समय की करवट (भाग ३) – पुनः ‘इंडिया’

A mother and father hold up arms over their child to form a roof of security, protection, and safety.

समय करवट बदलते समय दुनिया में, ख़ासकर भारत में क्या स्थित्यन्तर हो रहे हैं, यह हम देख रहे हैं। हमारा देश ‘इंडिया’ बनाम ‘भारत’ इनमें कैसे विभाजित हुआ है, यह जानने की हम कोशिश कर रहे हैं।

खुली हवा में रपट करने की अपेक्षा नेट पर के ‘फ़ार्मव्हिले’ में अपना जी रिझानेवाली, वक़्त आने पर कर्ज़ लेकर ‘कल’ की अपेक्षा सबकुछ ‘आज’ ही पाना चाहनेवाली आज की युवा पीढ़ी को; स्वयं के प्रति, अपनी शिक्षा के प्रति, अपनी क्षमता के प्रति अच्छाख़ासा आत्मविश्‍वास है और उसमें से जिनके पास कोई विशेष हुनर (स्पेशालिटी) है ऐसे, वास्तविक रूप से कुशल रहनेवाले तंत्रज्ञों की तो ‘लाथ मारीन तिथे पाणी काढीन’ (मैं जहाँ कहीं भी जाऊँगा, दुनिया मेरे पीछे दौड़ेगी) ऐसी वृत्ति रहती है।

और इस शिक्षा के प्रसार के कारण ही ‘इंडिया’ में (‘भारत’ में नहीं) जातिधर्मभेद धीरे धीरे कम होते दिखायी दे रहे हैं। शादीब्याह के मामले में भी ‘अपना जीवनसाथी अपनी ही जाति का, धर्म का होना चाहिए’ ऐसा दुराग्रह अब कम दिखायी देता है – बच्चों के माँ-बाप का भी।

लेकिन इस सारे झमेले में पारिवारिक मूल्य भी तेज़ी से बदलने लगे हैं। संयुक्त परिवारपद्धति तो कई वर्ष पहले ही अधिकांश रूप में इतिहास का हिस्सा ही बन गयी है। लेकिन इसके लिए ज़िम्मेदार केवल ‘आज़ाद जीवन जीने की इच्छा’ यही नहीं, बल्कि हालात भी हैं। बहुत पहले शहर में आये लोगों ने जैसे तैसे ही सही, लेकिन अपना खुद का डेढ़-दो कमरों का घर तो बनाया। लेकिन अब घरों की कीमतें, जो आसमान को छू रही हैं, उनके कारण आज के दौर में ऐसा कुछ करना यह आम इन्सान के लिए तो संभव ही नहीं है। उनके लिए, शहर के बाहर, लेकिन (नौकरी-धंधा शहर में ही रहने के कारण) शहर के नज़दीक रहनेवाले घरों का ही विकल्प शेष रहता है। जिस समाज में बेटी को ब्याहके उसे ससुराल भेजने के परिपाटी है, उसमें अब जिस घर में दो से अधिक बेटे हैं, उनका क्या? परिवार बढ़ने पर वह घर सबको रहने के लिए पर्याप्त नहीं होता। माँ-बाप, दो बेटे और अब उनकी शादियों के बाद उनके परिवार ऐसे तीन परिवार दो कमरों के घर में भला कैसे रह सकते हैं? इसलिए कम से कम एक बेटे को तो दूसरे घर का प्रबन्ध करना ही पड़ता है और हालातों के अनुसार वह भी शहर में नहीं, बल्कि शहर से बाहर। साथ ही, बच्चों की शिक्षा का बढ़ता खर्चा उठाना हो, तो अन्य किन किन खर्चो में कटोतरी करनी ही पड़ेगी। ऐसे हालात में संयुक्त परिवार का खर्चा उठाना शायद संभव नहीं होगा।

इन सब बातों को मद्देनज़र करते हुए ही आज की पीढ़ी शादी अधिक से अधिक प्रलंबित करने की कोशिश करती है।
इसीमें से ‘न्यूक्लिअर फ़ॅमिली’ की संकल्पना भारत में भी जड़ें फ़ैलाने लगी है – मैं, मेरी पत्नी और हमारा इकलौता बेटा, बस्स! इस न्युक्लिअर फ़ॅमिली में बेचारे बूढ़े माँ-बाप का तो कोई स्थान ही नहीं है। क्यों? तो ‘यह वक़्त की माँग है’ ऐसी धारणा हमने बना ली है इसलिए! हम सब मिलकर तो विद्यमान छोटे घर में रह नहीं सकते और मैं शहर में बड़ा घर खरीद नहीं सकता। इसलिए माँ-पिताजी उनके घर में रहें और हम हमारे घर में; या फ़िर आजकल माँ-बाप को वृद्धाश्रम भेजने का प्रमाण बढ़ गया है। इस अनिष्ट ‘पश्‍चिमी’ संकल्पना ने अब भारत में भी जड़ें फ़ैलायी हैं। ऐसा करने से हम जैसा चाहें, वैसा ‘आज़ाद’ जीवन जी सकते हैं, ऐसी हमने हमारे मन की दृढ धारणा बना ली है इसलिए।

शुरू शुरू में हालाँकि इस ‘आज़ादी’ का लुफ़्त उठाना अच्छा लगता हो, मग़र फ़िर भी धीरे धीरे उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं, जो अमरिकी घरों में, सालों पहले ही सामने आ गये हैं। जिन घरों में बच्चों को दादा-दादी का प्यार मिलता है, उन बच्चों का विकास अच्छे मार्ग से होता है, यह भारत में पीढ़ी-दरपीढ़ी पुनः पुनः सिद्ध हो रहा है। साथ ही, जिस घर में एक ही सन्तान है, उसकी अपेक्षा, जिस घर में दो सन्तानें हैं, उस घर के बच्चों का विकास अधिक अच्छा होता है, यह भी अब सिद्ध हो गया है।

ज़ाहिर है, ‘नो ग्रँडपॅरेन्ट्स-सिंगल चाईल्ड’ ऐसी न्युक्लिअर फ़ॅमिली में ये दोनों चीज़ें नहीं मिलतीं। कई बार अपने नौकरी-धंधे के कारण बच्चे को मजबूरन क्रेश में रखना पड़ता है। यहाँ उसे माँ-बाप का या दादा-दादी का प्यार नहीं मिल सकता। लेकिन इसका एक अच्छा परिणाम यह हो जाता है कि यहाँ पर वे बच्चे अन्य बच्चों के साथ मेलजोल बढ़ाना सीख जाते हैं, कई बार अपनीं डिसिजन्स खुद लेना भी सीख सकते हैं। इसपर उपाय यही होगा कि मजबूरन, नौकरी-धंधे के कारण यदि बच्चों को क्रेश में रखना पड़ें, तो जब हम घर में रहेंगे, तब बच्चों को क्वालिटी टाईम दिया जाये।
इस ‘इंडिया’ में अन्य भी कुछ ट्रेंड्स दिखायी देते हैं। न्युक्लिअर फ़ॅमिली पसन्द करनेवाला, नेट पर ही अधिक समय व्यतीत करनेवाला आज के ‘इंडिया’ का युवक अब सामाजिक उपक्रमों में भी सम्मिलित होते हुए दिखायी देता है।

फ़िर चाहे वह, सामाजिक इश्यूज् के बारे में उदासीन रहनेवाले युवाओं को नींद से जगानेवाला ‘जागो इंडिया’ उपक्रम हो; ‘सार्वजनिक जगहों पर कचरा मत फ़ेंको’ यह जतानेवाला उपक्रम हो; ‘वातावरण या ध्वनि प्रदूषण करनेवाले पटाख़ों का इस्तेमाल मत कीजिए’ यह जतानेवाला ‘से नो टू क्रॅकर्स’ उपक्रम हो; बिजली बचाने के विषय में जागृतता उत्पन्न करनेवाला ‘अर्थ अवर’ उपक्रम हो; या फ़िर 26/11 के मुंबई पर के आतंकवादी हमले का निषेधकार्यक्रम हो;आज के ‘इंडिया’ का युवक उसमें बढ़ती मात्रा में सम्मिलित होते हुए दिखायी देता है। चुनावों के दौरान व्होटिंग के लिए जानेवाले युवाओं का भी प्रमाण बढ़ते हुए दिखायी दे रहा है। राजनीति में भी बड़े पैमाने पर युवा चेहरे दिखायी देने लगे हैं। लेकिन ये छोटी-मोटी घटनाओं को बाजू में रखो, तो युवा ‘इंडिया’ का हर कदम देश को मज़बूत बनाने की दिशा में ही पड़ने के लिए, वैसी जागृतता आने के लिए अभी भी बहुत समय लगेगा।

‘इंडिया’ में दिखायी देनेवाले ऐसे उलटे-सीधे मिश्र ट्रेन्ड्स देखकर दरअसल विश्‍लेषक भी हैरान हो जाते हैं। ‘इंडिया’ किस दिशा में जा रहा है, यह समझ में नहीं आ रहा है।

चाहे जो कुछ भी हो, समय के इस करवट बदलने फ़ायदा केवल ‘इंडिया’ को ही नहीं, बल्कि ‘भारत’ को भी होगा, ऐसी हम उम्मीद करते हैं।

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