समय की करवट (भाग १७)- पुन: वही पुराना राग…

‘समय की करवट’ बदलने पर क्या स्थित्यंतर होते हैं, इसका अध्ययन करते हुए हम आगे बढ़ रहे हैं।

जब किसी देश का समाज एक स्वयं-अनुशासनबद्ध समूह के रूप में आचरण न करते हुए, प्राणियों के किसी झुँड़ की तरह बर्ताव करने लगता है, तब उस देश के लिए ‘समय की करवट’ अनिष्ट दिशा में बदलने की शुरुआत होती है, यह हमने देखा। यदि ऐसा नहीं होने देना है, तो सबसे पहले हमें ही चौकन्ना रहना चाहिए। झुँड़ की मानसिकता में से बाहर आना चाहिए और इसकी शुरुआत हम व्यक्तिगत स्तर पर से ही कर सकते हैं; क्योंकि झुँड़ की मानसिकता की पहचान हमें बिलकुल छोटी उम्र में ही हुई होती है। याद कीजिए, हमारे स्कूल-कॉलेजों के दिन….

हमारे टीचर हमें कुछ होमवर्क-प्रोजेक्ट देते हैं या फिर कुछ अ‍ॅक्टिव्हिटी करने के लिए कहते हैं और उसे पूरा करने के लिए ‘डेडलाईन’ देते हैं। ‘डेडलाईन’ के अंदर वह काम पूरा न होने पर दुगुना प्रोजेक्टवर्क करने की सज़ा रहती है।

उस दिन तो ऐसा ‘प्रतीत’ होता है कि उस डेडलाईन को अभी बहुत दिन बाक़ी हैं; इसलिए ‘कर लेंगे आराम से’ ऐसा विचार शुरू शुरू में किया जाता है। कुछ दिन ऐसे ही निकल जाते हैं….काम शून्य….टीचर बीच में कभी याद भी दिलाते हैं। फिर पुनः एक बार नया निर्धार….अभी भी टार्गेट आसानी से पूरा किया जा सकता है ऐसा लगता है। लेकिन इसी कारण, हाथ से कुछ भी नहीं हो पाता है। प्रोजेक्ट देते समय जो कालावधि दी हुई होती है, उस व़क्त का प्रमाण समझो ‘दो-तीन दिनों में एक एक्झरसाईज’ ऐसा होता है, तो बीच के समय में वह प्रमाण ‘हररोज़ एक एक्झरसाईज’ पर आ जाता है। अभी भी वैसे समय बाक़ी है….लेकिन अब अन्य कुछ कामों के कारण या फिर अन्य किसी कारणवश, अभी भी टालमटोल की जाती है।

अब ‘मॅन्डेटरी ओव्हर्स’ – अंतिम कुछ दिन शेष बचे होते हैं। इस कारण अब लिमिटेड ओव्हर क्रिकेट मैचों की तरह ‘रिक्वायर्ड रन रेट’ बहुत ही बढ़ा हुआ होता है। अब ‘दिन में एक एक्झरसाईज’ के बजाय ‘दो दिनों में तीन एक्झरसाईज’ और आख़िर में, ‘दिन में चार-चार एक्झरसाईज’ करने की नौबत आती है। अब बिलकुल हाथ की ऊँगलियों से गिने जा सकें, इतने ही दिन ‘डेडलाईन’ के बचे होते हैं। फिर एक-दूसरे में पूछताछ शुरू होती है – ‘तेरा हो गया क्या रे प्रोजेक्ट? तेरा हुआ क्या?’

ज़िन्दगी में हम बहुत बार इस ‘हर्ड मेंटॅलिटी’ का ही शिकार बन जाते हैं, जिसकी पहचान हमें बचपन से ही हो जाती है। टीचर द्वारा कुछ होमवर्क दिया जाने के बाद, जब उसके लिए दी हुई डेडलाईन में हम उसे कर नहीं पाते, तो हम पहले यह देखने लगते हैं कि कितनों का नहीं हुआ है? वह संख्या जितनी ज़्यादा हो, उतना हमें सज़ा से कम डर लगता है।

अधिकांश लोग देर से हड़बड़ाकर जाग गये होते हैं। इसलिए अब दिनरात एक करके ‘एक्झरसाईज’ सॉल्व करना चालू रहता है। कुछ लोग इतने भी कष्ट उठाने की तोहमत नहीं करते। ‘कई लोगों के बहुत सारे ‘एक्झरसाईज’ सॉल्व करने अभी बाक़ी हैं’ यह जान जाने के बाद – ‘जो कुछ भी सज़ा मिलेगी, वह सभी को मिलेगी, केवल मुझ अकेले को तो नहीं होगी’ ऐसी झुँड़-मानसिकता से सोचते हुए, कोशिश करना ही छोड़ देते हैं। कुछ लोगों ने तो शुरुआत भी नहीं की होती है। कुछ लोग – ‘उस फलाने से मैं भला, मेरे कम से कम इतने तो कंप्लीट हुए हैं, उसके तो कुछ भी नहीं हुए’ ऐसा विचार करते हैं।

अब यहाँ पर ‘हर्ड मेंटॅलिटी’ का साम्राज्य शुरू होता है। अब तक, ‘मेरे एक्झरसाईज सॉल्व करके नहीं हुए’ इसलिए टीचर की सज़ा से डरनेवाला मैं, अब ‘मेरे जैसे ही बहुत सारे हैं, नहीं….मुझसे भी बदतर स्थिति कइयों की है’ यह जान जाने के बाद, धीरे धीरे झुँड़ की मानसिकता के चँगुल में फँसने लगता हूँ। टीचर का डर तो दिल में होता ही है। लेकिन अब बाक़ी लोगों की हालत जान जाने के बाद – ‘उसमें क्या है, केवल मेरे ही नहीं, बल्कि इतने सार लोगों के होने बाक़ी हैं। अतः सज़ा मिलेगी तो सभी को मिलेगी, केवल मुझे अकेले को नहीं’ यह विचार; या फिर – ‘इतने सारों को टीचर थोड़े ही ना सज़ा देनेवाले हैं? वे ‘दयालु’ है। मुझे तो लगता है कि?वे ‘डेडलाईन’ बढ़ाकर दे देंगे’ ऐसे विचार हावी होने लगते हैं। यानी हमने पिछले लेखों में जिसका अध्ययन किया, उस ‘बाघ पीछा कर रहे हिरनों के झुँड़ के सदस्य की तरह’ हम बर्ताव करने लगते हैं। यह इस प्रकार का विचार मैं कर रहा हूँ यानी मन में ही सही, लेकिन खुद भी, बाघ के डर से भागनेवाले उस झुँड़ के बीचोंबीच आना चाहता हूँ, जिससे कि वह बाघ मुझे खा लेने का ख़तरा कम से कम रहेगा।

यही है वह ‘हर्ड मेन्टॅलिटी’ की हमें बचपन में ही हुई पहचान! मेरे एक्झरसाईज सॉल्व करके ‘पूरे’ नहीं हुए मतलब नहीं हुए। उसके लिए इतनीं वजहें बताने का कोई मतलब ही नहीं है कि मेरी तुलना में उस फलाने के ज़्यादा बाकी हैं, मेरे तो इतने ही बाक़ी थे, वगैरा वगैरा वगैरा। ऐसा तुलनात्मक (‘सब्जेक्टिव्ह’) विचार न करते हुए ‘अ‍ॅब्सोल्यूट’ विचार करके, ‘इस मामले में मेरी ‘पूर्णता’ कम पड़ गयी’ इसी बात पर हमें ग़ौर करना होगा।

….और ऐसी मेंटॅलिटी जब हमारी होगी, तभी हम किसी झुँड़ के सदस्य न रहते हुए, किसी स्वयं-अनुशासनबद्ध समूह के सदस्य बनने की प्रक्रिया की शुरुआत होगी। कोई लक्ष्य हासिल करने में मुझे जितनी कालावधि प्राप्त हुई हैं, उसका पूरा का पूरा इस्तेमाल करके; मेरी जितनी क्षमता है वह पूरी की पूरी उपयोग में लाकर, उस काम पर हावी होने की आदत स्वयं को डाली जाये, तो ‘डेडलाईन’ का डर लगने का कोई कारण ही नहीं होगा; इतना ही नहीं, बल्कि ‘डेडलाईन’ यह ‘डेड’लाईन न रहते हुए हमारे विकास की ‘लाईफ़’लाईन बन जायेगी।

हम ‘हर्ड मेंटॅलिटी’ इस विषय का इतना विस्तारपूर्वक अध्ययन क्यों कर रहे हैं? क्योंकि हममें से हर कोई, कभी न कभी, वैसा आचरण करता है इसलिए। क्योंकि यही समूह की मानसिकता, ‘झुँड़ की मानसिकता’ की ओर भी मुड़ सकती है और ‘संघभावना (टीमस्पिरिट) से काम करनेवाले स्वयं-अनुशासनबद्ध समूह’ की मानसिकता की ओर भी मुड़ सकती है इसलिए;

और उसे स्वयं-अनुशासनबद्ध समूह की मानसिकता की ओर मोड़ने के लिए ‘मैं’ जितना ही ‘हम’ भी महत्त्वपूर्ण है।

हमें हमारे भारत को यदि केवल इस मशहूर गाने में ही नहीं, बल्कि वास्तविक रूप में ‘सारे जहाँ से अच्छा’ बनाना है, दुनिया में अहम स्थान पर ले जाकर बिठाना है; तो हमें – ‘मैं’ यह विचार थोड़ासा बाजू में रखकर ‘हम’ यह विचार करना सीखना होगा। मेरी हर गतिविधि से ‘मेरा फ़ायदा कितना होगा’, इससे भी ज़्यादा ‘मेरी इस गतिविधि से कहीं मेरे देश का नुकसान तो नहीं हो रहा है’, यह आत्मपरीक्षण भी हमें करना ही होगा।

….और यह आत्मपरीक्षण करना ज़रूरी है, क्योंकि फिलहाल हालात तो उससे एकदम विपरित ही दिखायी दे रहे हैं।

इसीलिए ऐसा डर लग रहा है कि कहीं पुनः – ‘फिर से अलापे गये पुराने राग’ की तरह, इस बार भी ‘समय की करवट’ भारत के लिए अनिष्ट दिशा में तो नहीं बदलेगी!

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