समय की करवट (भाग ५) – माय भारत इज द बेस्ट!

समय जब करवट बदलता है, तब घटित होनेवाले स्थित्यंतर, हम हमारे देश के विषय में देखते जा रहे हैं।

schoolchildren_slates- समय की करवट
Photo Courtesy: www.hinduhumanrights.info

सबसे अहम बात, हमारा देश यह शहरी ‘इंडिया’ और ग्रामीण ‘भारत’ इन दो भागों में किस तरह विभाजित होता जा रहा है और यह बात किस तरह, भारत के महासत्ता बनने के आड़े आ रही है, इसका अभ्यास हमने शुरू किया। एक तरफ़ शहरों में शिक्षाक्षेत्र नयीं नयीं बुलंदियों को छूता हुआ दिखायी दे रहा है; वहीं, गाँव की प्राथमिक स्कूलें भी, कभी अध्यापकों के अभाव के कारण, कभी बच्चों के अभाव के कारण, तो कभी निधि के अभाव के कारण बन्द होने की कगार पर हैं यह भी हमने देखा। शहरों में भी मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करनेवालीं स्कूलें कम होती जा रही हैं। आज दुनिया के साथ चलना हो, तो अँग्रेज़ी भाषा का और अँग्रेज़ी माध्यम में शिक्षा प्रदान करने का महत्त्व तो है ही। अँग्रेज़ी माध्यम में से शिक्षा प्रदान करना दिनबदिन अनिवार्य साबित होता जा रहा है; लेकिन बच्चों के मन में अपनी अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम क़ायम रखने के और उस भाषा का सखोल ज्ञान निर्माण करने के विशेष प्रयास होते हुए शायद ही दिखायी देते हैं; और फिर इसीके कारण अँग्रेज़ीपरस्त ‘हॅरियों’ की संख्या जगह जगह बढ़ती चली जा रही है; और ‘हॅरी’ के मन में, ‘हरि’ के साथ रहनेवाला उसका रिश्ता जल्द से जल्द तोड़ने की जो बेसब्री है, उसकी जड़ें कहीं तो हमारी इस अँग्रेज़ीपरस्त मानसिकता में ही हैं।

जी हाँ, यह वही अँग्रेज़ीपरस्त मानसिकता है, जो अँग्रेज़ों ने हमपर राज करते हुए हमारे देश में बोयी थी। भारत से निकल लेते समय अँग्रेज़ जो अँग्रेज़ीपरस्त मानसिकता के बीज बो गये थे, उन्हें अब ढ़ेर सारे फ़ल आये हैं।

भारतीयों को अँग्रेज़ी भाषा का परिचय मूलतः, ब्रिटीश ‘शिक्षाविशेषज्ञ’ (?!) लॉर्ड मेकॉले ने, उस समय अँग्रेज़ों के उपनिवेशी रहनेवाले भारतीयों के लिए ‘ख़ास विकसित की हुई’ शिक्षापद्धति के द्वारा हुआ। अपने साम्राज्य में रहनेवाले इतने बड़े, एक उपमहाद्वीप ही रहनेवाले देश की गाड़ी ‘हाँकने के लिए’ स्वाभाविक रूप से भारी मात्रा में मनुष्यबल की ज़रूरत थी; और व्हाईसरॉय, गव्हर्नर, पुलीस कमिशनर जैसे उच्च पदों के लिए हालाँकि इंग्लैंड़ से लोग बुलाये जाते थे, लेकिन बड़े पैमाने पर लगनेवाले बाक़ी स्किल्ड, सेमी-स्किल्ड मनुष्यबल को संपूर्णतः इंग्लैंड़ से आयात करना, ज़ाहिर है, असंभव ही था। उसके लिए स्थानीय लोगों की ही मदद लेना अनिवार्य था। मग़र उसके लिए पहले उन्हें अँग्रेज़ी भाषा में शिक्षा प्रदान करना ज़रूरी था। लेकिन अँग्रेज़ी भाषा की ताकत का एहसास रहने के कारण – ‘एक बार यदि भारतीय अँग्रेज़ी भाषा आत्मसात कर लेते हैं, तो फ़िर केवल युरोप में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनियाभर में ही, अँग्रेज़ी भाषा में रहनेवाला आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का भंडार भारतीयों के लिए खुला हो जायेगा’ यह अँग्रेज़ों ने नाप लिया और उन्होंने – ‘साँप भी मरें और लाठी भी न टूटें’ इस प्रकार की – यानी ‘कारोबार चलाने के लिए अँग्रेज़ों को मदद तो होगी, लेकिन स्वतन्त्र बुद्धि से विचार करने की क्षमता विकसित नहीं होगी’ ऐसी शिक्षापद्धति भारतीयों के लिए ‘विकसित’ की। इस शिक्षापद्धति में, हररोज़ सुबह स्कूल शुरू होते समय की प्रार्थनाएँ भी, इंग्लैंड़ की रानी को ही संबोधित की हुई होती थीं। अँग्रेज़ों को इस ख़ास ‘मेड फ़ॉर इंडिया’ शिक्षापद्धति में से मूलत: तैयार करने थे – रुटिन ऑफ़िस के, लिखापढ़ी के काम करनेवाले और शारीरिक परिश्रम के काम करनेवाले। इस शिक्षापद्धति का ‘कम से कम’ (मिनिमम) और ‘कमाल’ (मॅक्झिमम) कार्य इतना ही था।

ऐसा करना अँग्रेज़ों को ज़रूरी लग रहा था, क्योंकि अँग्रेज़ो ने जब भारत में अपनी जड़ें फ़ैलाना शुरू किया, तब मुख्य रूप से उनकी आँखों में चुभने लगी, वह – भारतीय संस्कृति-परंपरा इनका गर्व छात्रों के मन पर अंकित करनेवाली यहाँ की पारंपरिक ‘पाठशाला’ शिक्षापद्धति। इस ‘भारतीयता’ के साथ रहनेवाला भारतीयों का रिश्ता यदि नहीं तोड़ा, तो हमारी यहाँ पर अधिक समय तक दाल गलनेवाली नहीं है, यह ‘ब्यापारी’ अँग्रेज़ ने नाप लिया और सर्वप्रथम यहाँ की शिक्षापद्धति पर आघात करना उन्होंने शुरू कर दिया। पाठशालाओं को बल देनेवाले आर्थिक स्रोत बन्द कराके, या तो पाठशालाओं को बन्द करवाया या फ़िर पाठशालाओं में अँग्रेज़ी विषय और कुछ समय बाद अँग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा प्रदान करना कम्पल्सरी किया।

लोकमान्य टिळक-चिपळूणकर जैसे कई देशभक्तों ने, समय पर ही इस कूटनीति को पहचानकर, ‘अँग्रेज़ी माध्यम में से राष्ट्रीय शिक्षा प्रदान करनेवालीं’ स्कूलें यदि शुरू नहीं की होतीं, तो शायद यह आक्रमण संपूर्ण रूप से सफ़ल हो गया होता।

लेकिन ‘हिस्टरी रीपीट्स इटसेल्फ़’ (‘इतिहास अपने आपको दोहराता है’)) यह जो कहा जाता है, वह शायद सच ही होगा; क्योंकि हालाँकि उस समय ना सही, लेकिन आज यह, भारतीयता पर का विदेशी आक्रमण भारी मात्रा में सफल होता हुआ दिखायी दे रहा है। देश को हर बात के लिए कोसने की आदत, आज की युवापीढ़ी के दिलोदिमाग पर छायी हुई दिखायी देती है। विदेशी ब्रँड्स के कपड़ें, गाड़ियाँ, मोबाईल्स, पर्फ्युम्स….सबकुछ विदेशी ही। इस कारण ऐसा लगता है कि भविष्य के ‘सर्व्हायवल ऑफ द फिटेस्ट’ के संघर्ष में, हमें ख़त्म करने के लिए बाहर से किसी को आने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी, उसके लिए हमारी यह अँग्रेज़ीपरस्त मानसिकता ही का़फ़ी है। जब यह मानसिकता रहती है, तब हम हमेशा हमारे देश को और देश से संबंधित बातों को निम्न स्तर का मानते रहते हैं।

आज हमारे देश मे घटित हो रहीं कई बातों के कारण हम ‘फ्रस्ट्रेट’ (हतोत्साहित) हो जाते हैं और ‘हम गर्व करें, तो भी किस बात पर’ ऐसा युक्तिवाद कई लोग करते हैं और बेझिझक विदेशी वस्तुओं के आदी हो जाते हैं।

यही है वह, अँग्रेज़ों ने हमारे देश में बोयी हुई, बढ़ायी हुई अँग्रेज़ीपरस्त मानसिकता, जिसमें से उन्हें – यहाँ की अँग्रेज़ी सत्ता का तंबू सँभालने में मदद करनेवाले, आँखों पर पट्टी लगाये हुए, उनके हुक़्म की ज्यों कि त्यों तामिली करनेवाले लोग चाहिये थे। यही मानसिकता हमें, हमारे देश को त्यागकर विदेश जाने के लिए उत्सुक बनाती है।

विदेश में शिक्षा हासिल करने की चाह कइयों को होती है। विदेश में मिलनेवाले ज्ञान का दर्जा और वहाँ पर अनुसंधान के लिए रहनेवालीं सुविधाएँ इन्हें मद्देनज़र किया जाये, तो वह चाह एकदम बेबुनियाद भी नहीं है। लेकिन एक बार शिक्षा हासिल की, तो फ़िर पहले तय कियेनुसार (‘मैं केवल पढ़ाई के लिए विदेश जा रहा हूँ, ना कि घर बसाने के लिए’ यह वहाँ जाने तक सबको दोहराया जाता है); देश वापस लौटते समय, मन में यह ‘हॅरी’ और ‘हरी’ का नाच पुनः शुरू हो जाता है। ‘इतनी समृद्धि को छोड़कर क्यों जाये हम पुनः ‘उस’ ग़रीब देश में’ ऐसा विचार मन पर हावी होकर, कई ‘हॅरी’ अपने देश को लात मार देते हैं।

लेकिन यहाँ से वहाँ की केवल समृद्धि ही दिखायी देती है। कुछ समय बाद, ‘आऊट ऑफ़ फ़ॅशन’ ‘हरी’ को पीछे भारत में छोड़ विदेश आकर ‘हॅरी’ बने लोगों को जब इस बात का पता चल जाता है कि उन विदेशियों के लिए हम सिर्फ़ ‘एनी टॉम, डिक अँड हॅरी’ के ‘हॅरी’ हैं, महज़ ‘आऊटपुट’ देनेवाले ‘मशिन’ हैं, जिसका आऊटपुट कम हो जाने पर उसे तुरन्त ‘रिप्लेस’ किया जानेवाला है; तब आँखें खुलती हैं और फ़िर ‘ईस्ट ऑर वेस्ट, माय ‘भारत’ इज द बेस्ट’ की याद आती है।

लेकिन मूलतः यह नौबत हमपर आती ही क्यों है? तो हमारी परास्त मानसिकता के कारण, ‘अन्य देशों की तुलना में हमारा देश कुछ कम ही है’ यह धारणा रखने की मानसिकता में से ही; यह हम कब समझेंगे? और इसे यदि कोई बदल सकता है, तो वो हम ही हैं, यह बात भी हमारी समझ में कब आयेगी?

‘हॅरी’ ने भले ही ‘हरी’ से नाता तोड़ दिया हो, लेकिन ‘समय की करवट’ में छिपी हुईं विचित्र दैवगतियों के कारण, नज़दीकी भविष्य में ‘हरी’ पुनः केन्द्रबिन्दु बनने की कगार पर है, ऐसा दिखायी दे रहा है। उसके बारे में देखते हैं अगले लेख में।

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