समय की करवट (भाग १)

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नींद में हम कई बार करवटें बदलते हैं। कई बार किसी कारणवश यदि नींद न आ रही हो, तो करवटें बदलते हुए सारी रात निकल जाती है, मगर नींद तो आती ही नहीं। इसी पर आधारित एक वाक्प्रचार भी हमने कई बार कथाओं-उपन्यासों में पढ़ा होगा – ‘समय ने करवट बदली’। समाजजीवन में, वैश्विक/राष्ट्रीय स्तर पर हुआ कोई बहुत बड़ा परिवर्तन निर्देशित करने के लिए – ‘समय ने करवट बदली’ इस आलंकारिक वाक्प्रचार का इस्तेमाल किया जाता है।

लेकिन इसका वास्तविक अर्थ क्या है? ‘समय ने करवट बदली’ अर्थात् क्या समय सो गया था? यह तो संभव ही नहीं है। समय तो शुरू से ही, एक ही रफ्तार से दौड़ रहा है, इस विश्व में घटित होनेवालीं यच्चयावत् प्रकट एवं अप्रकट घटनाओं का वह गवाह है। फिर उसने करवट बदली यानी क्या? तो कई दिन-साल तक समाजजीवन फलाना फलाना पद्धति से चल रहा था, उसमें जमीन-आसमान का बदलाव आया और वह अलग ही दिशा में जाने लगा; ऐसा जब होता है, तब कहा जाता है कि ‘समय ने करवट बदली’।

आज यदि वैश्विक, ख़ासकर भारत की परिस्थिति पर गौर किया जाये, तो यह वाक्प्रचार उसके लिए हूबहू लागू हो जाता है; क्योंकि फिलहाल विश्व संक्रमण के पड़ाव (क्रॉसरोड्स) पर आकर थम गया है। अपना पुराना रूप त्यागकर नया रूप धारण करने की कगार पर है।

यदि थोड़ा पीछे झाँककर देखें, तो उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के मध्य तक युरोपीय देश ताकतवर थे, खासकर ब्रिटन तो महासत्ता ही था। ब्रिटीश साम्राज्य दुनियाभर में इतना फैला था कि ‘ब्रिटीश साम्राज्य पर का सूरज ढलता नहीं है’ ऐसा दर्पोक्ति से कहे जाने के वे दिन थे। अपितु ब्रिटन के साम्राज्यविस्तार की नींव तो नीतिधर्म पर आधारित न रही होने के कारण, वह कमजोर ही रही; और बीसवीं सदी के मध्य तक दो विश्वयुद्धों ने पहले से खोख़ले बनाये हुए इस साम्राज्य में से कई देशों ने, आजादी के लिए जंग लड़कर स्वतन्त्र होते हुए इस साम्राज्य में से खुद की रिहाई करा दी। उससे पहले तक़रीबन दो सौ साल पहले, भारत को खोजने निकले कोलंबस को ‘गलती से’ अमरीका की खोज हो जाने के कारण और इस संसाधनसंपन्न अमरीका के, ख़ासकर वहाँ की सोने की राशियों के वर्णन सुनकर इस ब्रिटन में से ही और अन्य युरोपीय देशों से भी लोगों के ताँते अमरीका में दाख़िल होने लगे। प्राकृतिक संसाधनों से ओतप्रोत भरी हुई अमरीका में उस समय तक वहाँ के मूल आदिम निवासी ‘रेड इंडियन्स’ सुख-चैन से रह रहे थे। लेकिन इन युरोपीय लोगों ने वहाँ पहुँचने पर, इस संसाधनसंपन्न भूमि पर कब्जा करने की इच्छा का भूत दिमाग पर सवार हो जाने के कारण, इन मूल निवासियों को अपने आधुनिक शस्त्रों के बलबूते पर या तो मार दिया, या फिर अपना गुलाम बनाकर रख दिया। आगे चलकर कई लड़ाइयों के बाद, कई क़ानून बनते बनते आख़िर उनमें से अधिकांशों को मुख्य धारा में सहभागी करा लेने की प्रक्रिया शुरू हो गयी। समृद्ध देश रहने के कारण, अनुसंधान के लिए भी प्रचंड निधि अमरीका के पास हमेशा ही उपलब्ध था। उसके बलबूते पर अमरीका विज्ञान एवं तंत्रज्ञान के विकास की मानो प्रतीक ही बन गयी।

उसी तरह व्यापार करने हेतु अँग्रेजों ने भारत में प्रवेश किया। उससे पहले भारत आकर गये हुए युरोपीय यात्रियों ने, भारत की समृद्धि के जो वर्णन किये हुए थे, उन वर्णनों के कारण विदेशियों के मुँह से लार टपक ही रही थी। ‘भारत यानी शेर-साँपों का और हाथियों का देश, जहाँ सोने का धुँआ निकलता है’ ऐसी भारत की प्रतिमा विदेशों में थी। उस सोने के धुँए के लालच में ही यहाँ पर आये अँग्रेजों ने फिर ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के माध्यम से, छलकपटपूर्वक भारतीय राजा-महाराजाओं को, संस्थानिकों को ‘साम-दाम-भेद-दंड’ इन उपायों से अपने वश में कर, भारत पर अपना राज स्थापित किया और ‘डिव्हाईड अँड रुल’ इस तन्त्र से उसे मजबूत बना दिया। आनेवाली पीढ़ियाँ अँग्रेज-परस्त ही बनीं रहें, इस उद्देश्य से यहाँ के लोगों को अँग्रेजी सभ्यता की शिक्षा देना शुरू कर दिया। ‘हम परतन्त्रता (गुलामी) में हैं’ इसका खयाल तक भारतीयों के मन में न आयें, इसलिए जी-जानतोड़ प्रयास किये। मगर फिर भी सन 1857 में जो चिंगारी भड़कनी थी, वह तो भड़की ही; और आगे चलकर सन 1857 से लेकर 90 साल अखण्डित रूप में संग्राम करते हुए, अनगिनत स्वतन्त्रतासैनिकों का बलिदान देकर भारत ने पुनः स्वतन्त्रता हासिल की।

सन 1947 में भारत स्वतन्त्र हो गया। डेढ़सौ वर्ष की गुलामी से कमजोर बन चुके भारत में अनगिनत समस्याएँ थीं; अँग्रेजों ने पूरी तरह लूटा हुआ होने के कारण कफल्लक बन चुके भारत ने, आजादी की दहलीज पर बँटवारे का आघात सहते सहते ही कदम रखा। शुरू शुरू में रेंगते हुए, लड़खड़ाते हुए मार्गक्रमणा करनेवाले भारत को आगे चलकर अपना मार्ग मिल गया और फिर धीरे धीरे, लेकिन सावधानतापूर्वक, विकास के एक एक क्षेत्र को काबीज करना भारत ने शुरू किया। एक बड़े-से पच्चास वर्ष के कालखण्ड को पचाकर भारत आज सिर उठाकर खड़ा है, दुनिया के माथे पर अपना कदम रखने।

अभी अभी तक ‘गरीब देश’ बुलाकर ताने मारे जानेवाले भारत को दुनिया की जितनी जरूरत है, उतनी ही जरूरत, बदलते हालातों में, दुनिया को भी भारत की है। ग्लोबलायझेशन का स्वीकार करने के बाद, अभी अभी तक ‘विदेशी कंपनियों ने भारत में घुसकर भारतीय मार्केट को निगल जाना, भारतीय स्पर्धक कंपनियों का या तो अधिग्रहण (टेकओव्हर) करना या फिर उन्हें बंद करवा देना’ ऐसा ही ट्रेन्ड था। बदलते वैश्विक हालात में कल के मार्केट लीडर्स आज सड़क पर आने की कगार पर हैं, ऐसी स्थिति है।

जिस तरह ब्रिटन ने शस्त्र-अस्त्रों की ताकत पर और छलकपटनीति का इस्तेमाल कर, दुनिया भर में अपने साम्राज्य का निर्माण किया, उसी तरह अमरीका ने भी उसी पद्धति का थोड़ेबहुत फर्क़ से इस्तेमाल करके, यानी आर्थिक ताकत के बलबूते पर, किसी भी विधिनिषेध का पालन न करते हुए अपना आर्थिक साम्राज्य दुनिया भर में फैलाया।

‘ग्लोबलायझेशन’ का पाठ दुनिया को पढ़ानेवाली, इतना ही नहीं, बल्कि ‘ग्लोबलायझेशन’ का एक शस्त्र के रूप में इस्तेमाल कर, दुनियाभर के देशों के हाथ मरोड़नेवाली उसी अमरीका पर आज, अपने नागरिकों को – ‘बाय अमेरिकन’ की पट्टी पढ़ाने की नौबत आयी है। आज भारतीय कंपनियाँ विदेश जाकर वहाँ के मार्केट्स पर अपना अमल स्थापित कर रही हैं। टाटा, रिलायन्स जैसी भारतीय कंपनियाँ विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण (टेकओव्हर) कर रही हैं, वहाँ के स्थानीय लोगों के रोजगार का स्रोत बन रही हैं। यही है, वह ‘समय का करवट बदलना’। किसी ज़माने में ‘देनेवाले’ रह चुके लोग शायद बदलते हालातों में ‘लेनेवाले’ बन सकते हैं।

इन्सान जब नींद में करवट बदलता है, तब जिस तरह उसके द्वारा करवट बदलने से पहले जो चीज़ें उसके बदन के नीचे दबी हुई होती हैं, वे चीज़ें करवट बदलने के बाद मुक्त हो जाती हैं और दूसरी अन्य कुछ नयीं चीज़ें यदि बदन के नीचे फॅंस गयीं, तो वे कुचली जाने का ख़तरा बढ़ता है; ठीक उसी तरह समय की इस करवट के बारे में भी हो सकता है। इसलिए अब समय के द्वारा इस तरह करवट बदली जाने पर कौन कौन कुचला जानेवाला है, भगवान ही जानें!

यह सब याद आने का कारण, हाल ही में माध्यमों में प्रसारित हुई एक ख़बर – ‘भारतीयों के, परतन्त्रता के भूतकाल की कई स्मृतियाँ जिसके साथ जुड़ी हुई हैं, उस ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ का एक अनिवासी भारतीय ने अधिग्रहण कर लिया है।’ उसे पढ़कर कई संमिश्र भावनाएँ मन में जाग गयीं, धीरे धीरे वे सुस्थिर होती गयीं और बचपन में कभी कथा-उपन्यासों में पढ़ा हुआ यह वाक्प्रचार याद आया – ‘समय ने करवट बदली है’ यही सच है।

समय की करवट

भाग – २

One Response to "समय की करवट (भाग १)"

  1. Chetan Deore   November 28, 2016 at 5:03 am

    Very nice article, it gives the fundamental idea about changes happening around the world.

    Eager to read futher..

    Chetan Deore

    Reply

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