ‘मैं सेटल हो गया हूँ’ ऐसा बोलने की हिम्मत नहीं करती। इसलिए गत पीढ़ियों की अपेक्षा गृहस्थाश्रम की शुरुआत भी देरी से कर देती है।

दरअसल इस पीढ़ी का कोई कुशल तंत्रज्ञ, ऊपरी तौर पर सुखकारी प्रतीत होनेवाली, भरपूर पैसा देनेवाली नौकरी जब बदलता है, तब किसी के भी मन में यह सवाल उठ सकता है कि यह सेटल होना चाहता भी है या नहीं। लेकिन पैसे के महत्त्व को पहचाननेवाली इस पीढ़ी को दिमाग को चॅलेंजिंग न रहनेवाली नौकरियाँ भी रास नहीं आतीं, फिर चाहे वे कितनी भी तनख्वाह क्यों न दे रही हों।

और भी ऐसी बातें हैं, जो इस ‘इंडिया’ को ‘डिफाईन’ करती हैं।

उनके बारे में जानते हैं अगले भाग में।

समय की करवट

भाग १

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