समय की करवट (भाग १५)– ‘मास मेंटॅलिटी’ : झुँड़ या टीम?

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

इस अध्ययन में, यह ‘मास मेंटॅलिटी’ का – समूह के मानसशास्त्र का अध्ययन करना ज़रूरी है, क्योंकि यही ‘मास मेंटॅलिटी’ समाज को ‘झुँड़’ बना सकती है और यही मास मेंटॅलिटी समाज का रूपांतरण एक बलशाली ‘टीम’ में कर सकती है। समय की बदली हुई इस करवट का अधिक से अधिक लाभ यदि भारत को उठाना हो, तो दुनिया के सामने भारतीय ‘एक संगठित समूह’ के रूप में खड़े रहना आवश्यक है और यहीं पर हम कई बार मार खाते हैं।

यह इतिहास सर्वज्ञात ही है कि जब जब हमने अपनी हालत एक झुँड़ की तरह बना ली थी, तब तब हमपर विदेशी आक्रमण होकर हम भारतीय ग़ुलामी में फँस गये – एक-दो नहीं, बल्कि कई सैंकड़ों साल और इन निरन्तर के आक्रमणों से हमारी एक प्रकार की ग़ुलामी मानसिकता तैयार हुई।

ऊपरी तौर पर देखें, तो ‘झुँड़’ और ‘टीम’ मैं वैसे कुछ फ़र्क़ नहीं दिखायी देता – दोनों भी ‘समूह’ ही दिखते हैं।

लेकिन ‘टीम’ के पास एक ‘लक्ष्य’ रहता है और उसे प्राप्त करने के लिए – टीम के अन्य सदस्यों को साथ ले जाने की, लक्ष्यपूर्ति के लिए किये जा रहे प्रयासों में अपनी पूरी क्षमता इस्तेमाल करने की, ज़रूरत पड़ी तो खुद तकलीफ़ सहन करने की भी हर सदस्य की तैयारी रहती है। यहाँ पर यह ज़रूरी नहीं है कि टीम के सभी सदस्य समान क्षमता के हों। लेकिन वास्तविक टीम के रूप में काम करनेवालों के मन में भी यह विचार नहीं आता कि इसकी क्षमता मुझसे कम है, क्योंकि एक ‘टीम’ के रूप में प्रयासों में समान तौर पर सहभागी होने के कारण, कम क्षमतावाले सदस्यों की ख़ामियाँ ढक जाती हैं; इतना ही नहीं, बल्कि ये ख़ामियाँ दुनिया के सामने न ही आयें, इसलिए अधिक क्षमता रहनेवाले टीममेंबर्स ‘आऊट ऑफ़ द वे’ जाकर कार्य करते हैं, क्योंकि उन्हें ‘टीम’ को जीताना होता है। आपात्कालीन स्थितियों में, ‘टीम’ के तौर पर कार्य करनेवालों का ‘परफ़ॉर्मन्स’ विशेष रूप में उभरकर आता है। जैसा कि गुणवत्ता से ठूसठूसकर भरे जागतिक दर्ज़े के खिलाड़ी रहनेवाली भारतीय क्रिकेट टीम के बारे में हमेशा बोला जाता था कि ‘हमारी टीम में ग्यारह के ग्यारह स्टार खिलाड़ी हैं, लेकिन इन ग्यारह खिलाड़ियों की ‘टीम’ खेलते हुए कभी भी दिखायी नहीं देती।’ आजकल हालत बहुत सुधरी है, ऐसी आशंका होती है कभी कभी!

‘टीमस्पिरिट’ को हमेशा ही अहमियत दी गयी है। जिस प्रकार सांघिक खेलों की बड़ी बड़ी प्रतियोगिताओं में टीम्स ही सहभागी होती हैं, कोई भी खिलाड़ी निजी तौर पर वहाँ सहभागी नहीं हो सकता; उसी प्रकार जीवन की मुश्किल परीक्षाओं का सामना भी व्यक्तिगत रूप में करने से अच्छा है कि उनका मुक़ाबला टीमस्पिरिट से ही करें, तब ही उनका सामना सुचारु रूप से किया जा सकता है।

अब कोई कहेगा कि ऑलिंपिक जैसी प्रतियोगिताओं में ‘रनिंग’ जैसे खेल में खिलाड़ी व्यक्तिगत रूप में भाग ले सकते ही हैं और वे मेडल्स भी व्यक्तिगत रूप में ही कमाते हैं! हाँ, लेकिन आख़िरकार वे वहाँ पर एक देश के प्रतिनिधि के तौर पर ही उतरे हुए होते हैं, एक देश की ऑलिंपिक टीम के सदस्य होते हैं, इस बात को नहीं भूलना चाहिए।

यही उदाहरण हमारे जीवन की परीक्षाओं के बारे में भी सच है। किसी घर के परिवारप्रमुख की मानो नौकरी छूट जाती है। यह उस परिवार पर आया बड़ा संकट ही होता है। लेकिन जब उस घर के सभी सदस्य, फिर कोई चाहे छोटा हो या बड़ा, वे अपनी अपनी पूरी क्षमता के साथ, टीमस्पिरिट से इस संकट का मुक़ाबला करते हैं, तब वह संकट देखते देखते दूर भाग जाता है। उदा. बड़े सदस्य घर की थमी हुई आय को फिर से शुरू करने के प्रयास तो करेंगे ही, लेकिन घर के छोटे बच्चें भी यदि हालात को जानकर – ‘कल तक पिताजी की नौकरी थी, तब हमें जितना दुलारा जाता था, उतना ही हमें अब भी दुलारा जाना चाहिए’ ऐसी ज़िद नहीं करते, जो मिल रहा है उसी में सन्तोष मानते हैं, तो यह भी उनका, ‘परिवार’ इस ‘टीम’ में से खेलना ही है और टीम्स को ही हमेशा शाश्‍वत सफलता मिलती है, यह हमें इतिहास ने कई बार दिखा दिया है; फिर चाहे वह श्रीरामजी के वानरसैनिक हों या फिर शिवाजीमहाराज के मावलें। उन्होंने जब अपने राजा श्रीराम के, अपने शिवबा के ‘ध्येय’ को ‘अपना’ मानकर, व़क्त आने पर अपनी जान पर खेलकर भी उस ध्येयप्राप्ति के लिए प्रयास किये, उस समय वे सफल हो ही गये; क्योंकि यहाँ पर इन सबने ‘ध्येयपूर्ति’ यही अपना ‘पर्सनल इन्टरेस्ट’ रखा था। इसी कारण एक ध्येयपूर्ति के लिए लड़नेवाले चन्द कुछ मावलें ताकतवर दुश्मन के साथ लड़ते हुए भी सफल हुए।

अब कोई पूछेगा कि स्कूल की परीक्षा के बारे में क्या कहोगे, वह तो जिसकी है उसीको देनी पड़ती है? यहाँ पर ‘टीम स्पिरिट’ का क्या फ़ायदा? नहीं, ऐसा नहीं है….यहाँ पर भी पारिवारिक टीम स्पिरिट ही सफलता देता है। ‘घर के जिस बच्चे की परीक्षा है, वह केवल उसी की है’ ऐसा न मानकर चलते हुए; उसे उस परीक्षा में अधिक से अधिक सफलता मिलें इसके लिए घर के बाक़ी सदस्यों द्वारा मदद की जाना यानी उनका ‘परिवार’ इस टीम में से खेलना ही है। फिर पिताजी शायद पढ़ाई के लिए आवश्यक अ‍ॅडिशनल रेफरन्सेस का प्रबन्ध करेंगे; माँ बच्चे को समय समय पर दूध, पौष्टिक खाना, नींद की टाइमिंग्ज, पढ़ाई का शेड्युल सँभालना आदि सबकुछ करेगी; बड़े भाई-बहन हैं तो वे उसकी डिफ़िकल्टीज् सॉल्व्ह करेंगे; छोटे भाई-बहन हैं तो वे उसे परेशान न करने से मदद कर सकते हैं। अहम बात यह है कि ‘इसकी परीक्षा है तो वह भीतर के कमरे में जाकर पढ़ाई करें, हम बाहर के कमरे में टीव्ही देखेंगे’ ऐसा परिवार‘टीम’ के सदस्य कभी भी नहीं कहेंगे। ऐसी ‘टीम्स’ को ही सफलता मिलती है।

लेकिन वहीं जब उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक हम अधिकांश भारतीयों की स्थिति ‘झुँड़’ जैसी ही बनी थी, ‘पर्सनल इन्टरेस्ट्स’ देश से बढ़कर प्रतीत होने लगे थे; तब अँग्रेजों ने, कई बार एक-दूसरे के विरोध में रहनेवाले हमारे ‘पर्सनल इन्टरेस्ट्स’ को खादपानी डालकर, ‘डिव्हाईड अँड रूल’ इस अपनी प्यारी (अ)नीति का बेमालूम इस्तेमाल करके हमारे देश पर कब्ज़ा कर ही लिया। क्योंकि उस समय की देश की जनता अधिकांश रूप में ‘झुँड’ है, ‘टीमस्पिरिट’ से इनका कोई लेनादेना नहीं है, इनमें से अधिकांश लोगों को ‘पर्सनल इन्टरेस्ट’ प्यारा है, यह अँग्रेज़ भली-भाँति जानते थे।

क्योंकि ‘टीम’ से विपरित आचरण ‘झुँड़’ का होता है।

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एक बाघ कई हिरनों के झुँड़ को दुम दबाकर भागने पर मजबूर कर देता है। परास्त मानसिकता के कारण ही, जानवरों को जन्मतः रहनेवाली ‘इन्स्टिंक्टिव्ह’ बुद्धि के कारण शेर की एक दहाड़ से हिरनों का झुँड़ भाग जाना ही चाहिए। क्योंकि वह ‘झुँड़’ है, ‘टीम’ नहीं।

‘झुँड़’ भी दिखने में ‘समूह’ ही दिखायी देता है – मग़र जब तक सब कुछ सुचारु रूप से शुरू है, तब तक ही। लेकिन एक बार जब किसी संकट की आहट सुनायी देती है, तब झुँड़प्रवृत्ति काम करने लगती है। लेकिन झुँड़ में रहकर संकट से दूर भागते समय भी, हर एक का उद्देश्य ‘अपनी खुद की जान बचाना’ यही होता है और अपनी जान बचाते हुए चाहे दूसरे की जान भी चली जाये, तो भी उन्हें कोई हर्ज़ नहीं होता है। इस कारण, भागते समय भी झुँड़ के हर सदस्य का यही ‘उद्देश्य’ रहता है कि धीरे धीरे उस झुँड़ के बीचोंबीच (मिनिमम रिस्क पोझिशन) किस तरह आ सकते हैं, जिससे कि खुद को कम से कम ख़तरा संभव होगा। झुँड़ की बॉर्डरवाली पोझिशन पर खड़ा रहने के लिए कोई भी तैयार नहीं होता है। यदि बाघ पीछे लगे हुए हिरनों के झुँड़ का दृश्य देखें, तो यह अधिक स्पष्ट हो जायेगा। एक बाघ सैंकड़ों हिरनों के झुँड़ को दुम दबाकर भागने पर मजबूर कर देता है।

कोई कहेगा, बराबर ही है। तीक्ष्ण नाख़ून रहनेवाले, शरीर में भयंकर ताकत एवं ख़ूँख़ार वृत्ति रहनेवाले बाघ के सामने, ऐसी किसी भी प्रकार की सुरक्षाव्यवस्था न रहनेवाला हिरन खड़ा रहकर भला अपनी जान क्यों गँवाये? यह ‘लॉजिक’ हालाँकि ऊपरी तौर पर सही लगता है, मग़र फिर भी यह सवाल पूछनेवाले इस बात पर ग़ौर नहीं करते कि झुँड़ के हिरनों की संख्या सैंकड़ों की तादाद में है और बाघ एक। यदि झुँड़ के सभी हिरनों ने एक होकर पूरी ताकत के साथ बाघ का प्रतिकार करने की कोशिश की, तो दूम दबाकर भागने की नौबत बाघ पर आयेगी….
….लेकिन नहीं, वैसा हरगिज़ नहीं होता है। परास्त मानसिकता के कारण ही, जानवरों को जन्मतः रहनेवाली ‘इन्स्टिंक्टिव्ह’ बुद्धि के कारण शेर की एक दहाड़ से हिरनों का झुँड़ भाग जाना ही चाहिए।

….क्योंकि वह ‘झुँड़’ है, ‘टीम’ नहीं।
और इसी कारण उसके नसीब में केवल जान बचाने के लिए भागना ही लिखा है।

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